मोदी जी, क्या ऐसे दोगुनी होगी किसानों की आय?

2016 में, उत्तर प्रदेश के बरेली में एक किसान रैली को संबोधित करते हुए, प्रधानमंत्री मोदी ने घोषणा की थी कि वे 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करना चाहते हैं। इससे पहले, वे अन्य राज्यों में किसानों की कई रैलियों को संबोधित करने गए थे, और वे इन रैलियों के माध्यम से लगातार सूखे की चपेट आए किसानों के बीच बढ़ते असंतोष, भूमि अधिग्रहण कानून पारित करने का कुत्सित प्रयास और उससे पनपे किसानों के विरोध की एक लहर को ठंडा करने के लिए आश्वासन देने का प्रयास में कर रहे थे। तो, यह घोषणा उनका एक ब्रह्मास्त्र होना चाहिए था, एक ऐसा मंत्र जिसे किसानों को हमेशा के लिए आश्वस्त कर देना चाहिए था।
उसके बाद, मोदी की मशीनरी जैसे अपनी हद ही भूल गई। किसानों की आय को दिगुना करने के लिए एक समिति का गठन किया गया और उसे घोषणा को अमली जामा पहनाने के रास्ते खोजने के लिए कहा गया। नीति आयोग ने भी मार्च 2017 में जल्दी से रिपोर्ट तैयार कर दी। इस समिति ने अंततः सितंबर 2018 में अपनी 14 खंडों की रिपोर्ट पूरी की, हालांकि कहा यह गया कि इसकी अंतरिम सिफारिश पर पहले से काम शुरू हो चुका था। और, पीएम भी भाषणों में लगातार अपनी इस दृष्टि का उल्लेख करते रहे हैं।
तो, अब चल क्या रहा है, क्या आय दोगुनी हो गई है? क्या ऐसा हो रहा है? लगभग नौ करोड़ किसानों को प्रति वर्ष 6,000 रुपये का प्रत्यक्ष लाभ देने के अलावा, ओर क्या किया गया है?
उपेक्षित वर्ग
इस सब में जाने से पहले, हम उन 14 करोड़ कृषि मजदूरों को भी इस चर्चा का भागी बना लेते हैं जिनका यहाँ होना निहायत जरूरी है क्योंकि ये वे लोग हैं जो कृषि अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। उनके बिना, कृषि जगत का पत्ता भी नहीं हिलता है। हाल ही में, क्या आपने किसानों के उस विलाप सुना या नोटिस किया जब उन्हे रबी की फसल की कटाई के लिए लॉकडाउन की वजह से खेत मजदूर नहीं मिले थे? अक्सर यह तर्क दिया जा सकता है कि यदि किसानों की आय बढ़ जाती है, तो इन भूमिहीन मजदूरों की मजदूरी भी बढ़ जाएगी। लेकिन इसके सच नहीं होने के अलावा, उनके वेतन और काम करने की स्थिति में सुधार करना क्या महत्वपूर्ण कदम नहीं होगा? आखिरकार, वे गरीबों में सबसे गरीब हैं, इसका बड़ा अनुपात दलितों या आदिवासी तबकों से आता है, जिनमें कम साक्षरता दर, कम आय, और घनघोर गरीबी पाई जाती है।
बात तो अजीब लगती है, लेकिन कृषि मजदूर मोदी के भविष्य के किसी भी दृष्टिकोण से बाहर है। खेतिहर मजदूरों के प्रति इस तरह की उदासीनता है कि देश भर के श्रम ब्यूरो द्वारा एकत्र की गई मासिक मजदूरी की दरों को इस वर्ष में प्रकाशित नहीं किया गया है। लेकिन जहां तक कि उपलब्ध डेटा (जोकि आरबीआई के डेटाबेस से तैयार है) का सवाल है, एक गंभीर और डरावनी तस्वीर दिखाता है: यानि पिछले तीन वर्षों में, दैनिक मजदूरी केवल 33 रुपये बढ़ी है! [नीचे दिया चार्ट देखें]
याद रखें कि भूमिहीन मजदूर केवल मौसम के अनुसार काम करता है। अन्यथा, उन्हें रोजगार कहीं और ढूँढना होता है, और वे इससे भी अधिक शोषण वाला काम करते हैं, जैसे कि निर्माण स्थल इत्यादि। इसलिए, इन औसत दरों पर अर्जित की गई आमदनी को 12 महीने की अवधि में फैलाना होगा। हालांकि कृषि मजदूरों की इस भयावह दुर्दशा की बदसूरत वास्तविकता मोदी के सपने का हिस्सा नहीं रही है, लेकिन इसे ध्यान में रखने की जरूरत है क्योंकि हम हमेशा वास्तविक खेती करने वालों पर ध्यान केन्द्रित करते हैं।
किसानों को अपनी गेहूं फसल के लिए क्या मिलता है?
