बनारसियों को ख़ारिज कर कौन सा बनारस बना रहे हो बाबू!

बनारस को जानने वाले कहते हैं कि बनारस तो सनातन हैं। लेकिन क्या सनातन भी कभी बदलता है। हां बदलता हैं। क्योंकि समय की मार उसे भी सहनी पड़ती। लेकिन समय की मार में एक दया का भाव होता है। वह संभलने का मौका देती है। यह सबकुछ होता होगा जब संस्कृतियों और सभ्यताओं को स्वाभाविक तौर पर चलने दिया जाता होगा। अब यह संभव नहीं। अब सरकारें विकास के नाम पर हमला करती हैं। एक ऐसा हमला जिसमें सब छिल जाता है, ध्वस्त हो जाता है। और सबसे पहले जमीन और जमीन पर बनी सभ्यताएं ध्वस्त होती हैं। बनारस के साथ भी ऐसा ही हो रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शुक्रवार को काशी विश्वनाथ मंदिर कॉरिडोर की आधारशिला रखी। काशी विश्वनाथ कॉरिडोर प्रोजेक्ट तकरीबन 600 करोड़ रुपये की लागत से बन रहा है। जिसके अंतर्गत तकरीबन 40 हजार वर्ग मीटर का इलाका आएगा। इस प्रोजेक्ट के अंतर्गत तकरीबन 300 मकानों को खाली करा लिया गया है। प्रोजेक्ट के मुताबिक विश्वनाथ मंदिर दरबार से मणिकर्णिका घाट तक बन रहे इस कॉरिडोर में चार रास्तें होंगे। दो रास्ते मंदिर से बाहर आएंगे और एक रास्ता गोदौलिया से दूसरा चौक की तरफ जाएगा।
इस दौरान लोगों को संबोधित करते हुए पीएम ने पिछली सरकारों पर निशाना भी साधा। उन्होंने कहा, “भोले बाबा की पहले किसी ने कोई चिंता नहीं की। वह वर्षों से दीवारों में जकड़े हुए थे। उन्होंने कहा, 'महात्मा गांधी भी बाबा की इस हालत पर चिंतित थे।2014 के चुनाव के दौरान मैंने कहा था कि मैं यहां आया नहीं हूं, मुझे यहां बुलाया गया है। शायद मुझे ऐसे ही कामों के लिए बुलाया गया था।” उन्होंने कहा कि शायद भोले बाबा ने तय किया था कि यह काम मुझे करना है। यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शिलान्यास के समय भाषण का हिस्सा है। इस अंश पर बात करते हुए स्थानीय निवासी सुरेंद्र प्रताप सिंह का कहना है कि मैं मानता हूँ कि यह आस्था का विषय है और मिथकीय बात है लेकिन मोदी जी हम जनता को कितना बेवकूफ समझते हैं कि हमसे यहाँ कह रहे हैं कि बाबा भोलेनाथ यहां की दीवारों में जकड़े हुए थे और मोदी जी इन्हें मुक्त करेंगे। यह आस्था के नाम पर तो मज़ाक है ही, साथ ही साथ हम आम जनता के साथ भी मज़ाक है कि नेता हमें इतना मूर्ख समझते हैं।
बनारस देखने-समझने के तीन संदर्भ
जब इस विषय पर बनारस निवासी वरिष्ठ पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव से बात की और उनसे पूछा कि क्या एक आम आदमी इस बात से अधिक जुड़ाव महसूस करेगा कि बहुत ही संकरी गलियां थी, जिसकी वजह से आने-जाने में परेशानी होती थी, गलियां तोड़कर बनी चौड़ी सड़कों से आसानी होगी? तो उनका कहना था कि यह सवाल सही है लेकिन हमें यह देखना होगा कि हम किन संदर्भों में इसे देख रहे हैं। इसे देखने के तीन महत्वपूर्ण संदर्भबिन्दु हो सकते हैं- एक तीर्थ यात्री, दूसरा विदेशी पर्यटक और तीसरा स्थानीय निवासी। एक स्थानीय निवासी के तौर पर यहां पर अभी भी कोई परेशानी नहीं होती है। क्योंकि बनारस के स्थानीय निवासियों के बहुत सारी जरूरतों का हिस्सा गोदौलिया का यह इलाका