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ख़तरे की घंटी: साम्राज्यवादी देशों का बढ़ता सैन्यीकरण

वर्तमान परिस्थिति संयोग ऐसा है जहां साम्राज्यवाद, जिसे नव-उदारवादी पूंजीवाद के संकट ने एक कोने में धकेल दिया है और यह ऐसा संकट है जिसे खुद नव-उदारवादी पूंजीवाद के दायरे में हल किया ही नहीं जा सकता है, तीसरी दुनिया को अपने आधीन बनाए रखने के लिए, पहले से ज्यादा बड़े पैमाने पर सैन्य ताक़त का इस्तेमाल करने का इरादा रखता है।
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ट्रंप और वेनेज़ुएला के बीच तनाव बढ़ता जा रहा है। फ़ोटो साभार: ABC News

 

इसी साल जून में हुए नाटो के शिखर सम्मेलन की घोषणा में, सभी नाटो देशों ने इसके लिए सहमति दी है कि 2035 तक अपने सैन्य खर्च को बढ़ाकर, अपने सकल घरेलू उत्पाद के 5 फीसद के बराबर कर देंगे।

2024 में यह अनुपात 3.5 फीसद था और यूरोपीय यूनियन में तो यह अनुपात 1.9 फीसद ही था। इसका अर्थ यह है कि सैन्य खर्चों में खासी भारी बढ़ोतरी की जाएगी और यूरोपीय यूनियन में तो खासतौर पर भारी बढ़ोतरी की जाएगी। 

इसी प्रकार जापान भी, जिसने विश्व युद्ध के बाद एक शांतिवादी नीति के लिए वचनबद्धता स्वीकार की थी और अपने सैन्य खर्च पर जीडीपी के 1 फीसद की अधिकतम सीमा लागू की थी, वह भी समय के साथ इस अनुपात को बढ़ाता रहा है। इस समय वह जीडीपी का 1.8 फीसद सैन्य मदों में खर्च करता है। 

लेकिन, उसकी नयी प्रधानमंत्री सनेई ताकाइची ने इस सिलसिले में अपने इरादे जाहिर कर दिए हैं। प्रधानमंत्री पद संभालने के बाद, अपने पहले ही भाषण में उन्होंने एलान किया है कि इस राजस्व वर्ष के आखिर तक, यानी 2026 के मार्च तक इस अनुपात को बढ़ाकर 2 फीसद कर दिया जाएगा। 

इस तरह, हम सभी साम्राज्यवादी देशों में सैन्यीकरण की गति में उल्लेखनीय तेजी देख रहे हैं और यह कुल मिलाकर एक नया घटनाविकास है।

रूसी ख़तरे का झूठा हौवा

सैन्यीकरण में इस तेजी को उचित ठहराने के लिए, हर प्रकार के खतरों की और खासतौर पर रूसी खतरे की दुहाई दी जा रही है। साम्राज्यवादी प्रचार मशीन रूसी विस्तारवाद का भूत खड़ा करने जुटी हुई है, यूक्रेन पर चढ़ाई को कथित रूप से इसका पहला कदम बताया जा रहा है। लेकिन, सचाई यह है कि नाटो ही है जिसने मिखाइल गोर्बाचोव को क्लिंटन प्रशासन ने जो आश्वासन दिया था उसके खिलाफ जाकर, अपनी सदस्यता का विस्तार किया है, जिससे रूसी सीमाओं तक के देशों को अपने साथ शामिल किया जा सके और इस प्रकार रूस को करीब-करीब घेरा जा सके। 

तथ्य यह है कि रूस ने इस विस्तार को भी बर्दाश्त कर लिया था और इस पर अपना विरोध तभी जताया था जब नाटो ने यूक्रेन को भी अपने साथ शामिल करना चाहा था। तथ्य यह भी है कि यूक्रेन और रूस के बीच मिन्स्क समझौते से रूस की किसी सैन्य कार्रवाई की नौबत ही नहीं आयी होती, लेकिन पश्चिमी हस्तक्षेप ने उसे विफल करा दिया। ब्रिटिश प्रधानमंत्री, बोरिस जान्सन खास इसके लिए उड़कर किएव पहुंचे थे, ताकि यूक्रेन को उस समझौते से मुकरने के लिए तैयार कर सकें। 

