रूस और यूक्रेन युद्ध: पश्चिमी और गैर पश्चिमी देशों के बीच “सभ्य-असभ्य” की बहस

रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध शुरू हुए एक महीने से ज़्यादा हो चुके हैं। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार इस युद्ध के कारण अब तक लगभग 36.2 लाख विस्थापित लोगों को पड़ोसी देशों में जाकर शरण लेनी पड़ी है और वहीं एक हज़ार से ज़यादा लोगों को इस युद्ध की वजह से अपनी जान गंवानी पड़ी है।
युद्ध होने के कारणों पर विशेषज्ञ तरह-तरह की राय दे रहे हैं, कोई रूस को ज़िम्मेदार ठहरा रहा है तो कोई यूक्रेन को तो कोई अमेरिका और नेटो को। लेकिन इन सब के बीच जो विषय एक बार फिर से चर्चा में आया है वो है “सभ्य और असभ्य” का। पश्चिमी देशों तथा वहां की मीडिया ने इस युद्ध की जिस तरह से विवेचना की है वह चिंता का विषय है। रूस और यूक्रेन के बीच जारी युद्ध का इस तरह का विश्लेषण उनकी “पाखंडता” और “दोहरेपन” को एक बार फिर से प्रमाणित करता है।
पश्चिमी मीडिया की रिपोर्टिंग को हम देखें तो यही जाहिर करता है कि वह अभी भी पश्चिमी देशों और वहां के मूल नागरिकों को ही “सभ्य” मानते हैं और बाकी देशों और वहां के नागरिकों को “असभ्य”। सीबीएस न्यूज़, सीएनएन, बीबीसी, बीएफएम व उसके अलावा और भी कई मीडिया संस्थानों व उनसे जुड़े पत्रकारों की रिपोर्टिंग “एकपक्षीय”, “पाखंड”, “नस्लीय भेदभाव” और “एजेंडा” निहित दिखती है।
सीबीएस न्यूज के वरिष्ठ संवाददाता चार्ली डी’ अगाटा ने अपनी रिपोर्टिंग के दौरान कहा कि “यह (यूक्रेन) इराक या अफगानिस्तान जैसी जगह नहीं है, जिसने दशकों से संघर्ष देखा है। यह अपेक्षाकृत सभ्य अपेक्षाकृत यूरोपीय है़…. यह ऐसी जगह हैं जिसने किसी युद्ध के होने के बारे में सोचा भी नहीं होगा”। मियामी विश्वविद्यालय की प्रोफेसर रूला जेब्रिल इसके जवाब में ट्विटर पर लिखती हैं कि “किसी भी अत्याचार की शुरुआत अमानवीयकरण जैसे शब्दों के इस्तेमाल से शुरू होती है। पश्चिमी देशों द्वारा जिन मध्य-पूर्वी देशों के तानाशाहों को सुधारवादी कहा गया, उन्होंने लाखों लोगों की ज़िंदगियाँ बरबाद कर दी। नस्लवादी साहित्य में अफगानी, इराकी और सीरियाई जीवन कोई मायने नहीं रखते, क्योंकि उन्हें हीन और असभ्य समझा जाता है”।
बीएम टेलीविज़न फ्रांस के एक रिपोर्टर ने रिपोर्टिंग के दौरान कहा की “हम 21वीं सदी में हैं; हम एक यूरोपीय शहर में हैं और हमारे आस-पास क्रूज मिसाइल की आग है जैसे कि हम इराक या अफगानिस्तान में हैं। क्या कोंई कल्पना कर सकता है?”
किसी भी युद्ध को न तो कोई उचित ठहरा सकता है और न ही कोई उसे न्यायसंगत बता सकता है लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या केवल पश्चिमी देशों के पास एशिया या यूरोप के किसी भी देश पर आक्रमण करने की खुली छूट है? क्या इराक या अफगानिस्तान किसी बंजर ज़मीन का टुकड़ा है? क्या केवल यूरोप के लोगों की जान मायने रखती है?
