इतवार की कविता : "मैंने रिहर्सल की है ख़ुद को दुनियादार बनाने की..."

इतवार की कविता में आज पढ़िये इमरान बदायूंनी की बेहद नए ज़ावियों पर लिखी यह ग़ज़ल...
वक़्त पे आँखें नम करने की, वक़्त पे हँसने गाने की
मैंने रिहर्सल की है ख़ुद को दुनियादार बनाने की
होटल, कैफ़े, माॅल, सिनेमा, रौशन सड़कें, हँसते लोग
शहरों-शहरों देख रहा हूँ मैं सूरत वीराने की
भागते लम्हें, ट्रेन का सिग्नल, गहरी ख़ामोशी, बहते अश्क
यूँ लगता है जैसे हो ये बात किसी अफ़साने की
टीवी देखी, छत पर टहला, इनको-उनको फ़ोन किया
कितनी मुश्किल साअत थी वो तुझ बिन रात बिताने की
दुनिया एक बड़ा सा परदा, उस परदे पर मेरा अक्स
आवाज़ों की भीड़ में जैसे आह किसी दीवाने की
देर से लौटा, सिगरट भी पी, लंच भी अक्सर छोड़ दिया
कौन था, तेरे बाद कि जिसने कोशिश की समझाने की
गर्मी का दिन, तेज़ दुपहरी, बरसों बाद किसी का फ़ोन
अनजाने में खोल दे कोई, ज्यूँ कुण्डी तहख़ाने की
सब कामों में टालमटोली, रात को लेकिन सोना रोज़
नींद कोई गाड़ी हो जैसे शहर तिरे ले जाने की
कुर्सी, मेज़, कलम, बिस्तर सब, ऐसे कैलेंडर तकते हैं
जैसे इन्हें तारीख़ पता हो तेरे लौट के आने की
मैं जंगल की आग पे अपनी थीसिस पढ़ने वाला था
और परिंदे ज़िद कर बैठे मुझसे नज़्म सुनाने की
इमरान बदायूँनी
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