त्रासदी: “जोशीमठ तो अब नहीं बचेगा”

“जोशीमठ तो अब नहीं बचेगा” रुंधे गले से निकले पर्वतारोही सुभाष तराण के ये अल्फ़ाज़ मेरे ज़ेहन में लगातार कौंध रहे थे। रह-रह कर वो बेहद गहरी घाटियाँ उनसे होकर गुज़रती इठलाती, बलखाती कभी हरे तो कभी नीले रंग में तब्दील होती नदी लगातार मेरी नज़रों से गुज़रने लगी।
साल 2018 में मैं औली गई थी। औली से पहले मेरा पड़ाव जोशीमठ ही था। ऋषिकेश से औली/ जोशीमठ का रास्ता मेरे देखे उन चुनिंदा रास्तों में से एक है जिन्हें मैं सबसे ख़ूबसूरत रास्तों के तौर पर याद रखती हूं। ये वो रास्ता था जिसे रुक-रुक कर लगातार निहारने से कोई ख़ुद को नहीं रोक सकता।
जोशीमठ में पहाड़ का वो हिस्सा जिसे मैंने कभी बेहद क़रीब से देखा था क्या पता कुछ हफ़्तों, दिनों या फिर मेरी स्टोरी पब्लिश होने से पहले ही कब आंखों से ओझल हो जाए कोई नहीं जानता।
जोशीमठ पहाड़
पहाड़ों से मेरी पहचान ज़्यादा नहीं महज़ एक दशक पुरानी ही है। मैं हिमालय को ज़्यादा तो नहीं पर कई ऊँचाई पर देख चुकी हूं। कश्मीर, हिमाचल और सबसे ज़्यादा बार उत्तराखंड की यात्रा कर चुकी हूं। जब से जोशीमठ के बारे में सुना है मन किसी अनहोनी की दहशत से दहल रहा है। सोच रही हूं पहाड़ों से मेरी मोहब्बत तो महज़ एक दशक पुरानी है पर मेरा दिल वहां के लोगों के बारे में सोच-सोचकर डूबा जा रहा है तो वहां रहने वाले लोगों के दिल पर क्या गुज़र रही होगी? मैं भले ही उनके दर्द को बांट नहीं सकती लेकिन उनके दर्द, बेबसी को ज़रूर महसूस कर सकती हूं।
जोशीमठ की तस्वीर
एक बात जिस पर गौर करना चाहिए वो ये कि जोशीमठ इकलौती जगह नहीं है जहां ख़तरे के बादल मंडरा रहे हैं पूरा हिमालयन रीज़न बहुत ही नाज़ुक दौर में है। ऐसे में पहाड़ों में बसने वाले और उसकी चिंता में तमाम उम्र को खपा देने वालों का इस वक़्त क्या कहना है मैंने ये जानने की कोशिश की। और इस कोशिश में हिमालय की जानकारी की चलती-फिरती खान मेरे हाथ लग गई। ये थे अशोक पाण्डे, हाल ही में अशोक पांडे की एक किताब आई है 'जितनी मिट्टी उतना सोना' इस एक किताब को लिखने के लिए अशोक पाण्डे ने अपनी ज़िन्दगी का एक बहुत बड़ा हिस्सा पहाड़ों, घाटियों, दर्रों, कच्चे रास्तों को पार करते उनमें बसी ज़िन्दगी को समझने में गुज़ार दी, वे एक लेखक हैं। जोशीमठ के बहाने इस पूरे रीज़न पर मेरी उनसे लंबी बातचीत हुई।
इससे पहले कि मैं उनसे सवाल पूछना शुरू करती उन्होंने अपने एक एक्सपीरियंस को बयां कर पूरी समस्या को समेट दिया। उन्होंने बताया कि किस तरह वो एक बार दूर पहाड़ों में आटा तलाश रहे थे तो उन्हें आटा तो नहीं मिला लेकिन मैगी मिल गई। तो क्या ये पूरी समस्या मुनाफ़ा कमाने का सौदा है?
लेखक अशोक पांडेय
सवालों का सिलसिला शुरू हुआ तो बात बहुत लंबी खिंच गई।
मैंने उनसे पूछा- एक उत्तराखंड वासी होने के नाते जोशीमठ पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है?