इराक और अफगानिस्तान जैसे देशों पर किसके द्वारा आक्रमण किया गया? उन्हें किसने बरबाद कर दिया? क्या अफगानिस्तान में 1979 से पहले शांति नहीं थी? क्या वहां उससे पहले उथल-पुथल थी? क्या वहां के लोग “सभ्य” नहीं थे? अफगानिस्तान को किसने बरबाद किया? किसने वहां उथल-पुथल की? किसने वहां अशांति फैलाई? 1979 में इस खूबसूरत से देश पर सोवियत का आक्रमण हुआ और फिर अमेरिका भी इसमें कूद पड़ा। अंजाम आप सबको पता है। इराक का हाल भी आपको भरसक पता है।
रूस के आक्रमण के बाद जब यूक्रेन के आम नागरिकों ने आत्मरक्षा के लिए हथियार उठाये तो मीडिया व पश्चिमी देश उन्हें योद्धा व नायक कहने लगा। जबकि हमने फ़िलिस्तीन, अफगानिस्तान व इराक जैसे देशों मे देखा है कि आत्मरक्षा के लिए हथियार उठाना तो दूर, अगर कोई यहां शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने की सोचता भर भी है तो उस पर इन्हीं के द्वारा तरह- तरह के आक्षेप लगाए जाने लगते हैं।
न केवल पश्चिमी मीडिया संस्थानों बल्कि वहां के सरकारों ने भी जिस तरह के बयान दिए उससे उनका “पाखंड” और तथाकथित “सभ्य” होना दिखता है। युद्ध के कारण हुए विस्थापितों को बुल्गारिया के प्रधानमंत्री किरिल पेटकोव ने “बुद्धिजीवी” कहा तथा उनके लिए अपनी सीमाओं को खोल दिया लेकिन वहीं हम इतिहास के कुछ ही पन्नों को पलट कर देखें तो हमें यह दिखेगा की पश्चिमी देशों ने अफ्रीका व एशिया के विस्थापितों को कभी इस नज़र से नही देखा, बल्कि उन्हें हीन भावना की दृष्टि से देखा। उनके लिए कभी अपने दरवाजे इतनी सुगमता से नहीं खोले।
दरअसल इतिहास के पन्नों को पलटकर देखें तो पश्चिमी देशों का इतिहास उतना सफेद नहीं है जितना वह दुनिया के सामने पेश करते हैं और न ही यह उतने सभ्य हैं जितना वह खुद को बताते हैं। इनका इतिहास “बर्बरता”, “पाखंडता”, “नस्लवाद” और “खून-खराबों” से भरा हुआ है।
पश्चिमी देशों का हमेशा से यह मानना रहा है कि हम पूर्वी देशों की तुलना में ज़्यादा “सभ्य” हैं और अफ्रीकी और एशियाई लोग सभ्य नहीं हैं। उन्हें सभ्य बनाने की ज़िम्मेदारी हमारी (पश्चिमी देशों की) है।
यहां मैं रुडयार्ड किपलिंग की कविता “व्हाइट मैन्स बर्डेन” का ज़िक्र करना चाहूंगा। रुडयार्ड किपलिंग जिन्होंने अपनी कविता “व्हाइट मैन्स बर्डेन” में न केवल औपनिवेशिक विचारधारा को सही ठहराया बल्कि एशियाई व अफ्रीकी लोगों को “सभ्य” बनाने का बोझ भी पश्चिमी देशों खासकर अमेरिका पर दिया। उनका यह मानना था कि ‘ब्लैक व ब्राउन जातियों को शांति की कोई समझ नहीं है’।
