निर्णायक मोड़: खनिज ईंधन से सस्ती हुई अक्षय ऊर्जा

नवीकरणीय या अक्षय ऊर्जा (Renewable energy) और खनिज ईंधनों (Mineral fuel’s) के बीच मोड़ का बिंदु आ जाने पर एक नयी रिपोर्ट जारी करते हुए, संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव, एंटोनियो गुटारेस ने इसकी चर्चा की कि कैसे हम अक्षय ऊर्जा के युग में प्रवेश कर रहे हैं और खनिज ईंधनों के अंत की शुरुआत हो गयी है।
संयुक्त राष्ट्र संघ की इस रिपोर्ट के अनुसार,‘‘2024 में बिजली उत्पादन क्षमताओं में सारे इजाफों में 92.5 फीसद हिस्सा और बिजली उत्पादन में कुल वृद्धि में 74 फीसद हिस्सा’’, अक्षय ऊर्जा का था। जहां सारी दुनिया बढ़ते पैमाने पर अक्षय ऊर्जा की ओर मुड़ रही है, अमेरिका इकलौता ‘विरोधी स्वर’ बनकर सामने आता है, जिसका ट्रंप प्रशासन पर्यावरण में गिरावट से ही इंकार करता है और अब भी खनिज ईंधन का पक्ष ले रहा है।
अक्षय ऊर्जा के युग की शुरूआत
बेशक, वे इतिहास का मार्च रोक तो नहीं सकते हैं। लेकिन, इस तथ्य को देखते हुए कि इस मामले में समय पहले ही निकल चुका है, अमेरिका जो कि ग्रीन हाउस गैसों का दूसरा सबसे बड़ा उत्सर्जनकर्ता है और दुनिया के सबसे अमीर देशों में से एक है, गर्म दुनिया की ओर हमारे संक्रमण को बदतर तो बना ही सकता है।
साथ में दिया गया चार्ट दिखाता है कि अक्षय ऊर्जा की लागतों में गिरावट के साथ, अक्षय ऊर्जा की स्थापित क्षमताएं उल्लेखनीय तरीके से बढ़ी हैं और ऐसा खासतौर पर सोलर फोटोवोल्टिक संयंत्रों के मामले में हुआ है, जो सोलर पैनलों का उपयोग करते हैं।
कन्सेंट्रेटेड सोलर प्लांट्स (सीएसपी) के मामले में, जो लेंसों/ दर्पणों का उपयोग कर, सूर्य की किरणों को केंद्रित करने के जरिए, पानी को गर्म कर के भाप में तब्दील करते हैं और इस भाप का इस्तेमाल स्टीम टर्बाइन से संचालित परंपरागत बिजली जेनरेटरों में किया जाता है, स्थिति अलग है। इस दशक के आखिर तक इन बाद वाले सोलर संयंत्रों से बिजली की लेवलाइज्ड लागत, खनिज ईंधन संयंत्रों के स्तर के करीब हो जाने की उम्मीद की जाती है। बहरहाल, भंडारण क्षमता वाले फोटोवोल्टिक संयंत्रों की कीमतों में भारी गिरावट हुई है और इसने सीएसपी संयंत्रों को आज कहीं ज्यादा महंगा विकल्प बना दिया है। शायद, रेगिस्तानी इलाकों में ये संंयंत्र इस नियम के लिए अपवाद साबित हों।
सीएसपी संयंत्रों का फायदा यह है कि उनके टर्बाइन अचलता मुहैया कराते हैं, जिससे ग्रिड को स्थिर बनाए रखने में मदद मिलती है। यह ऐसे ग्रिडों के लिए महत्वपूर्ण होता है, जिनके साथ अक्षय ऊर्जा संयंत्रों की बड़ी संख्या जुड़ी होती है। जैसा कि हमने पिछले ही दिनों, चंद महीने पहले हुए स्पेन में ग्रिड के बैठने के प्रकरण में देखा था, इस ग्रिड के बैठने का एक कारण ऐसे टर्बाइनों का अभाव था, जो पर्याप्त रोटेशनल इनर्शिया मुहैया करा पाते और इस तरह फ्रीक्वेंसी में उतार-चढ़ाव को संभालने की ग्रिड की क्षमता बढ़ा पाते।
महत्वपूर्ण बदलाव