नहीं बनता है। और गोदौलिया के इस इलाके में रहने वाले वाले लोगों की रोजाना की जरूरतें का बहुत सारा हिस्सा गोदौलिया से पूरा हो जाता है। और अभी तक गोदौलिया के लोगों को इससे कोई परेशानी नहीं हुई है, वे पूरे अनुकूलन के साथ यहाँ पर रहते आ रहे हैं। इसलिए स्थानीय निवासी के लिहाज से इस सवाल की कोई अहमियत नहीं है कि गलियों को हटा देने से उन्हें आसानी होगी। बल्कि उल्टा उन्हें परेशानी ही हो रही है कि उनकी पीढ़ियों पुराने निवास को उनसे छीना जा रहा है।
अब इसे तीर्थात्रियों और विदेशी सैलानियों के संदर्भ से देखते हैं। हो सकता है कि तीर्थ यात्रियों के संदर्भ से थोड़ी सी सहूलियत मिले। लेकिन इससे बड़ा फलक यह है कि बनारस की तीर्थाटन की तरह से अहमियत इन्हीं गलियों से पूरी होती है। इन गलियों के बिना यहां के तीर्थाटन का महत्व अधूरा रहता है। इन गलियों के घरों में कई तरह के देवी देवताओं की मौजूदगी है। इसलिए इन घरों का मुख्य दरवाजा छोटा होता है ताकि लोग इसमें स्वाभाविक तौर पर झुककर प्रवेश करें। अब इन दरवाजों को तोड़ा जा रहा है। इन घरों को उजाड़ा जा रहा है और उस स्थानीय बाजार और रोजगार को भी बर्बाद किया जा रहा है जो एक तीर्थस्थल की मौजूदगी की वजह से स्थानीय लोगों को मिलता है। अब अगर इन जगहों को तोड़ा जाता है, तो तीर्थयात्रियों की साथ यहाँ का स्थानीय रोजगार भी बर्बाद होता है।
अब बात करते हैं विदेशी पर्यटकों की। अभिषेक कहते है कि विदेशी पर्यटकों के लिए यहां की गलियां ही सबसे पसंदीदा जगह हैं। इन गलियों में आने वाली धूप छांव से ही उनका जी भरता है। बनारस के घाट और बनारस की गलियां मिलकर ही उनकी बनारस यात्रा को सार्थक बनाती है। इस तरह से विदेशी पर्यटकों की लिहाज से भी विश्वनाथ कॉरिडोर घाटे का सौदा ही लग रहा है।
यहाँ से विस्थापित होने वाले लोगों के पुनर्वास के मुद्दे पर अभिषेक बताते हैं कि यहाँ की स्थिति थोड़ी अलग है। साल 1983 के काशी योजना समिति का यह नियम है कि यहाँ की जमीनों की खरीद फरोख्त नहीं की जायेगी। यह जमीनें काशी विशवनाथ मंदिर ट्रस्ट को सौंपी जा सकती है। और इसी से ली जा सकती है। यहां पर हुआ यह कि पुनर्वास की कोई व्यवस्था नहीं की गयी है। जिनका नुकसान हो रहा है, सीधे उनके खाते में पैसा भेजा जाता है। और जिनको नुकसान हुआ है वे बहुत दूर जाकर जमीनें लेकर अपना आवास बना रहे हैं। जिसका मतलब यह है कि उनको पुनर्वास की तौर पर वह राशि नहीं मिल रही है, जिससे वह बनारस के वैसे इलाके में जमीन खरीद सके, जिसका महत्व गोदौलिया के बराबर है। यहां पर यह भी समझने वाली बात है कि यहाँ से विस्थापित बहुत सारे लोगों में से अधिकांश दलित जाति से सम्बंधित है। और अधिकांश निम्न वर्ग से आते हैं, जो आसानी से मोल-भाव के जाल में फंस जाते हैं। इससे आगे जाकर जब अभिषेक श्रीवास्तव से इस विषय पर बात की गयी कि क्या एनवायरनमेंट इम्पैक्ट असेसमेंट जैसे प्रक्रियाओं से यहाँ के भूमि अधिग्रहण गुजरे तो इस पर उनका कहना था कि इस पूरे प्रोजेक्ट का खाका क्या है और किन प्रशासनिक प्रक्रियाओं से इन्हें गुजरना पड़ा, इसकी कोई मुकम्मल रिपोर्ट नहीं है। मुझे नहीं लगता कि इस प्रोजेक्ट के लिए सरकार किसी एनवायरनमेंट अससेमेंट प्रक्रिया से गुजरी है।