अशोक पाण्डे- दुर्भाग्यपूर्ण हमारे यहां विकास का पर्यायवाची सड़क को माना गया है। सड़क बनानी भी ज़रूरी है, अंग्रेजों के समय से सड़कें बन रही हैं। लेकिन जब अंग्रेज सड़कें बनाते थे तो पूरे इलाक़े को अच्छी तरह से स्टडी किया करते थे, लेकिन अब तो बिना रिसर्च स्टडी के तोड़-फोड़ शुरू हो जाती है। उससे हुआ ये कि पहाड़ों को बहुत ही असंवेदनशील तरीक़े से ट्रीट किया गया। और ये सिर्फ़ जोशीमठ या केदारनाथ नहीं बल्कि पूरी हिमालयन बेल्ट की बात है। तो ऐसा तो होना ही था।( जो जोशीमठ में हो रहा है)
बहुत असहाय सा महसूस होता है एक खीज होती है ये अनियमित तरीक़े से विकास देखकर।
सवाल- ये कैसा विकास है जहां सड़क जब तक घर पहुंचेगी पता चलेगा घर पाताल में समा गया ( धंस गया)
इस बात का जवाब देते हुए उन्होंने पी-साईंनाथ की किताब 'Everybody Loves a Good Drought' का रेफरेंस देते हुए बात को कुछ यूं समझाया।
अशोक पाण्डे- इस किताब में बताया गया है कि जहां-जहां सरकारी मशीनरी गई, फिर वो चाहे समंदर किनारे हो या फिर दूर-दराज का इलाक़ा, जहां भी सरकारी विकास गया वो जगह रहने लायक नहीं बची।
मेरा उनसे अगला सवाल था— अगर ये इलाक़ा धंसता है तो इसके साथ ही एक बेहद संपन्न इतिहास, क़िस्से, कहानी भी दफ़न हो जाने वाले हैं।
अशोक पाण्डे- जोशीमठ का अच्छा ख़ासा पुराना इतिहास है, शंकराचार्य ने इस पूरे इलाक़े का धार्मिक भूगोल बदला, पूरे देश में जो चार दिशाओं में मठ स्थापित किए थे उसमें उत्तर का मठ यहां है, जिसे उन्होंने ज्योतिर्मठ कहा। कुछ इतिहासकार उनसे पहले का भी इतिहास यहां पाते हैं, कुछ कहते हैं कि ये महाभारत के समय का है, जब इसका नाम कार्तिकेयपुर था। उसके बाद हमारे कुमाऊं के जो सबसे बड़े राजा हुए कत्यूरी राजवंश के ये उनकी पहली राजधानी थी। चार-पांच सौ साल तक उन्होंने राज किया। तो इतिहास की नज़र से, धार्मिक नज़र से इसका बहुत महत्व रहा है। ये सीमांत इलाक़ा है, तिब्बत से व्यापार की पहली मंडी यही (जोशीमठ) हुआ करती थी (डेढ़ सौ बरस पहले तक बाद में वो शिफ्ट हो गई) तो ऐसी जगह जिसका इतना बड़ा हिस्टोरिकल, रिलिजस, ट्रेड की नज़र से भी महत्व रहा है ज़ाहिर है वो सब ग़ायब हो जाएगा। इतनी कहानियां हैं, प्रहलाद की, नरसिंह राजा देवता की, यहां से फूलों की घाटी का रास्ता जाता है, ये सब दफ़न हो जाएगा। तो ये नए समाज की विडंबना है कि हमें पुराने सामान को संभाल कर रखना नहीं आता।
जोशीमठ की दरारें
सवाल- क्या वो वक़्त भी आएगा जब कच्चे रास्तों पर लौट कर जाना होगा?