आइए हम रबी की प्रमुख (सर्दियों) फसल, गेहूं को देखते हैं। पिछले रबी सीजन में, किसानों ने लगभग 107 मिलियन टन गेहूं का उत्पादन किया था जो कि अब तक का सबसे बड़ा रिकॉर्ड है। यह देश के पूरे अनाज उत्पादन का लगभग 39 प्रतिशत बैठता है। नीचे दिए गए चार्ट में, आप गेहूं के उत्पादन की कुल लागत (सी2), घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) और अनुमानित सी+50 प्रतिशत के बीच की तुलना को देख सकते हैं, जो किसानों की एक लंबी मांग रही है और एम॰एस॰स्वामनाथन के नेतृत्व में 2004 में बने राष्ट्रीय किसान आयोग की मुख्य सिफारिश का हिस्सा भी रही है। इसका डेटा कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) की रबी मूल्य नीति रिपोर्ट से लिया गया है।
मोदी सरकार झूठा दावा कर रही है कि वह उत्पादन की कुल लागत से 50 प्रतिशत अधिक दे रही है। वे कुल लागत को एक अलग तरीके से यानि हाथ की सफाई से तय करती हैं जिसमें वे भूमि के किराए इत्यादि को छोड़ देते हैं। वास्तव में, मोदी के काल में, गेहूं का न्यूनतम मूल्य सी2+50 प्रतिशत के पहले बेंचमार्क से भी नीचे रहा है। उदाहरण के लिए, 2020-21 के रबी सीजन में, गेहूं की एमएसपी 1,925 रुपये प्रति क्विंटल आंकी गई है, जबकि सी2+50 प्रतिशत की लागत 2,138 रुपये प्रति क्विंटल बैठती है।
संक्षेप में कहा जाए तो, गेहूं की प्रमुख फसल की एमएसपी आज भी उत्पादन की वास्तविक कुल लागत जमा 50 प्रतिशत लागत से कम है। यहाँ यह भी याद रखें, कि इस एक फसल को तैयार होने में पाँच महीने लगते हैं। इसलिए किसान मुश्किल से पांच महीने के बाद अपनी लागत को पूरी कर पा रहा है और उसके खुद के लिए बचता भी बहुत कम है। अन्य रबी फसलों जैसे जौ, मसूर, चना और सरसों की हालत ओर भी बदतर है जहां खरीद ही बहुत कम है और कीमतें भी सी2 लागत से बहुत कम हैं।
किसानों को अपनी फसल चावल/धान के बदले में क्या मिलता है?
