कोरोना और आम आदमी: योजना बनाकर आत्महत्या करना!, आप समझ रहे हैं कि संकट कितना गहरा है

"पापा पहले हमें नींद की गोली खिला देना फिर गला दबा देना" बनारस में एक आर्थिक रूप से तबाह हो चुके व्यवसायी परिवार के 17 साल, 19 साल के बच्चों ने आत्महत्या की योजना बना रहे अपने माँ-बाप से कहा और इस तरह चेतन तुलस्यान का पूरा परिवार हमेशा के लिए मौत की नींद सो गया।
कुछ ऐसी ही कहानी अंग्रेज़ी में सुसाइड नोट लिखकर, लखनऊ के चर्चित CMS स्कूल में पढ़ने वाले तीन मासूम बच्चों तथा पत्नी अनामिका समेत सामूहिक खुदकशी करने वाले बाराबंकी के विवेक शुक्ला के परिवार और लखीमपुर के भानु प्रकाश गुप्ता की भी है।
इस दौर में होने वाली आत्महत्याओं की ऐसी दिल दहला देने वाली खबरें आ रही हैं, जिनको पढ़कर कलेजा मुंह को आ रहा है। कई मामलों में तो पूरा परिवार हफ्तों, महीनों से योजना बनाकर, सुसाइड नोट लिखकर आत्महत्या कर रहा है!
ऑनलाइन पढ़ाई के इस दौर में स्मार्टफोन की व्यवस्था न कर पाने की बेचारगी, आत्मग्लानि और हताशा में भी बच्चों और उनके अभिभावकों की खुदकशी की ख़बरें आयी हैं। यह न्यू डिजिटल इंडिया का नया श्मशान है !
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आपराधिक घटनाओं की बाढ़ आ गयी है, खुदकशी और भुखमरी के साथ साथ अनेक रूपों में आर्थिक संकट की अभिव्यक्ति हो रही है।
छिनैती-अपहरण-डकैती की घटनाएं बड़े पैमाने पर घट रही हैं। बांदा में नाबालिग बच्चियों को काम पाने के लिए यौन शोषित होने के लिए विवश होना पड़ा। घरेलू हिंसा चरम पर है। आबादी का अच्छा खासा हिस्सा अवसाद की चपेट में है, जिसके पीछे आर्थिक तकलीफें और भविष्य को लेकर आशंकाएं प्रमुख कारण हैं। कर्मचारी मजबूरी में अपनी सुरक्षित निधि, EPF आदि से पैसा निकाल रहे हैं, लोग केवल essentials पर खर्च कर रहे हैं, अच्छे स्कूल से बच्चों का नाम कटाकर फीस वाले स्कूल में दाखिला करवा रहे हैं, गरीब परिवार कुपोषण के शिकार हो रहे हैं। सूदखोरी का बाजार गर्म है।
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कोरोना काल में महामारी और आर्थिक तबाही की दुहरी मार ने देश के मेहनतकश तबकों को समाज में उनकी वास्तविक हैसियत बता दी। इन मेहनतकश तबकों में केवल प्रवासी मज़दूर या मैनुअल लेबर नहीं शामिल हैं, वरन सार्वजनिक व निजी संगठित क्षेत्र में कार्यरत मात्र 7% नौकरी पेशा लोगों को छोड़कर बाकी 93% असंगठित क्षेत्र में रोजी-रोटी के लिए निर्भर श्रमिक, जिनमें White कॉलर डिग्री-डिप्लोमा धारी भी हैं, बड़ी संख्या में शामिल हैं। जाहिर है इसमें मध्यवर्ग का बड़ा तबका भी शामिल है, जिसे नोटबन्दी, जीएसटी के बाद अब तीसरी मरणांतक चोट इस दौर में लग रही है, और उसका अच्छा खासा हिस्सा अपनी मौजूदा सामाजिक स्थिति से नीचे के पायदान पर खिसक जाने के लिए अभिशप्त है। अनुमान है कि वह तबका जो पिछले दशकों में गरीबी रेखा से ऊपर उठकर आया था, इस गहराते संकट के चलते पुनः गरीबी रेखा के नीचे चला जायेगा, IMF के अनुसार लगभग 40 करोड़ आबादी गरीबी रेखा के नीचे खिसक जाएगी। ज्ञातव्य है कि गरीबी रेखा से ऊपर आने का अर्थ बस बमुश्किल जीवनयापन में सक्षम होना है।
