बढ़ती इंसानी आवाजाही से दुर्लभ लाल हिरण हंगुल का अस्तित्व ख़तरे में

दाचीगम राष्ट्रीय उद्यान श्रीनगर, जम्मू कश्मीर से 22 किलोमीटर दूर है। दाचीगम का शाब्दिक अर्थ उन दस गाँवों की याद में हो सकता है, जिन गाँवों को पार्क बनाने में स्थानांतरित किया गया था। पार्क का कुल क्षेत्रफल 141 वर्ग किलोमीटर है। पार्क को दो भागों में बांटकर अच्छे से समझा जा सकता है , ऊपरी और निचला दाचीगम। लोअर यानी निचला दाचीगाम, पश्चिम में, कुल क्षेत्रफल का लगभग एक तिहाई है और आगंतुकों के लिए सबसे अधिक सुलभ क्षेत्र है। पूर्व में ऊपरी दाचीगाम ऊंची पहुंच से अधिक है और निकटतम रोडहेड से एक अच्छे दिन का ट्रेक है।
श्रीनगर शहर को स्वच्छ पेयजल की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए शुरू में दाचीगम के स्थापना की गयी थी। 1910 से एक संरक्षित क्षेत्र, इसे 1981 में राष्ट्रीय उद्यान घोषित किया गया था। यह राष्ट्रीय उद्यान हंगुल हिरन के लिए प्रसिद्ध माना जाता है। हंगुल हिरण लाल हिरणों की लुप्तप्राय प्रजातियों में से एक है जो जम्मू-कश्मीर में सबसे प्रसिद्ध हिरणों में से एक है। पार्क लुप्तप्राय हंगुल या कश्मीरी हिरण को आश्रय देता है। यहाँ कश्मीरी हिरण के आलावा अन्य वन्यजीवों में तेंदुआ, कॉमन पाम सिवेट, जैकल, रेड फॉक्स, येलो-थ्रोटेड मार्टेन और हिमालयन वेसल शामिल हैं।
राजकीय पशु
हंगुल जम्मू कश्मीर का राजकीय पशु हैं। यूरोपियन लाल हिरण की तरह दिखने वाले हंगुल हिरण की दुम यूरोपियन हिरण से छोटी होती है, और इनका शरीर यूरोपियन हिरण का तरह लाल नहीं होता बल्कि गहरे भूरे रंग का होता है। हंगुल कश्मीरी शब्द हंगल से आता है, जिसका अर्थ है गहरे, भूरे रंग का। पहली बार हंगुल अल्फ्रेड वाग्नेर द्वारा 1844 में पहचाना गया था। ऐसा माना जाता हैं हंगुल बुखारा (उज़्बेकिस्तान ) मध्य एशिया के रस्ते होते हुए कश्मीर में आया था। यह भारत में लाल हिरण की एक ही प्रजाति मौजूद है।
हंगुल के अस्तित्व को ख़तरा
साल 2017 हंगुल गणना के अनुसार दाचीगम राष्ट्रीय उद्यान में 182 हंगुल बचे थे। इंटरनेशनल यूनियन फॉर कन्ज़र्वेशन फॉर नेचर द्वारा हंगुल को "महत्वपूर्ण लुप्तप्राय प्रजाति" घोषित किया गया था। साल 1947 में हंगुल की कुल संख्या 2000 के आसपास थी लेकिन 1970 तक आते-आते हंगुल की सँख्या में भारी गिरावट आई, क्योंकि प्रदेश में शिकार परमिट का बड़ा दुरुपयोग हंगुल के अवैध शिकार के लिए किया गया। 1980 में 340 हंगुल बचे। 1990 में बढ़ गए उग्रवाद की वजह से इस साल कोई गणना नहीं हो पायी, हालांकि 1990 के दशक में उग्रवादियों ने लोगों को शिकार करने के लिए जंगलों में जाने से रोक दिया, फिर भी दाचीगम के निचले हिस्से में हंगुल के शिकार का रुझान जारी रहा। गणना के मुताबिक हंगुल की संख्या 2007 में 197 , 2009 में 234 , 2011 में 218 , 2015 में 186 और 2017 में कुल 182 रह गई।
वर्ष 2008 में हंगुल की घटती संख्या को देखते हुए नेशनल ज़ू अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया की तरफ से दाचीगम नेशनल पार्क में एक ब्रीडिंग सेंटर बनाने की घोषणा हुई। उस समय हंगुल की संख्या 197 थी, लेकिन परियोजना ने पांच साल तक उड़ान नहीं भरी क्योंकि विभाग यह हवाला देता रहा कि वो हंगुल को पकड़ नहीं पा रहा है। 2016 में राज्य सरकार ने दोबारा केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय से संपर्क किया और 25.72 करोड़ रुपये की अतिरिक्त सहायता मांगी जिससे राज्य में हंगुल के लिए ब्रीडिंग सेंटर और वहाँ पर विशेषज्ञों को नियुक्त किया जा सके। लेकिन प्रस्ताव को मंत्रालय ने ख़ारिज कर दिया।
संख्या में कमी आने के कई कारण
जम्मू-कश्मीर में हंगुल की संख्या कम होती जा रही हैं, इनकी संख्या में कमी आने के बहुत कारण हैं।