आइए, अपने ऊर्जा संक्रमण के सकारात्मक पहलू पर नजर डाली जाए। यह पहली बार है कि सौर तथा वायु ऊर्जा, कोयला, प्राकृतिक गैस या तेल से अब सस्ती हो चुकी है और नये बिजली उत्पादन के लिए यही सबसे तेजी से काम करने वाला विकल्प है। पिछले 3 से 5 वर्ष के दौरान खनिज ईंधन से अक्षय ऊर्जा की ओर इस संक्रमण में आए बदलावों को इस प्रकार देखा जा सकता है:
* 2010-2022 के बीच सौर तथा पवन ऊर्जा, खनिज ईंधनों--कोयला तथा गैस—से, सबसे ज्यादा प्रतिस्पर्द्धी हुई है।
* 2023 तक, उपयोगिता पैमाने के सोलर फोटो वोल्टिक (पीवी) संयंत्र और तटीय पवन ऊर्जा की उत्पादन लागतें, खनिज ईंधनों के मुकाबले कम हो चुकी थीं।
* आज, नये पवन तथा सोलर पीवी संयंत्रों के करीब 75 फीसद से, खनिज ईंधन के चलते वाले पहले से वर्तमान संयंत्रों के मुकाबले सस्ती बिजली मिल रही है।
इस तरह, अक्षय ऊर्जा में जिस संक्रमण की बातें लंबे समय से की जा रही थीं, आ पहुंचा है! लेकिन, सवाल यह है कि क्या इसके लिए राजनीतिक इच्छा भी मौजूद है कि वह किया जाए जो न सिर्फ पर्यावरण की दृष्टि से आवश्यक है बल्कि हम सब के लिए आर्थिक दृष्टि से भी एक बेहतर विकल्प है? या फिर पुरानी खनिज ईंधन लॉबी, खासतौर पर अमेरिका में यह लॉबी, एक कम कार्बन वाले भविष्य की ओर मानवता के संक्रमण को विफल कर देगी?
आइए, पहले ही उस बड़ी तस्वीर को देखें, जो पिछले कुछ वर्षों में उभर कर सामने आयी है। सौर तथा पवन ऊर्जा, अब ऊर्जा के सबसे से तेजी से बढ़ते स्रोत हो गए हैं और खनिज ईंधनों के मुकाबले कम लागतों पर बिजली मुहैया करा रहे हैं। बढ़ते पैमाने पर यह ऊर्जा, आर्थिक दृष्टि से कोयले और तेल के मुकाबले सस्ती होती जा रही है। बैटरियों की कीमतें घटने के साथ, ग्रिडों के स्थिर करने के लिए ग्रिड स्तर की बैटरियां लगाना तथा अल्पावधि जल-भंडारण व्यवस्थाएं जोड़ना भी, आर्थिक रूप से आकर्षक हो गया है।
दूसरे शब्दों में अगर अपने पर्यावरण संबंधी लक्ष्यों को हम भूल भी जाएं तब भी, अक्षय ऊर्जा आज प्रतिस्पर्द्धी हो चुकी है। यही वह असली मोड़ है, जिसकी बात हम 1980 के दशक से करते आ रहे थे, जब पहली बार फोटोवोल्टिक उपकरण मंच पर आए थे। वह दिन आखिरकार आ पहुंचा है।
पर्यावरण की चिंता
यह हमें इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेटिक चेंज या आइपीसीसी पर ले आता है। आइपीसीसी के दो लक्ष्य थे। एक लक्ष्य तो यह था कि सभी देशों को तेजी से पर्यावरणीय कार्रवाई के लिए राजी किया जाए, जिससे वैश्विक ताप में सत्यानाशी बढ़ोतरी को रोका जा सके। दूसरा लक्ष्य था, ऊर्जा संक्रमण पर खर्च करने के लिए, खासतौर पर कम आय वाले देशों को खनिज ईंधनों के उपयोग से उत्तरोत्तर दूर लाने के लिए, जरूरी संसाधन मुहैया कराना। इस तरह की पर्यावरणगत कार्रवाई को संचालित करने वाली समझ यह थी कि अमीर देश, जो अपने अतीत के कार्बन उत्सर्जनों के चलते मौजूदा कार्बन गुंजाइश का बड़ा हिस्सा पहले ही घेरे बैठे हैं, इस संक्रमण के लिए साधन मुहैया कराने में गरीब देशों की मदद करेंगे।