( इस सवाल का जवाब उन्होंने अल्मोड़ा के नौलों का उदाहरण देते हुए समझाया। )
अशोक पाण्डे- ये तो होना ही है, इसको मैं अल्मोड़ा के नौलों की मिसाल के तौर पर समझाता हूं। अल्मोड़ा आज़ादी मिलने तक कुमाऊं का सबसे बड़ा क़स्बा (Town) रहा क्योंकि वहां कुमाऊं रेजीमेंट रहा करती थी। वहां 20 हज़ार सैनिक रहते थे और क़रीब 10 हज़ार के क़रीब आबादी थी। अल्मोड़ा में नदी दूर थी तो वहां अंडरग्राउंड पानी होता था पहाड़ों में पानी को जमा करने की जगह होती है जिसे नौला कहा जाता है। नौला के पास मंदिर बना दिया जाता था ताक़ि पानी को लोग गंदा ना करें। और उसी से साल भर पानी मिलता रहता था। अल्मोड़ा में 1947 तक 120 के आस-पास नौले थे (ये रिकॉड में है) बहुत पानी था । लेकिन आज़ादी के बाद सरकार ने लोगों से कहा कि आप नौलों से पानी क्यों लाओगे हम तुम्हें नल में पानी देंगे, तो पाइपलाइन बिछा दी गई। पानी नदी से आना था लेकिन किसी 'समझदार' अफसर ने कहा कि सारा पानी तो नौलों में चला जा रहा है इनको पाट देते हैं। तो नौलों को बकायदा सीमेंट से पाट दिया गया। आज अल्मोड़ा में 6 या 7 नौले ही बचे हुए हैं, अल्मोड़ा पानी की कमी के लिए बदनाम है, ऐन गर्मियों में सारी पाइपलाइन सूख जाती हैं और अब आबादी हो गई है दो लाख से ऊपर। अब यही जो 6-7 नौले बचे हैं पूरी आबादी की प्यास बुझाते हैं। तो रही बात इन सड़कों कि जब ये सड़कें ऐसे ही तबाह हो जाएंगी तो वापस कच्चे रास्तों की ओर लौटना होगा।
अशोक पाण्डे के पास ना ख़त्म होने वाली जानकारी का ज़ख़ीरा है जिसका कुछ हिस्सा भी लोगों तक पहुंचे और सबसे बड़ी बात उन्हें समझ आ जाए तो हिमालयन रीज़न में हालात बेहतर हो सकते हैं।
अशोक पाण्डे की ही तरह समझ रहने वाले सीनियर जर्नलिस्ट और पर्यावरण के मुद्दों पर लिखने-पढ़ने वाले हृदयेश जोशी से भी हमारी बातचीत हुई।
उनसे पहला सवाल था— पल-पल बिगड़ते हालात पर आपका क्या कहना है?
हृदयेश जोशी - सरकार ने भी इस इलाक़े को आपदाग्रस्त इलाक़ा मान लिया है। सरकार भी मान रही है कि ये इलाक़ा अब रहने लायक नहीं है। यहां करीब 25 हज़ार लोगों की आबादी है। अगर यहां रहने वाले लोगों के घर ख़ाली करवाए जा रहे हैं तो ये कहां जाएंगे, यहां लोगों की नौकरी है, बिजनेस है, बच्चों के स्कूल हैं वो कहां जाएंगे? ये समस्या पर्यावरण से ज़्यादा मानवीय है।
सवाल- 7 फरवरी 2021 में चमोली में जो हादसा हुआ उसके बाद भी हम क्यों नहीं जागे ( इस हादसे के बाद ही जोशीमठ के इलाकों में दरारें चौड़ी होनी शुरू हो गई थी)
हृदयेश जोशी - जिस वक़्त ये हादसा हुआ उस वक़्त यहां दो प्रोजेक्ट चल रहे थे एक प्रोजेक्ट तो तभी ख़त्म हो गया और दूसरा प्रोजेक्ट जो चल रहा था वो NTPC का था ( इसी का अब विरोध हो रहा है ) बाद में रिपोर्ट्स भी आईं लेकिन सरकार अगर जागना नहीं चाहती तो क्या करें?
सवाल- जोशीमठ का मुद्दा चर्चा में आ गया, सरकार अब हाथ पैर मार रही है लेकिन इन सबसे क्या सबक मिला, क्या इस बड़ी ग़लती से हमने कुछ सीखा?
हृदयेश जोशी- सरकार को समझना होगा कि दिल्ली में जिस तरह का विकास हो रहा है वैसा विकास हिमालय में नहीं हो सकता, क्योंकि हिमालय बहुत संवेदनशील (Fragile ) है, इसका ख़ास ख़्याल रखना होगा। और ये तभी होगा जब स्थाई पर्यटन ( Sustainable tourism) को बढ़ावा दिया जाएगा। और सरकार जो योजना बनाती है उनका ठीक से पालन हो।
मैं लगातार उत्तराखंड के लोगों से बात कर रही थी और ऐसे ही एक और उत्तराखंड निवासी और दिल्ली में नौकरी कर रहे सुभाष तराण से भी मेरी लंबी बातचीत हुई। सुभाष एक पर्वतारोही भी हैं।
पहाड़ों में सुभाष तराण
सुभाष तराण का कहना है कि ''विकास तो सभी को चाहिए लेकिन विकास का मॉडल क्या है ये बहुत महत्व रखता है''
दिल्ली में रहने के बावजूद उन्हें जब भी मौक़ा मिलता है वो पहाड़ों का रुख़ कर लेते हैं।
सुभाष कहते हैं हमारी मजबूरी थी कि पहाड़ों में रोज़गार नहीं था और हमारी खेती भी बहुत कम थी इसलिए मजबूरी में मुख्यधारा में बहते हुए दिल्ली पहुंच गए लेकिन पहाड़ छूट नहीं सकता।
सुभाष तराण से पहला सवाल था- जोशीमठ की मौजूदा स्थिति के बारे में आपका क्या कहना है?