अर्थशास्त्र का जो बुनियादी सच सामान्य स्थितियों में उदारवादी विभ्रमों के पर्दे में ओझल रहता है, उसे इस अभूतपर्व संकट ने पूरी तरह बेनकाब कर दिया कि श्रमिक वर्ग, चाहे उनके कॉलर का रंग नीला हो या सफेद, आज चाहे उनका पारिश्रमिक जितना भी हो, वे अंततः पूंजीपतियों के लिए सरप्लस मूल्य पैदा करने के औजार मात्र ही हैं, और पूंजी उसी हद तक और तभी तक उनकी परवाह करती है जिस हद तक उसे उनकी जरूरत होती है। इसके इतर वे मर रहे हैं, कि जी रहे हैं, जी रहे हैं तो किन हालात में जी रहे हैं अर्थात उनके जीवन, स्वास्थ्य, आजीविका के प्रति पूंजी तथा उसके मददगार राज्य की न कोई संवेदना है, न कुछ लेना देना है।
इस परिघटना की सबसे क्रूर अभिव्यक्ति प्रवासी मज़दूरों की अभूतपूर्व त्रासदी में हुई, जिसे देखकर पूरी दुनिया दहल उठी- लॉकडाउन में भुखमरी, हजारों किलोमीटर पैदल दुधमुंहे बच्चों, महिलाओं के साथ गांवों की ओर पलायन-दुर्घटनाओ और भूख से मरते, पुलिसिया बर्बरता झेलते, गाँव पहुंचने पर अमानवीय व्यवहार के शिकार!
स्वाभाविक रूप से इन हालात के सबसे बदतरीन शिकार समाज के हाशिये के तबकों के लोग-दलित, आदिवासी, पिछड़े, महिलाएं, पिछड़े इलाकों-UP, बिहार, उड़ीसा आदि के लोग हुए हैं।
बहरहाल, बेकारी और भयानक आर्थिक तबाही की चपेट में तो मध्यवर्ग समेत करीब करीब पूरी श्रमिक आबादी ही आ गयी है। कहा जा रहा है कि 10 करोड़ लोग बेरोजगार हुए हैं, जिसमें 2 करोड़ व्हाइट कालर श्रमिक हैं। सीएमआईई (CMIE: Centre for Monitoring Indian Economy) के अनुसार बेरोजगारी दर इस समय 26% के अकल्पनीय, अभूतपूर्व स्तर पर है।
ठीक इसी दौर में जब मुकेश अम्बानी कई पायदान ऊपर चढ़ते हुए एशिया के सबसे धनी आदमी तथा दुनिया के चौथे सबसे बड़े धनकुबेर बन गए, छोटी पूंजी के न जाने कितने व्यवसायियों को डूबती अर्थव्यवस्था लील गयी। पूरा MSME सेक्टर तबाह हो गया, उनके मालिक भी और उनके मज़दूर तो सड़क पर आ ही गए। स्वरोजगार में लगे करोड़ों कामगार एक झटके में बेरोजगार हो गए।
आबादी के विभिन्न vulnerable (कमज़ोर) हिस्सों पर गौर करें तो गाँवों में तो एक हद तक मनरेगा ने जिसे प्रधानमंत्री ने कभी पिछली सरकार की भव्य असफलता का विराट स्मारक कह कर मज़ाक उड़ाया था, उसने एक हद तक शहरों से उजड़े, शहरों में कामधंधा ठप होने से बेरोजगार हुए प्रवासी व ग्रामीण मज़दूरों को राहत दी। लेकिन शहरी क्षेत्र में मनरेगा जैसी किसी योजना के अभाव में यहां रहने वाले गरीबों, मज़दूरों, अल्प-आय वर्ग के लोगों के लिए स्थिति विकट हो गयी। उनमें जो गाँव की ओर भाग सकते थे वे तो सारी कठिनाइयाँ उठाकर भी पलायन कर गए, लेकिन जिनका गाँव में भी कोई सहारा/ठिकाना, ज़मीन जायदाद नहीं थी, वे यहीं रहने को मजबूर थे। उनके लिए ज़िंदगी बेहद कठिन हो गयी।
निर्माण कार्य में लगे मज़दूर, घरों में काम करने वाली महिलाएं, रिक्शा, ऑटो-रिक्शा चालक, अख़बार बेचने वाले हॉकर, ठेला खोमचा फुटपाथ पर दुकान लगाने वाले, प्राइवेट स्कूलों के अल्पवेतनभोगी अध्यापक, जिनमें अधिकांश महिलाएं हैं, माल से लेकर तमाम दुकानों, रेस्तरां, होटल में काम करने वाले कर्मचारी, salesboy/girls सब एक झटके में सड़क पर आ गए। उनके लिए तो खाने के लाले पड़ गए।
ट्रांसजेंडर से लेकर सेक्सवर्कर तक सब भूखमरी के कगार पर आ गए।