ये दुहरे लक्ष्य किस हद तक पूरे हुए हैं? अमीर देश शुरुआत से ही पर्यावरणगत लक्ष्यों की बात करने के लिए तो तैयार रहे हैं, लेकिन अपने ऊर्जा संक्रमण के लिए गरीब देशों को फंड मुहैया कराने की बात करने के लिए तैयार नहीं रहे हैं। जहां यूरोपीय यूनियन और यूनाइटेड किंगडम, जो अमेरिका के बाद सबसे ज्यादा कार्बन गुंजाइश को घेरे हुए हैं, अपने अक्षय ऊर्जा संक्रमण में निवेश करने में लगे रहे हैं, वहीं अमेरिका ने न सिर्फ दो-दो बार वैश्विक पर्यावरणीय समझौतों से नाता तोड़ा है, उसने अपनी खनिज ईंधन कंपनियों को प्रोत्साहन भी दिए हैं। राष्ट्रपति जार्ज बुश ने वैश्विक पर्यावरण परिवर्तन समझौतों से यही कहते हुए नाता तोड़ा था कि अमेरिकी जीवन शैलियों पर, वैश्विक समझौता वार्ताएं मंजूर नहीं हैं। राष्ट्रपति ट्रंप उससे भी आगे बढ़ गए हैं। वह सिर्फ पर्यावरण परिवर्तन को नकारते ही नहीं हैं बल्कि खनिज ईंधन कंपनियों को प्रोत्साहन भी दे रहे हैं कि और ज्यादा कार्बन ईंधन जलाएं। और वह साइबेरिया तक में तेल तथा प्राकृतिक गैस के कुओं के लिए खुदाई करना चाहते हैं।
कार्बन क्रेडिट्स और कार्बन कैप्चर का फ़र्ज़ीवाड़ा
मैंने पहले भी इस संबंध में लिखा था कि आइपीसीसी द्वारा ‘‘कार्बन क्रेडिट्स’’ को अपनी चर्चा का महत्वपूर्ण केंद्र बनाए जाने में क्या समस्याएं हैं? कार्बन क्रेडिट्स, सरल भाषा में कहें तो ‘खून के बदले पैसा’ या रक्त-धन का मामला है। अमीर देश, गरीब देशों को कार्बन सोख्ते बनाने या बनाए रखने के लिए पैसा देंगे, ताकि ये अमीर देश कार्बनयुक्त ईंधनों--कोयला, तेल तथा प्राकृतिक गैस--का अपना अनाप-शनाप इस्तेमाल जारी रख सकें। जैसा कि हमने पहले ही विस्तार से बताया था, यह ज्यादातर हिसाब-किताब का फर्जीवाड़ा ही था, जिसमें कुछ खास कंपनियां फर्जी कार्बन क्रेडिट जारी करती थीं, जो अमीर देशों को अपने कार्बन उत्सर्जन जारी रखने का मौका देता था। इस कार्बन रक्त-धन में से कुछ, विकासशील दुनिया में उनके कुछ साझीदारों तक भी पहुंचता होगा, लेकिन इस फर्जीवाड़े की ज्यादातर कमाई उन देशों में ही बनी रहती थी, जो इस तरह के कार्बन क्रेडिट जारी करते थे।
अब जबकि अक्षय ऊर्जा की लागत घटकर कोयले से नीचे आ गयी है, उन कंपनियों का क्या होगा जो कार्बन कैप्चर का तमाशा कर रही थीं। ये कंपनियां कोई क्षतिपूरक वानिकी जैसे प्राकृतिक कार्बन सोख्तों के जरिए कार्बन कैप्चर की नहीं इस अर्थ में कार्बन कैप्चर की बात कर रही थीं कि खनिज ईंधनों को जलाने के बाद, धुएं की गैसों से कार्बन डाई आक्साइड को अलग किया जाए? यह एक और गाजर थी जो हमारे सामने लटकायी जा रही थी ताकि अमीर देश तेल, गैस, कोयला आदि को जलाते रह सकें।
आज एक ही जगह में कार्बन कैप्चर की कोई आर्थिक प्रासंगिकता है और वह है कार्बन डाई आक्साइड का अलग किया जाना और इसका उपयोग, ‘‘संवद्रित तेल निष्कर्षण परियोजना में किया जाना, जहां इसे आइल फील्ड्स में इंजैक्ट किया जाता है, जिससे उस अतिरिक्त तेल को निकाला जा सके, जो अन्यथा भूमि के भीतर ही फंसा रह गया होता।’’(चार्ल्स हर्वी एंड कुर्ट हाउस, न्यूयार्क टाइम्स, 16 अगस्त 2022) इसीलिए, इन दोनों लेखकों ने कार्बन कैप्चर को ‘बिग आइल्स लार्ज ग्रेंड स्कैम’ का नाम दिया है!