ये सभी तथ्य स्पष्ट रूप से दिखाते हैं कि इस मामले में विस्तारवादी सत्ता कौन सी है। रूस का हौवा तो सिर्फ इसलिए खड़ा किया जा रहा है ताकि पश्चिमी साम्राज्यवादी सैन्यीकरण में तेजी को उचित ठहराया जा सके।

यूरोप का समर्पण

बहरहाल, यूरोप में इस प्रचार की तीव्रता इतनी ज्यादा है कि कोई भी अगर इस सचाई की ओर इशारा करता है, उसे रूसी एजेंट और पुतिन का पैरोकार करार दे दिया जाता है। जर्मनी की वामपंथी नेता सहरा वेगनेख्त, जिन्होंने डाइ लिंके से अलग होकर अपनी अलग पार्टी बनायी थी, जर्मन मीडिया में सिर्फ इसलिए हमलों का निशाना बनायी गयीं कि उन्होंने तथाकथित रूसी खतरे के खोखलेपन को इंगित किया था और यूरोपीय सुरक्षा सुनिश्चित करने के एक साधन के रूप में, रूस के साथ सहयोग की वकालत की थी।

वास्तव में रूस के प्रति यूरोप का रुख काफी अजीबो-गरीब लगता है। पश्चिमी ताकतों ने रूस पर जो इकतरफा पाबंदियां थोपी हैं, उनका नतीजा यह हुआ है कि यूरोप को मजबूर होकर रूस से ऊर्जा आयात की जगह पर, जिन पर वह अब तक निर्भर रहा था, कहीं महंगे अमरीकी ऊर्जा आयात को गले लगाना पड़ रहा है। इसका नतीजा यह हुआ है कि जर्मनी में और अन्यत्र भी जीवन-यापन का खर्चा बढ़ गया है और इसलिए मेहनतकश वर्ग को मुश्किलें बढ़ गयी हैं। और इसने उत्पादन लागतें भी बढ़ा दी हैं, जिससे जर्मन माल गैर-प्रतिस्पर्द्धी हो रहे हैं। यह जर्मनी में निवेशों को हतोत्साहित कर रहा है और वहां ‘‘निरुद्योगीकरण’’ की प्रक्रिया का कारण बन रहा है। 

बेशक, अमरीका द्वारा यूरोप पर दबाव डाला जा रहा है जिससे वह अपनी ऊर्जा के लिए वहां एक बाजार सुनिश्चित कर सके। लेकिन, इकतरफा पाबंदियों के मामले में यूरोप ने जिस तरह से अमरीका के सामने पूरी तरह से समर्पण कर दिया है और इसके लिए वह खुद अपने हितों की भी बलि देने के लिए तैयार है, वह बेशक काफी हैरान करने वाला है।

इस परिघटना का एक स्वत:स्पष्ट कारण तो वर्तमान यूरोपीय नेतृत्व की प्रकृति में ही निहित है। इस नेतृत्व का ज्यादातर हिस्सा कारोबार से और खासतौर पर अमरीकी कारोबार से घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ है। मिसाल के तौर पर जर्मनी के चांसलर फ्रेडरिख मजर, अमरीकी बहुराष्ट्रीय निवेश कंपनी, ब्लाकरॉक की जर्मन सब्सीडियरी के सुपरवाइरी बोर्ड के अध्यक्ष रहे थे। ऐसे हालात में वर्तमान यूरोपीय नेतृत्व से शायद ही इसकी उम्मीद की जा सकती है कि वे अमरीकी हितों के खिलाफ जाकर, ‘‘यूरोपीय हितों’’ का झंडा बुलंद करेंगे, जैसा कि पहले के यूरोपीय नेता कर सकते थे, जैसे कि चाल्र्स डि गॉल तथा विली ब्रांट आदि।