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सरकारी अनाज, खाना, लंबे इंतजार के बाद, वह भी अपर्याप्त। सामाजिक संगठनों, नागरिक समाज के उदारमना व्यक्तियों ने जरूर यथाशक्ति कोशिश की कि कोई भूख न रहे, पर उनकी सीमा थी
नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन और अभिजीत बनर्जी समेत देश-दुनिया के तमाम बड़े अर्थशास्त्रियों ने सुझाव दिया कि सरकार को सारी जरूरतमंद आबादी के खातों में direct कैश ट्रांसफर करना चाहिए, इससे संकट की इस घड़ी में देशवासियों के जीवन की रक्षा भी होगी और बड़े पैमाने पर मांग पैदा होने से ठप पड़ी अर्थव्यवस्था में गति भी आएगी, लेकिन सरकार ने एक न सुनी।
आज हालत यह है कि कोरोना के विकराल रूप धारण करने के बावजूद, श्रमिक फिर शहरों की ओर लौटने को मजबूर हैं। लेकिन काम कहाँ है ?
जो थोड़े बहुत काम हैं भी वहाँ भी पहले से भी बेहद कम मज़दूरी पर काम के लिए वे विवश हैं क्योंकि ज़िंदा रहने के लिए और कोई विकल्प ही नहीं है ! लोगों ने मांग की कि मनरेगा की तर्ज पर शहरों में भी रोजगार गारंटी की स्कीम शुरू की जाय और रोजगार के अधिकार को मौलिक अधिकारों में शामिल किया जाय।
लेकिन सरकार के लिए ये सब सुझाव कोई मायने नहीं रखते।
उसने जो राहत पैकेज घोषित किया वह दरअसल तरह तरह की loan स्कीमें हैं, जो उत्पादकों को कर्ज मुहैया कराती हैं ताकि वे उत्पादन कर सकें। पर इस योजना का मूल प्रस्थानबिंदु ही गलत है क्योंकि इस समय संकट उत्पादन का नहीं वरन माँग की कमी का है, जनता की क्रयशक्ति खत्म हो गयी है, उसे कर्ज नही वरन उनके हाथों में नकदी देकर ही बढ़ाया जा सकता है।
सरकार की ओर से यह धारणा बनाने की कोशिश है कि अव्वलन तो आर्थिक संकट वगैरह कुछ खास है नहीं और हम आत्मनिर्भर भारत बनने की ओर बढ़ रहे हैं, थोड़ी बहुत मुश्किलें अगर हैं भी तो महामारी के कारण हैं और इसी लिए अस्थायी हैं।
पर देश भूला नहीं है कि आर्थिक संकट कोरोना के पहले ही विकराल रूप धारण कर चुका था, इस गहराते आर्थिक संकट के लिए नवउदारवाद के ढांचागत कारक जहा जिम्मेदार हैं, वहीं मोदी की विनाशकारी नीतियों नोटबन्दी और जी एस टी के गलत क्रियान्वयन ने कोढ़ में खाज का काम किया।
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महामारी से निपटने के सरकार के अदूरदर्शी, संवेदनहीन, अनियोजित कदमों ने केवल इस संकट को चरम तक पहुंचाने का काम किया है। आंकड़ो की लाख बाजीगरी के बावजूद विकास दर पहले ही तलहटी तक पंहुँच चुकी थी , बेरोजगारी 45 साल के सबसे ऊंचे मुकाम पर थी और प्रो. प्रभात पटनायक के अनुसार वास्तविक मजदूरी (Real Wages) दर में लगातार गिरावट हो रही थी।
इसलिए सरकार न महामारी के मत्थे मढ़कर इस भयावह आर्थिक तबाही और श्रमिकों की अकथनीय यातना की जिम्मेदारी से बच सकती है, न ही मेक इन इंडिया और 5 ट्रिलियन इकॉनमी जैसे पुराने जुमलों की तरह अब आत्मनिर्भर भारत के नए जुमले की आड़ में छिप सकती है।
आने वाले दिनों में उसे देश की जनता के व्यापक असन्तोष और आंदोलनों का सामना करना ही होगा।
(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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