इतवार की कविता : पहले कितने ख़त आते थे...

इतवार की कविता में आज पढ़िये शायर शकील जमाली की लिखी पुराने दिनों को याद करती हुई यह नज़्म...
दिल रोता है...
पहले कितने ख़त आते थे
आंखें रौशन हो जाती थीं
भरे पुरे घर
रौशनियों से भर जाते थे
पहले कितने ख़त आते थे....
उतने... जितने
ऊँचे वाली मस्जिद की
उस मौलसिरी पर फूल आते थे,
उतने.... जितने
कभी महल सादात के बाहर
ढाल के नीचे वाली
ऊँची इम्ली पर
पत्थर पड़ते थे,
उतने... जितने
एम एम इन्टर कालिज के
नाले के पीछे
गूलर के पेड़ों के ऊपर
शोर मचाते शोख़ परिन्दे
उतने.... जितने
अब्बा के लम्बे कुर्ते की
दोनों चाक की जेबों में
पैसे होते थे
उतने.... जितने
स्टेशन पर उगे
पुराने पीपल के
लहराते पत्ते
उतने.... जितने
माँ की बोई राबेलों में
डलिया भर भर
फूल आते थे
हाय न अब वो ख़त
न ख़तों के लाने वाले....
हाय न वो दरवाज़े
आंगन, ड्योढी, सहन पुराने वाले,
सब ग़ायब हैं.....
मौलसिरी का पेड़
वो इम्ली
अपने घर का नीम,
जमीला फूफी वाले घर का
वो मीठे अमरूदों वाला पेड़.....
किजिया चाची के आंगन की
काने बेरों वाली बेरी
अम्मा मिनिया का मैदान
जहाँ पर हमने
अपना अपना बचपन काटा
कन्चे खेले
धूम मचाई
झगड़े बांधे
जंगें जीतीं....
मुँह की खाई,
सब ग़ायब हैं
माँ ग़ायब है
अब्बा गुम हैं
मुझ से बड़े दो भाई कम हैं
सददी आपा...
मन्नो बाजी....
एक बड़ी माँ जैसी भाभी...
सब ग़ायब हैं
जितना ढूँढूं
जितना खोजूं
जितना सोचूँ.....
दुख होता है
दिल रोता है...
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