ग्रे हाइड्रोजन का मामला
खनिज ईंधनों का एक और उपयोग, उसके उत्पादन में है जिसे ग्रे हाइड्रोजन कहा जाता है। इसमें इस्पात, अमोनिया, पेट्रोलियम शोधन, मेथनॉल तथा प्लास्टिक के उत्पादन में उपयोग के लिए हाइड्रोजन का प्रयोग किया जाता है। बहरहाल, यह हाइड्रोजन वातावरण में कार्बन डाई आक्साइड के रूप में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन करता है, जिसके लिए उसे ग्रे हाइड्रोजन कहा जाता है। ग्रे हाइड्रोजन का उपयोग एक रसायन के रूप में किया जाता है, न कि एक ईंधन के रूप में। इस मामले में भी असली खिलाड़ी तेल कंपनियां ही हैं--एक्सोन, मोबिल, ब्रिटिश पैट्रालियम (बीपी) और शैल।
हैरानी की बात नहीं है कि इन तेल कंपनियों की कारोबारी गतिविधियों का विश्लेषण (ली एम ट्रेंचर, जी एंड असुका जे, प्लोस वन, 16 फरवरी 2022) दिखाता है, ‘‘खनिज ईंधनों पर बिजनस मॉडल की निर्भरता बनी हुई है...इस तरह हम यह नतीजा निकालते हैं कि स्वच्छ ऊर्जा बिजनस मॉडलों की ओर संक्रमण नहीं हो रहा है, क्योंकि निवेशों का आकार और कदम, इसके विमर्श से मेल नहीं खाते हैं।’’ दूसरे शब्दों में तेल कंपनियां, कार्बन कैप्चर, ग्रे हाइड्रोजन आदि के चोले में अपना, पहले की तरह ही काम चला रही हैं और इसके साथ ही बहुत सारी बातें बनायी जा रही हैं। प्रसंगवश कह दें कि ये चार कंपनियां ही 1965 से लगाकर तमाम वैश्विक ताप वृद्धि के 10 फीसद के लिए जिम्मेदार हैं।
पर्यावरणीय के अलावा अब आर्थिक तकाज़ा भी
बेशक, अक्षय ऊर्जा की कीमतें, खनिज ईंधन ऊर्जा से नीचे चले जाने का अर्थ यह है कि आज अक्षय ऊर्जा, खनिज ईंधन का एक स्वच्छतर तथा बेहतर विकल्प भर नहीं है बल्कि उसका सस्ता विकल्प भी है। चाहे बिजली उत्पादन हो या परिवहन, बिजली उत्पादन में तेजी से सौर तथा पवन ऊर्जा, खनिज ईंधनों की जगह ले रहे हैं और परिवहन के क्षेत्र में बिजली से चलने वाले वाहन। यूरोपीय यूनियन तक, जो अन्यथा ट्रंप तथा अमरीका के वश में रहता है, खनिज ईंधनों से दूर हट रहा है। चीन और भारत, दोनों ही बड़े पैमाने पर अक्षय ऊर्जा में निवेश कर रहे हैं और भारत ने तो अपनी लक्ष्य अवधि से काफी पहले ही, स्थापित बिजली उत्पादन क्षमता का 50 फीसद अक्षय ऊर्जा का करने लक्ष्य पूरा कर लिया है। ज्यादातर विकासशील देशों के लिए, अक्षय ऊर्जा का रास्ता सिर्फ कार्बन की दृष्टि से ज्यादा अनुकूल रास्ता ही नहीं है बल्कि कहीं सस्ता विकल्प भी है।
एक अमेरिका ही है जो ऐसे खेल बिगाड़ने वाले का काम कर रहा है, जो हालांकि मैन्युफैक्चरिंग में अब प्रतिस्पर्द्धी नहीं रह गया है, फिर भी यह मानता है कि वह दूसरों से ‘‘भाड़े’’ या लगान की उगाही कर सकता है। वह समझता है कि वह सबसे बड़ी सैन्य शक्ति है और वैश्विक मुद्रा, डालर पर भी उसी का नियंत्रण है, इसलिए वह व्यापार के अपने ही नियम बनाएगा और ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन का उसे अधिकार है। वह एक आवारा राष्ट्र बन गया है, जो खुली लूट के सहारे चलता है, जिसे वह व्यापार का नाम देता है और उसे जब भी चाहे और जितना भी चाहे, डालर के रूप में नोट छापने का अधिकार है। यह जी-7 की तथाकथित ‘‘नियम-आधारित विश्व व्यवस्था’’ की जगह पर आयी नये जी-1 की ‘‘ट्रंप-आधारित विश्व व्यवस्था’’ है। क्या हम इसे हक्सले की रचना ब्रेव न्यू वर्ल्ड से आरवेल के एनीमल फार्म में संक्रमण नहीं कह सकते हैं?
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।