जे एस मिल का ज़िक्र भी यहां पर अहम हैं। जिन्हें हम स्वतंत्रता, सहनशीलता और समानता का अग्रज मानते हैं। उन्होंने भी पश्चिमी और गैर पश्चिमी के बीच “सभ्य” और “असभ्य” विभाजन की रेखा खींच दी थी। वह पश्चिमी देशों को “सभ्य” और गैर पश्चिमी देशों को “असभ्य” मानते थे। उनका मानना था कि स्वतंत्रता जैसे सिद्धांत केवल “सभ्य” लोगों के लिए हैं, और “असभ्य” लोगों के लिए साम्राज्यवाद एक आवश्यक जरूरत हैं।
भीखु पारेख, “सूपीरियर पीपल; द नैरोनेस ऑफ़ लिबरलिज्म फ्रॉम मिल टू रॉल्स” में जे एस मिल की आलोचना कर लिखते हैं कि ‘उनका मानना यह था कि एक संस्कृति दूसरी संस्कृति के मुकाबले श्रेष्ठ है’। साथ ही वह यह भी आरोप लगाते हैं कि ‘जे एस मिल इंगलैंड देश की विचारधारा समूचे विश्व पर थोपते हुए दिखते हैं’।
दरअसल अपनी विचारधारा बाकी देशों पर थोपने और उन पर राज करने के लिए पश्चिमी देश हमेशा से तरह-तरह की विचारधाराओं का इस्तेमाल करते आए हैं। “असभ्य” देशों को “सभ्य” बनाने के लिए पश्चिमी देशों ने कितनी “असभ्यता” फैलाई है उसका साक्षात उदाहरण है “साम्राज्यवाद”। औपनिवेशिक विचारधारा का सहारा लेकर इन्होंने एशिया व अफ्रीका के देशों पर सालों-साल शासन किया और उससे भी बड़ी बात, उसे वैध बताया।
उन्नीसवीं सदी में साम्राज्यवादी विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए अमेरिकी वैज्ञानिक व राजनेता थॉमस जेफरसन ने “वैज्ञानिक नस्लवाद” का सहारा लिया। उन्होंने दावा किया कि “काले लोग शारीरिक और दिमागी तौर पर गोरों से कमतर होते हैं”। नाजी पार्टी के विचार भी कुछ इसी तरह के थे।
इनके द्वारा एशियाई व अफ्रीकी देशों पर की गई बर्बरता व अत्याचार के इतिहास को आज भी याद कर इंसानों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं, और एशियाई और अफ्रीकी लोगों को “सभ्य” बनाने की आड़ में इन्होंने जितने पाखंड किए, इतिहास इस बात का गवाह है। दास-व्यवसाय (स्लेव ट्रेड) के कारण इन्होंने लाखों अफ्रीकियों पर बर्बरता की। नैतिकता की दुहाई देने वाले पश्चिमी देशों ने इसकी शुरुआत की और अपने फायदे के लिए अफ्रीकियों का इस्तेमाल किया।
अंग्रेजों द्वारा भारतियों को तथाकथित “सभ्य” बनाने के मिशन के “काल” को उठा कर देखें तो जालियांवाला बाग की घटना, 1943 में बंगाल में हुए अकाल और उस पर विन्सटन चर्चिल का रवैया तथा फूट डालो और शासन करो की नीति जैसे निंदनीय कार्य याद आते हैं। यह सारे ऐसे कार्य हैं जिनका ज़िक्र जब भी आएगा, इनकी भरसक भर्त्सना ही होगी।
हम इक्कीसवीं सदी में रह रहे हैं जो की “वैश्विक दुनिया” कहलाती है। जहाँ हम “वैश्विक नागरिक” जैसे सिद्धांत की बात करते हैं, वहां क्या “सभ्य” और “असभ्य” जैसी बायनरी होना अपने आप में कई सारे सवाल नहीं खड़े करती है? क्या ऐसी मानसिकता के साथ कभी वैश्विक स्तर पर समानता आ पायेगी?
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत है।)
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।