ऐसी ही कुछ स्थिति भारत की सबसे बड़ी फसल चावल की भी है। पिछले खरीफ (मानसून) फसल के मौसम में देश में लगभग 118 मिलियन टन चावल का उत्पादन हुआ था, जो अपने आप में एक रिकॉर्ड था। लागत और मूल्य की तुलना (सीएसीपी) खरीफ मूल्य नीति रिपोर्ट से ली गई है) नीचे दिए गए चार्ट को देखें:
इस मामले में, स्थिति और भी भयंकर है। सी2+ 50 प्रतिशत की लागत और घोषित समर्थन मूल्य के बीच अंतर बहुत बड़ा है, जो दर्शाता है कि किसानों को उनके उत्पादन पर लगी कुल लागत का लाभ का बहुत कम मिला है। उदाहरण के लिए, 2020-21 में खरीफ के बाज़ार के सीजन में, समर्थन मूल्य 1,868 रुपये प्रति क्विंटल था जबकि सी2+ 50 प्रतिशत का स्तर 2,501 रुपये प्रति क्विंटल होना चाहिए था। इसमें लगभग 34 प्रतिशत का बड़ा अंतर है। यह किसानों के लिए बहुत बड़े नुकसान का सौदा है।
अन्य खरीफ फसलों जैसे ज्वार, बाजरा, अरहर (अरहर), मूंगफली, सोयाबीन जैसी तिलहनों की फसलों की भी ऐसी ही दशा है या इससे भी खराब है।
इसलिए यह दशा, पीएम मोदी के उस दावे के खिलाफ जाती है जिसमें वे अपनी कुशल सरकार के माध्यम से किसानों की आय को दोगुना करने के अथक प्रयास की लफ़्फ़ाजी करते है, किसानों की आय बढ़ाने का जो एकमात्र महत्वपूर्ण तरीका था या नुस्खा था उसे अपनाया ही नहीं गया है। वास्तव में, एक ढोंग रचा गया कि कुल लागत पर 50 प्रतिशत मुनाफा दिया जा रहा है जबकि ऐसा नहीं है। तो, यह केवल मोदी सरकार की असफलता नहीं है– बल्कि यह असफलता के साथ-साथ उसे छिपाने के लिए बड़े-बड़े झूठ बोल रही है।
आगे अधिक विनाश आ रहा है
इस घोर उपेक्षा के अलावा, मोदी सरकार ने हाल ही में ऐसे अध्यादेश पारित किए हैं, जो भारत में खेती की नाजुक अर्थव्यवस्था को ध्वस्त कर देंगे, इसके तहत बड़ी कंपनियों (विदेशी खिलाड़ियों सहित) को उत्पादन से लेकर अन्य गतिविधियों (अनुबंध) तक पूरी गतिविधियों में हस्तक्षेप जिसमें व्यापार (एपीएमसी), भंडारण और मूल्य निर्धारण (ईसीए को खारिज करने) करने की अनुमति दी जाएगी। इन दिग्गजों के पास मोटा पैसा हैं और वे किसानों को, विशेष रूप से कमजोर, छोटे और सीमांत किसानों को, जो कंपनियां चाहेगी उसका उत्पादन करने और बेचने के लिए कहेंगी जिसे व मना नहीं कर पाएंगे, और फिर फसल का का भंडारण कर कीमतों को तय करेंगे। इन तथाकथित सुधारों को "किसानों की स्वतंत्रता" के रूप में परिभाषित किया गया है, जबकि वास्तव में ये उनके लिए बेड़ियाँ और आर्थिक बर्बादी के रास्ते हैं। मोदी सरकार का असली एजेंडा यही था- और किसानों की आय को दोगुनी करने की सारी बातें महज लफ़्फ़ाज़ी थीं।
यह तो समय ही बताएगा कि असहाय किसान इसके बारे में क्या करेंगे। कुछ संकेत तो 9 अगस्त को तब मिले जब उन्होने व्यापक विरोध किया था, जब हजारों किसानों और खेतिहर मजदूरों ने औद्योगिक मजदूरों और कर्मचारियों के साथ मिलकर मोदी सरकार की इन बर्बाद करने वाली नीतियों के विरोध में हाथ मिलाया और व्यापक विरोध किया था।
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