निज़ाम बदलने के साम्राज्यवादी मंसूबे

बहरहाल, यह तथ्य अपने आप में मामूली तो नहीं है फिर भी, यूरोप के एक प्रकार आर्थिक आत्महत्या करने का पर्याप्त कारण मुहैया नहीं कराता है। आसानी से इसे समझा जा सकता है कि वर्तमान यूरोपीय नेता इसमें विश्वास करते हैं और इसके लिए मंसूबे बना रहे हैं कि अगर यूक्रेन के साथ लड़ाई खिंचती रहती है, तो रूस में निजाम बदल कराया जा सकता है। और अगर ऐसा हो गया तो अमरीका के साथ-साथ यूरोप को भी, रूस के विशाल प्राकृतिक संसाधनों तक बेरोक-टोक पहुंच हासिल हो जाएगी। इसके अलावा रूस अब, चीन तथा ईरान समेत, देशों के एक ऐसे ग्रुप का हिस्सा है, जो पश्चिमी साम्राज्यवाद का विरोध करते हैं और उसके वर्चस्व को चुनौती देने की सामर्थ्य रखते हैं। रूस में अगर निजाम बदल करा दिया जाता है, तो इस प्रतिरोध को भी तगड़ा झटका लगेगा।

इतनी ही असाधारण है वेनेजुएला में सैन्य हस्तक्षेप के जरिए निजाम बदल कराने की डोनाल्ड ट्रंप की कोशिश। इसके लिए, वहां के वामपंथी राष्ट्रपति निकोलस मडुरो को, जो ह्यूगो चावेज के उत्तराधिकारी हैं और बोलीवारीय क्रांति के वारिस हैं, एक ‘‘मादक द्रव्य-आतंकवादी’’ और ड्रग कार्टेल के सरगना के तौर पर बदनाम करने के जरिए, जमीन तैयार की जा चुकी है। इस मामले में भी उनकी निगाहें सिर्फ वेनेजुएला के समृद्ध प्राकृतिक संसाधनों पर ही नहीं हैं, जिसमें रेअर अर्थ्स भी शामिल हैं, उनकी निगाहें इस पर भी हैं कि वेनेजुएला एक साम्राज्यवादविरोधी समूह का भी हिस्सा है, जो साम्राज्यवाद के लिए खतरा बन सकता है। इस तरह, वेनेजुएला में निजाम बदल से साम्राज्यवाद को दोहरा फायदा होगा।

बहरहाल, निजाम बदल के डोनाल्ड ट्रंप के मंसूबे, वेनेजुएला से आगे तक जाते लगते हैं। उन्होंने, एक बार फिर रत्तीभर साक्ष्य के बिना ही, कोलंबिया के वामपंथी राष्ट्रपति गुस्ताव पेट्रो को एक ‘‘ड्रग लीडर’’ करार दे दिया है, जो ऐसा लगता है कि वहां भी निजाम बदल कराने की भूमिका है। और इसमें कोई शक नहीं है कि अगर वह इन कोशिशों में कामयाब हो जाते हैं, तो उनके हौसले और बढ़ जाएंगे कि अपना जाल और दूर तक फैलाएं और पूरे लातीनी अमरीका में ही निजाम बदल कराएं, जिसमें क्यूबा भी शामिल हो सकता है।

तीसरी दुनिया पर बढ़ती मार

साम्राज्यवादी देशों का बढ़ता सैन्यीकरण, इन देशों के लिए किसी भी स्रोत से सुरक्षा के लिए किसी बढ़ते खतरे का नतीजा नहीं है। यह नतीजा दुनिया भर में निजाम बदल कराने की उनकी इच्छा का है। ये निजाम बदल उन देशों के खिलाफ कराए जाने हैं, जहां ऐसी सरकारें हैं जो साम्राज्यवाद के वर्चस्व के लिए खतरा पैदा करती हैं। इस खतरे पर अंकुश लगाने के लिए निजाम बदल कराना पिछले कुछ समय में और भी आवश्यक हो गया है क्योंकि साम्राज्यवाद अब ऐसे परिस्थिति संयोग में फंस गया है, जहां अगर तुरंत इससे नहीं निपटा गया तो, यह खतरा बहुत बढ़ जाने वाला है।

इसकी वजह यह है कि नव-उदारवादी पूंजीवाद अब एक बंद गली में पहुंच गया है, जिसकी अभिव्यक्ति विश्व अर्थव्यवस्था में गतिरोध आने में हो रही है। और इस गतिरोध पर, खुद नव-उदारवादी पूंजीवाद के दायरे में काबू नहीं पाया जा सकता है। 2012-21 के दशक में, विश्व अर्थव्यवस्था की दशकीय वृद्धि दर, दूसरे विश्व युद्ध के बाद से सबसे कम रही है। और यह वृद्धि दर तब और भी धीमी पड़ जाएगी, जब एआई का वह बुलबुला बैठ जाएगा, जो इस समय अमरीकी अर्थव्यवस्था की पहचान बना हुआ है। जब ऐसा होगा, इस बुलबुले के बैठने से पैदा होने वाली बेरोजगारी, उस बेरोजगारी को और भी बढ़ा देगी, जो श्रम-विस्थापनकारी एआई के आने से ही पैदा हो रही है।

