बांग्लादेशी प्रवासियों की 'बाढ़' के मिथक तोड़ते जनगणना के आंकड़े!

2011 में हुई जनगणना के बाद माईग्रेशन से संबंधित डाटा को जारी करने में जनगणना कार्यालय को आठ साल लग गए। और इसके जारी होने के एक महीने के भीतर ही, एक विशेष डाटा के सेट को हटा दिया गया। यह हटायी गयी टेबल डी -2 है जो विदेशी प्रवासियों की संख्या को बताती है। आधिकारिक जनगणना वेबसाइट अब एक गुप्त फ़ुटनोट में कहती है कि, इस पहलू का डाटा "जांच के अधीन” है।
न्यूज़क्लिक ने इस डाटा के ग़ायब होने से पहले डी-2 तालिका और उससे जुड़े कुछ प्रमुख पहलुओं को डाउनलोड कर लिया था – जो शायद इसे हटाए जाने का कारण भी हो सकता है – जिन्हें नीचे दिया जा रहा है। हासिल किए गए जनगणना के आंकड़ों से पता चला है कि भारत में 27 लाख व्यक्ति ऐसे हैं जिन्होंने बताया कि उनका अंतिम निवास स्थान बांग्लादेश था। यह आंकडा 2001 में हुई पिछली जनगणना में लगभग 31 लाख था।
इस डाटासेट में वर्तमान स्थान पर रहने की अवधि भी दी गई है। यह वह समय है जबसे वे अपना देश छोड़ कर आए हैं। इससे पता चलता है कि 1991 से पहले आप्रवासियों की तीन चौथाई से अधिक संख्या (लगभग 77 प्रतिशत) भारत में आ गई थी। जैसा कि नीचे दिए गए चार्ट में दिखाया गया है (हासिल की गई डी-2 तालिका के आधार पर), बांग्लादेश से इमीग्रेशन/पलायन समय के साथ लगातार गिर रहा है।
जबकि संघ परिवार/भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने लगातार ये अभियान चलाया है कि बांग्लादेशी अप्रवासी देश में बाढ़ की तरह आ रहे हैं और इसलिए इन्हे "घुसपैठिया" या "अवैध" घोषित करने की ज़रूरत है, ताकि आगे चलकर उन्हें देश से बाहर फेंक दिया जाएगा। भाजपा के शीर्ष नेताओं को यह कहते हुए सुनना आम बात है कि देश में 40 लाख बांग्लादेशी हैं जो अवैध रूप से भारत में रह रहे हैं।
विशेषज्ञों का मानना है कि बांग्लादेश से इमीग्रेशन में गिरावट कई कई कारण हो सकते है, जिसमें सीमा पर बाड़ लगाने, चौकसी करने और बांग्लादेश में आर्थिक स्थितियों में कुछ सुधार भी हो सकते है।
बांग्लादेशी अप्रवासियों के बारे में एक अन्य मिथक यह भी है कि वे भारत के विभिन्न हिस्सों में 'बाढ़' की तरह भर रहे हैं। इसे भी, संघ परिवार द्वारा ख़ूब प्रचारित किया जाता है। उनकी पहचान करने और उन्हें देश से बेदख़ल करने के नारे का इस्तेमाल राजनीतिक नारे के रूप में उन सब जगहों पर भी किया जाता है, जहाँ कुछ मुट्ठी भर अप्रवासी ही हैं। उदाहरण के लिए, यह मांग दिल्ली में भी उठाई गई है जहाँ हाल ही में, भाजपा सांसद परवेश वर्मा ने इसे लोकसभा में बड़ी गरज के साथ कहा और “अवैध अप्रवासियों” को देश के बाहर निकालने के लिए असम जैसी एन.आर.सी. (नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटिज़न्स) बनाने की माँग की। हालांकि, जनगणना के आंकड़ों से पता चलता है कि दिल्ली में बांग्लादेश से केवल 2,321 प्रवासियों ही है।
दरअसल, लगभग 95 प्रतिशत बांग्लादेशी अप्रवासी पश्चिम बंगाल, असम और त्रिपुरा में रह रहे हैं। शेष 5 प्रतिशत जोकि बहुत ही कम मात्रा है देश के विभिन्न हिस्सों में फैले हुए हैं, मुख्यतः कुछ शहरों में। इनमें वे भी शामिल हैं, जो 1971 के बाद देश के विभिन्न हिस्सों में सरकार द्वारा बसाए गए थे, हालांकि उनकी संख्या उम्र दराज़ी के साथ घटती जा रही है।
दूसरा मिथक यह है कि पूर्वोत्तर राज्यों में बांग्लादेशी "घुसपैठियों" की भरमार है। जैसा कि नीचे दिए गए चार्ट से पता चलता है कि पूर्वोत्तर के अधिकांश राज्यों में बसे बांग्लादेशी प्रवासियों की संख्या नगण्य है। केवल त्रिपुरा में ऐसे प्रवासियों का अनुपात अधिक है जहां लगभग 5,862 प्रवासी प्रति लाख जनसंख्या पर है। हालांकि यह भी, बहुत महत्वपूर्ण अनुपात नहीं है, आबादी का केवल 6 प्रतिशत बैठता है।
जनगणना के आंकड़े भारत में निवासियों के रहने की वैधता या उससे जुड़ी अन्य बातों का संकेत नहीं देते हैं। जनगणना वाले केवल इस बारे में पूछताछ करते है कि संबंधित व्यक्ति अपने वर्तमान निवास से ठीक पहले कहां रह रहा था। यह भी संभव है कि कुछ लोग जनगणना करने वाले को गलत तरीक़े से भी रिपोर्ट कर सकते हैं। लेकिन जब तक अविश्वास का कोई ख़तरा या माहौल नहीं होता है, तब तक यह विश्वास करने का कोई विशेष कारण नहीं है कि इस तरह की त्रुटियां या ग़लतफ़हमी गणना के दौरान हो रही है।
जिस वर्ष जनगणना आयोजित की गई थी – यानी 2011 में – तब किसी भी तरह का तनाव या मनमुटाव नहीं देखा गया था, जैसा कि आज एन.आर.सी. के मामले में देखा जा रहा है, जो लाखों लोगों के सिर पर तलवार की तरह लटकी हुई है। न ही संघ परिवार ने कभी इतनी आक्रामक तरीक़े से लोगों को अपनी धार्मिक पहचान बताने और इसे आप्रवासन से जोड़ने के लिए उकसाया था। इसलिए, ये आंकड़े, बहुत ही बड़े सच का प्रतिनिधित्व करते हैं। शायद इसी लिए, जनगणना कार्यालय (जो गृह मंत्रालय के अंतर्गत आता है) ने डाटासेट को हटा दिया है।
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