इस पर स्थानीय निवासी और सोनी टेलीविजन में लेखन से जुड़े पीयूष रंजन परमार का कहना है कि पिछले चार सालों में बनारस को जिस तरह से बदला गया है वह बनारस के मिजाज से बिल्कुल उल्टा है। यह सारे बदलाव वहां के मूल निवासी को ध्यान में रखकर नहीं बल्कि बनारस से कोसों दूर रहने वाले लोगों को ध्यान में रखकर किए गए हैं। इसमें सबसे अधिक कुछ मरा है तो वह है बनारस की पहचान, बनारस का सौंदर्य करण। हर शहर का अपना एस्थेटिक्स होता है। वही उसकी पहचान होती है। बनारस की गलियां बनारस की अहम पहचान है। लोग कहते हैं बनारस की गलियों की वजह से जाम की बहुत अधिक परेशानी होती है। इसलिए यह कोरिडोर ठीक भी है। लेकिन मेरा मानना है एक केवल विश्वनाथ मंदिर के तीर्थ यात्रियों की सुविधाओं के लिए गलियों में मौजूद जिन भवनों को तोड़ा जा रहा है। वहां के भवनों को तोड़ने से तकरीबन 30-35 मंदिर और भी टूट रहे हैं। अगर ये मंदिर टूट सकते हैं तो विश्वनाथ मंदिर को वहां से क्यों नहीं हटाया जा सकता है। जब बनारस हिन्दू विश्व विद्यालय में काशी विश्वनाथ का मंदिर बनाया जा सकता है। तो किसी और जगह क्यों नहीं। मंदिर हटाने से गलियां भी बच जाएंगी और बनारस का बनारसी पन भी। उन्होंने कहा, “एक उदाहरण के तौर पर बताऊं तो भिस्लवा चौक से काशी विश्वनाथ की टंकियों पर ऐसी पेंटिंग की गई है,जिसका बनारस से कोई लेना देना नहीं है। ऐसा लगता है कि जिसने इन पेंटिंगों का का सुझाव दिया है उसे बनारस की तनिक जानकारी नहीं। इस सरकार के काल में जिस तरह से शाहरों को बदला जा रहा है वह शहर की आत्मा मारने जैसा काम है।”
बनारस की जड़ों से संचित होने वाले हिन्दी के वरिष्ठ पत्रकार अनिल यादव इसी विषय पर मीडिया विजिल पर लिखते हैं कि बहुत लिखा देखा कि बनारस गलियों का शहर है लेकिन किसी भाषा में यह नहीं पाया कि बनारस गलियों में बसने वाले लोगों का शहर है। इस फर्क में ही वह जालिम बात छिपी थी कि एक दिन बिना बनारसियों के भी इस शहर का अस्तित्व बना रहेगा। या इसे कभी फिर से ऐसे बनाया जाएगा कि खुद को बनारसी समझने वाले ही बनारस के लायक नहीं रह जाएंगे… खैर सैकड़ों घरों में बसने वाले हजारों लोगों को उजाड़ कर, मलबे पर विश्वनाथ धाम का उद्घाटन प्रधानमंत्री मोदी के करकमलों द्वारा किया जा चुका है। ये लोग समझते थे कि उनके घर बाबा के त्रिशूल पर टिके हुए हैं लेकिन अब सरकार ने बुलडोजर चलाकर वहां बाबाधाम बना दिया है ताकि गंगाजी की ठंडी हवा बेरोकटोक डॉलर भंजाने, चौक से गोदौलिया आते टूरिस्ट को लगे। मौका तो ऐसा है कि शहर को प्रेमयोगिनी नाटक में उस परदेशी के गीत- ‘देखी तुमरी कासी लोगों, देखी तुमरी कासी’ के पोस्टरों से पाट देना चाहिए जो भारतेंदु हरिश्चंद्र ने1874 में लिखा था, लेकिन ऐसा कुछ नहीं होगा, मेरे शहर की आत्मा पैसा हो चुकी है।”
इस तरह से बनारस भले ही एक बड़े परिवर्तन से गुजर रहा है लेकिन असली हकीकत यही है कि विकास के इस प्रयास से हर बनारसी आहत है। इस सब उथल-पुथल के बीच फिर भी अंत में यही उम्मीद कि बना रहे बनारस ।
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