तीसरी दुनिया पर खासतौर पर बेरोजगारी में बढ़ोतरी की मार पड़ने जा रही है। इसके ऊपर से डोनाल्ड ट्रंप का टैरिफ हमला है, जो खुद ही अमरीका में बेरोजगारी बढऩे की प्रतिक्रिया है। बेरोजगारी में इस बढ़ोतरी पर अमरीका की ‘‘पड़ौसी जाए भाड़ में’’ वाली प्रतिक्रिया के रूप में ट्रंप का टैरिफ हमला, तीसरी दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं के लिए खासतौर पर चोट पहुंचाने वाला साबित होने जा रहा है। विकसित पूंंजीवादी देश तो अमरीका के साथ परस्पर गुंजाइश बनाने वाले सौदे कर लेंगे, लेकिन तीसरी दुनिया को अमरीकी आयात के लिए अपने टैरिफ घटाने पड़ेंगे और ऐसा उन्हें इसके बावजूद करना पड़ रहा होगा कि अब उन्हें अमरीकी बाजार में पहले के मुकाबले बढ़े हुए टैरिफ का सामना करना पड़ रहा होगा।

यह सब तीसरी दुनिया में बदहाली में भारी बढ़ोतरी का संकेतक है और इसलिए नीचे से इसके लिए दबाव बढ़ाने जा रहा है कि वर्तमान साम्राज्यवादी बोलबाले वाली आर्थिक व्यवस्थाओं को छोड़कर, वैकल्पिक आर्थिक व्यवस्थाओं को अपनाया जाए। ब्रिक्स जैसे ग्रुपों की अब तक कोई स्पष्ट साम्राज्यवादविरोधी भूमिका नहीं रही हो सकती है, लेकिन वे ऐसी भूमिका ग्रहण कर सकते हैं, अगर तीसरी दुनिया में बढ़ी हुई तकलीफों के चलते आने वाले दिनों में ऐसी सरकारें आती हैं, जो अपनी जनता की जिंदगियां बेहतर करने के लिए प्रतिबद्ध हों।

इस संदर्भ में साम्राज्यवाद की रणनीति तिहरी है। पहला, हर जगह पर और खासतौर पर तीसरी दुनिया में नव-फासीवादी निजामों में उभार को बढ़ावा देना। दूसरा, ऐसे निजामों का इस्तेमाल कर के ऐसे देशों के वैकल्पिक ग्रुपों के गठन को कमजोर करना या उसमें भीतरघात करना, जो खुद को साम्राज्यवादी प्रभाव के दायरे से बाहर रखते हैं। इस समय ट्रंप प्रशासन द्वारा मोदी सरकार पर जो दबाव डाला जा रहा है, उसका मकसद यही हासिल करना है। 

और तीसरा है, जहां कहीं भी तीसरी दुनिया के देशों को ‘आश्रित राज्य’ के दर्जे में पहुुंचाने के अन्य तरीके कामयाब नहीं हों, निजाम बदल कराने के लिए सैन्य हस्तक्षेप का इस्तेमाल।

संक्षेप में वर्तमान परिस्थिति संयोग ऐसा है जहां साम्राज्यवाद, जिसे नव-उदारवादी पूंजीवाद के संकट ने एक कोने में धकेल दिया है और यह ऐसा संकट है जिसे खुद नव-उदारवादी पूंजीवाद के दायरे में हल किया ही नहीं जा सकता है, तीसरी दुनिया को अपने आधीन बनाए रखने के लिए, पहले से ज्यादा बड़े पैमाने पर सैन्य ताकत का इस्तेमाल करने का इरादा रखता है। हम जो बढ़ता हुआ सैन्यीकरण देख रहे हैं, इसी का प्रतिबिंबन करता है। 

(लेखक दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के आर्थिक अध्ययन एवं योजना केंद्र में प्रोफ़ेसर एमेरिटस हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

 

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