सुभाष तराण- अब बहुत देर हो चुकी है। अब यही हो सकता है कि जितनी जल्दी हो सके लोगों को विस्थापित कर लिया जाए तो बेहतर होगा। पहाड़ों में जहां भी निर्माण कार्य चल रहा है उसे तुरंत बंद कर देना चाहिए। माणा, मलारी, नीति वैली के लिए वैकल्पिक रास्ते बनाए जाएं। जोशीमठ में ही पहाड़ नहीं धंस रहे और भी जगह हैं वो तो जोशीमठ बड़ी जगह है इसलिए चर्चा में आ गया।
सवाल- एक उत्तराखंडवासी और साथ ही एक पर्वतारोही होने के नाते आप हिमालय में घट रहे इन हालात को कैसे देखते हैं?
सुभाष तराण- बचपन में मेरे दादाजी ने एक सीख बताई थी कि- आग, हवा और पानी से हमेशा दूरी बनाए रखना चाहिए। इनका इस्तेमाल सावधानी के साथ उतना ही करना चाहिए जितना जीने के लिए ज़रूरी हो। 2013 में केदारनाथ त्रासदी के बाद भी सरकार नहीं जागी। योजनाओं को नाक का सवाल बनाकर पर्यावरण की नज़रअंदाज़ी जारी रखी गई।
(एक गहरी सांस लेते हुए) उन्होंने अपनी बातचीत जारी रखी और कहा कि पहाड़ों को चट्टानों और मिट्टी का ढेर समझने वालों को अपनी समझ में सुधार करना होगा और ये जानना होगा कि ये पहाड़ किसी का घर है, जहां वे हज़ारों साल से रह रहे हैं। वे चाहे तो मैदानों में जाकर भी रह सकते हैं लेकिन इससे उनकी पहचान ख़त्म हो जाएगी। हिमालय लगातार बनते-बदलते रहते हैं। अगर किसी ने लगातार 10 बार गोमुख को देखा हो तो वो साफ़ बता सकता है कि बदलाव आया है। पहाड़ों में मानवीय गतिविधियां होगी, सड़क ( जिसपर चार-चार गाड़ी साथ में गुज़र जाएं) सुरंग बनेगी तो यही हाल होगा, विकास होना चाहिए लेकिन विकास का ये मॉडल ग़लत है, इस विकास के पीछे कोई सोच नहीं है, इस विकास के पीछे सोच होती तो ये हाल नहीं होता। हिमालय है तो भारतीय उपमहाद्वीप है। सोचिए ज़रा अगर किसी दिन हिमालय पर बर्फ़ गिरना बंद हो जाए तो भारतीय उपमहाद्वीप का भूगोल क्या हो जाएगा? ना सिर्फ़ उत्तर का मैदान, पंजाब बल्कि उधर पाकिस्तान, बांग्लादेश का क्या होगा? क्या हो अगर नदी, झरनों का पानी ना मिले तो?
चूंकि सुभाष तराण एक लेखक और कवि भी हैं तो उन्होंने पहाड़ों की मौजूदा स्थिति पर एक कविता कुछ यूं बयां की-
पीछे पहाड़, आगे पहाड़
टूटी नींद से जागे पहाड़
प्रदूषण से पलते पहाड़,
दावानल से जलते पहाड़
रंगत विहीन होते पहाड़
सड़कें पीठ पे ढोते पहाड़
विस्फोटों से कांपते पहाड़
विकास के रस्ते हांपते पहाड़
ख़ैरातों में बंटते पहाड़,
लोभ के लिए कटते पहाड़
नंगे पहाड़, भूखे पहाड़
निरीह, निष्ठुर, रूखे पहाड़
छलनी सीना होते पहाड़
पानी-पत्थर रोते पहाड़
मारे-मारे फिरते पहाड़
टूट-टूट कर गिरते पहाड़
मायूसियों ने घेरे पहाड़
मेरे पहाड़, तेरे पहाड़
चरवाहों के डेरे पहाड़
अपनों से मुंह फेरे पहाड़
जोशीमठ में आ रही दरारें पहाड़ की वो पीड़ा है जिसे वो बहुत लंबे समय से बार-बार बता रहा था लेकिन लगता है हमने सुनने में बहुत देर कर दी। सुभाष तराण की कविता की आख़िरी लाइन पढ़कर ऐसा महसूस हो रहा है कि कहीं वो दिन आ तो नहीं गया जब पहाड़ों ने मुंह फेरना शुरू कर दिया?
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