हंगुल एक शर्मीले हिरण की प्रजाति है। उनको अपने आसपास घास खाते समय किसी भी प्रकार की बाधा नहीं पसंद। गर्मियों के समय में हंगुल दाचीगम के निचले जगह पर आ जाते हैं, जहां पर भेड़ और बकरियों के बड़े झुण्ड भी घास खाते रहते हैं, हंगुल को अपनी जगह पर किसी और प्राणी या इंसान का होना या भोजन को लेकर प्रतिस्पर्धा बिल्कुल नहीं पसंद। दाचीगम राष्ट्रीय उद्यान विशेषकर हंगुल के लिए निवास स्थान के रूप में था लेकिन अब हंगुल को अपनी जगहों औऱ संसाधनों के लिए नये और पुराने बाशिंदों से प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। एक वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैले राज्य सरकार के पशुपालन विभाग के भेड़ फार्म हंगुल के आवाजाही में सबसे बड़ी परेशानी हैं।
भारत और पाकिस्तान के बीच बढ़ते तनाव औऱ सीमा संघर्ष भी हंगुल के जीवित रहने के लिए दुविधा बनता जा रहा है।
भारतीय सेना के चलने वाले सर्च ऑपरेशन अक्सर गश्त दलों के साथ कुत्तों का होना औऱ कुत्तो के द्वारा हंगुल को उनके स्थानों से खदेड़कर उनको इंसानी बस्तियों की तरफ धकलेना भी एक कारण है। 2017 में सीआरपीएफ ने दाचीगम के निचले हिस्सों में अपनी उपस्थिति बढ़ा दी थी जिससे वो प्रदेश में कानून व्यवस्था औऱ अच्छी कर सके लेकिन पार्क के अंदर सेना की चाक चौबंद का प्रभाव हंगुल के आवाजाही पर पड़ा।
हंगुल के प्रजनन के आकड़े भी चिंता भरे हैं। सरकरी रिकार्ड्स के मुताबिक मादा-नर अनुपात अब प्रति 100 मादाओं पर 15-17 नर है, जो 2004 में 23 नर प्रति 100 से भी घट गयी है।
कैप्चर मायोपथी, एक तरह का जटिल रोग है जो जानवर को पकड़ने औऱ इंसानो के संचालन से जुड़ा है। यह बीमारी हंगुल के बीच काफी पायी गयी हैं। लिंग अनुपात यह दिखता हैं कि हंगुल की संख्या भारी मुश्किल में है।
वाइल्डलाइफ डिपार्टमेंट ऑफ़ कश्मीर ने हाल ही में सिंध फारेस्ट रिज़र्व कि तरफ हंगुल के नए आवाजाही रूट पर कुछ चौकियाँ बनायी हैं जिससे हंगुल गर्मियों में जब निचली जगह पर भोजन कि तलाश में आये तो उनके संचालन में किसी तरह कि बाधा न आये औऱ शोधकर्ता हंगुल का अध्ययन कर सकें। वाइल्डलाइफ डिपार्टमेंट ने यह भी प्रस्तावित किया हैं कि मोटर गाड़ियों कि आवाजाही भी उस समय स्थगित कर दी जाये जब हंगुल उस जगह से गुज़र रहे हों।
डिपार्टमेंट ने सरकार को लिखा हैं कि वो सुरक्षादलों , जिसमें भारतीय सेना और सीआरपीएफ भी शामिल है, खोजी कुत्तों का इस्तेमाल उन कॉरिडोर्स पर कम कर दे जिन कॉरिडोर्स को हंगुल द्वारा इस्तेमाल किया जाता हैं। यह बहुत ही गंभीर समस्या है क्योंकि खोजी कुत्ते हंगुल के लिए समस्या बनते जा रहे हैं।
हंगुल 10 वर्षों तक जीवित रहता है औऱ फ़ूड चैन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। प्रमुख शाकाहारी जानवर होने के कारण यह घास के मैदान की चराई को सुनिश्चित करता है। एक हंगुल, तेंदुए की भूख को पांच से दस दिनों तक दूर कर सकता है, जिससे जानवरों औऱ इंसानों के बीच टकराव कम होगा।
फॉरेस्ट गार्ड बताते हैं कि कश्मीर में बढ़ रही हिंसा भी एक गहरा प्रभाव हंगुल के व्यवहार औऱ आबादी पर डाल रहा है। हंगुल व्यवहार में बहुत शर्मीले होते हैं, जब मादा हंगुल, शिशु हंगुल को जन्म देती है तो बाकि मादा हंगुल माँ को घेर लेती हैं जिससे कोई और शिकारी जानवर न देख ले। औऱ कभी कभी हंगुल नई पीढ़ी के लिए भी अपना बलिदान कर देते हैं।
हंगुल को आवाजाही के लिए और आज़ादी देनी होगी। इनके संरक्षित जगहों पर किसी प्रकार की इंसानी आवाजाही नहीं होनी चाहिए। जानवरों को कुदरत के ऊपर छोड़ देना चाहिए, आबादी अपने आप बढ़ जाएगी।
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