कोयला उद्योग; कमर्शियल माइनिंग के खतरे

मंत्री के साथ वार्ता विफल होने के बाद भी 16 अप्रैल की देशव्यापी कोयला हड़ताल नहीं हो सकी। मुंबई (थाणे) में कोयला मंत्री पीयूष गोयल ने कोयला यूनियनों को वार्ता के दिखावे के लिए बुलाया था । इस वार्ता के बाद कोई समाधान नहीं निकला था और ट्रेड यूनियनों ने हड़ताल जारी रखने का फैसला किया है । लेकिन उसके बाद कोई "कमेटी बनाने और यूनियनों की सुनने" की मुँह दिखाई हुयी और "घुटना पेट की तरफ ही मुड़ता है" की तर्ज पर सबसे पहले बीएमएस ने पीठ दिखाई उसके बाद एक-एक कर सभी यूनियनें वापस हो गयीं - आखिर में "साझी एकता की खातिर" बिलकुल आख़िरी पलों में सीटू ने ही "संघर्ष जारी रखने तथा 16 को जुझारू विरोध प्रदर्शनों" का आह्वान किया।
यह हड़ताल - जो भले नहीं हुयी - के सवाल बहुत गहरे हैं, यदि उन्हें हल नहीं किया गया तो उसके नतीजे बेहद दूरगामी होंगे। इस आंदोलन - जो जारी है और देरसबेर हड़ताल तक जाएगा ही - का मुख्य विरोध कोयला उद्योग, जो अब तक पूरी तरह सार्वजनिक क्षेत्र में रहा है , को व्यापारिक खनन (कमर्शियल माइनिंग) के लिए खोले जाने के मोदी सरकार के फैसले का है । साधारण भाषा में इसका मतलब समझना जरूरी है।
अब तक कोयले का उत्पादन और व्यापार कोल इंडिया के हाथ में था । निजी कम्पनियां कोयला खदान ले सकती थीं, मगर कैप्टिव माइंस के रूप में, मतलब वे सिर्फ अपने उद्योग -बिजली, सीमेंट इत्यादि- के उपयोग के लिए कोयला इस्तेमाल कर सकती थीं । अब उन्हें बाजार में बेचने की छूट भी दे दी गयी है ।
तो ? इसमें नुकसान क्या है ?
इसमें नुक्सान ठीक वैसा ही है जैसे 111 लाख करोड़ रुपयों की जमा राशि वाले सार्वजनिक बैंकों का पासवर्ड नीरव मोदी को दे दिया जाये । सरल शब्दों में कहें तो निजी घरानों के हाथों में इसे दे दिए जाने के घाटे और खतरे बहुआयामी भी हैं दूरगामी भी हैं ।
जैसे उत्पादन और विक्रय दोनों ही मामलों में कमर्शियल माइनिंग करने वाली कम्पनियों/पूंजीराक्षसों की कसौटी तीन होंगी मुनाफ़ा, अधिक मुनाफ़ा और अधिकतम मुनाफ़ा !! सारी योजना इसी त्रिशूल पर आधारित होगी । नतीजे में उनका लक्ष्य कोयले का अधिकतम और हर तरह से सुरक्षित उत्पादन नहीं आसान और फ़टाफ़ट ज्यादा से ज्यादा उत्पादन होगा ।
वे कोयला खदानों का शिकार हिंसक जानवर की तरह करेंगे । जो आसानी से निकाला जा सकता है उतना 50 से 60% खोदा और बाकी छोड़ दिया । क्यों ? क्योंकि बाकी को निकालने के लिए जिस तरह के सपोर्ट सिस्टम, तकनीकी कौशल और सुरक्षा प्रबंधों की जरूरत पड़ती है, उसमें खर्चा है । उत्पादन लागत बढ़ जाती है । वे कोयला निकालने नहीं मुनाफ़ा कमाने आ रहे हैं । कोयला ऐसी खनिज सम्पदा है जिसे दोबारा नही बनाया जा सकता । जो छूट गया वो बर्बाद हो गया । यह सिर्फ आशंका भर नहीं है । 1973 में कोयला खदानों के राष्ट्रीयकरण के पहले की खदानों के उत्खनन के पैटर्न उदाहरण के रूप में सामने हैं ।
चूंकि इनके लिए मुनाफ़ा ही ईश्वर है इसलिये देश-वेश, राष्ट्र-वाष्ट्र के फालतू के चोंचलों और उसकी जरूरतों के "तुच्छ माया मोह" में पूंजीपति नहीं फंसते । बेल्लारी के रेड्डी बन्धु याद होंगे, वे हजारों लाखों टन लौह अयस्क निकाल कर माटी के मोल बाहर भेजते रहे। इन दिनों दुनिया में कुछ देश ज्यादा ही चतुर हो गए हैं । वे अपनी जमीन के नीचे का तेल, लोहा, कोयला नहीं निकालते । उसे भविष्य के लिये जमा रहने देते हैं। वे हमारे जैसे देशों की टटपूंजिया सरकारोँ की बांहे मरोड़ते हैं । उनसे निजीकरण करवाते हैं । फिर किसी अडानी अम्बानी की पार्टनरशिप में या सत्ता-घरानों से पायी 100% एफडीआई के मार्फत खुद उनका मालिक बन जाते हैं और सारे बांस बरेली के लिए लदवा के ले जाते हैं ।
इस प्रकार लाखों साल पृथ्वी ने अपने गर्भ में पालकर तबके जंगलों को पका कर जो कोयला बनाया है - उसके जरिये ऊर्जा की जो अद्भुत क्षमता हमें सौंपी है, चवन्नी के लालच में कुछ चिन्दीचोर उससे इस देश को वंचित कर देंगे ।
एक और अपूरणीय नुक्सान प्रकृति और पर्यावरण को होगा । कोल इंडिया जिन भूमिगत खदानों को खोदती है सामान्यतः उन्हें बाद में भरकर जाती है, ताकि जमीन धँसे नहीं । ओपनकास्ट में जो हजारों एकड़ जमीन उधेड़ती है और लाखों पेड़ और हरियाली उजाड़ती है, उतना ही वृक्षारोपण करके, नीम-आम न सही सुबबूल ही उगाकर उनकी सींवन करके जाती है, उसकी क्षतिपूर्ति भी करती है । इसमें काफी पैसा खर्च होता है । नर्मदा सहित देश भर की नदियों की रेत को लूट-समेट कर उन्हें निर्वस्त्र और अस्थिपंजर बना देने वाले पेड़ लगायेंगे ? जंगल उगाएंगे ? इतनी गलतफहमी में मत रहिये, निजी पूँजी का काम रेगिस्तान बनाना है, उसने अपने इतिहास में कभी हरियाली नहीं उगाई ।
यह संयोग नही है कि सारी बहुमूल्य खनिजसम्पदा जंगलों के बीच है और उनमे रहने वाले आदिवासी उसके स्वाभाविक मालिक और कस्टोडियन हैं । इस सम्पदा ने मानवसमाज के सबसे ईमानदार और साहसी हिस्से को अपना सुरक्षा-प्रभारी बनाया है । सार्वजनिक क्षेत्र की कोल इंडिया में थोड़ी बहुत लाजशरम बाकी थी । इसलिये जब जब, जहां जहां खदानें खुली तब तब वहां वहां उनका पुनर्वास हुआ । ढंग का नहीं हुआ, बेढंगा ही हुआ, मगर हुआ । सीएसआर (कॉर्पोरेट सोशल रेस्पोंसिबिलिटी) जिसे पहले कम्युनिटी डेवलपमेंट कहते थे - का कुछ पैसा आदिवासी और परम्परागत वनवासियों के लिए खर्च हुआ । थोड़ी बहुत सहूलियतें और रोजगार मिले । मुनाफ़ा अंतिम लक्ष्य का त्रिपुण्ड धारण किये जो देशी विदेशी कम्पनियां अब कोयला खदानों पर अपने कुलगोत्रों के जनेऊ लहरायेंगी वे आदिवासियों की बसाहटें नही उनके कब्रिस्तान बनाएंगी ।
इस तरह दरअसल देश का कोयला मजदूर जब इस कमर्शियल माइनिंग का विरोध कर रहा होता है तब वह देश की ऊर्जा सुरक्षा, पर्यावरण, प्रकृति, जंगल में रहने वाले हिन्दुस्तानियों के लिए लड़ रहा होता है । ऐसा करके वह देश भर की मेहनतकश जनता का सलाम और समर्थन हासिल कर रहा होगा ।
निःसंदेह, कमर्शियल माइनिंग कोयला मजदूरों के वेतन, भत्ते, सुविधा और अधिकार भी हड़पेगी । सेफ्टी पर होने वाला खर्च इन कम्पनियों की बैलेंस शीट में "फालतू" का अपव्यय माना जाता है । यह मद गायब हो जायेगी - नतीजे में हर शिफ्ट में हजारों टन कोयले के साथ कुछ लाशें भी निकलेंगी । पूँजीवाद का एक नियम है कि ; औद्योगिक दुर्घटनाये मुनाफे की समानुपाती होती हैं । एक बार फिर गोरखपुरिया कैम्पों का जमाना लौटेगा । एक बार फिर नीरो दावत उड़ाएगा और रोशनी के लिए इंसानों को जिन्दा जलायेगा ।
खैरियत की बात है कि कोयला मजदूर में आग बाकी है । वह अपनी उलझनों से अपनी दम पर निबट सुलझ लेगा - मगर बाकी जो दांव पर है वह अगर कुछ बाजारोन्मुखी के लालच और विश्वासघात से देश के हाथ से छिन गया तो सदियाँ लग जायेंगी उसकी भरपाई में, बहुत मुमकिन है कि शायद पूरी भरपाई न भी हो ।
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