आरटीआई संशोधन : लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमज़ोर करने की एक और चाल!

नरेंद्र मोदी पार्ट-2 सरकार सूचना का अधिकार (आरटीआई) कानून में बदलाव कर रही है। संशोधन बिल, 2019 को चर्चा के लिए लोकसभा के सामने रखा गया है और बहस जारी है। इसको लेकर नेशनल कैंपेन फॉर पीपुल्स राइट टू इंफॉर्मेशन (एनसीपीआरआई), नेशनल एलायंस फॉर पीपुल्स मूवमेंट सहित कई अन्य समाजिक संगठनों सहित सिविल सोसाइटी के लोगों ने कड़ा विरोध जताया है। उनका कहना है कि सरकार इस संशोधन के माध्यम से इस कानून को पूरी तरह से कमजोर और बर्बाद कर देना चाहती है।
इसको लेकर इन सभी संगठनों ने इस संशोधन विधेयक के विरोध में सड़क से संसद और सोशल मीडिया पर सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन का आह्वान किया है। इसी क्रम में सोमवार, 22 जुलाई को इन सभी संगठनों ने दिल्ली में संसद से कुछ सौ मीटर दूर पटेल चौक मेट्रो स्टेशन से प्रदर्शन मार्च किया और इसके बाद कॉन्स्टिट्यूशन क्लब में जन मंच आयोजित किया और फिर प्रेस वार्ता की। इसमें राज्यसभा सांसद मनोज झा, वरिष्ठ वकील और समाजिक कार्यकर्ता प्रशांत भूषण, आरटीआई कार्यकर्ता अंजिल भारद्वाज और अन्य सामाजिक कार्यकर्ता शमिल हुए।
सभी संगठनों ने आरटीआई एक्ट में संशोधन की आलोचना की और कहा, ‘यह संशोधन भारत में लोकतंत्र की विश्वसनीयता और अखंडता को कमजोर करेगा। इन सभी मूल्यों को स्थापित करने के लिए हम एक स्वतंत्र और शक्तिशाली आरटीआई आयोग की मांग करते हैं।’
आरटीआई कार्यकर्ता अंजलि भारद्वाज का कहना है कि लोकसभा में पेश किया गया सूचना का अधिकार बिल केंद्र सरकार को सूचना आयुक्तों के कार्यकाल और वेतन निर्धारित करने की ताक़त देता है जो उनकी आज़ादी और अधिकारों का हनन है। इस संशोधन के ज़रिये सरकार सूचना आयोग को कमज़ोर करने की कोशिश कर रही है।’
वे सवाल करती हैं कि इस संशोधन की क्या जरूरत है और सरकार इसे क्यों करना चाहती है?
अंजलि भरद्वाज ने कहा कि आज हम यहां इसलिए आए हैं कि सरकार और संसद में बैठे लोगों तक हमारी आवाज़ पहुंचे कि हम नहीं चाहते की ये संशोधन हो। उन्होंने कहा कि इससे पहले पिछले साल भी सरकार ने कोशिश की थी लेकिन हमारे संघर्ष के कारण सरकार को अपने कदम पीछे खींचने पड़े थे। हम इसबार भी डरेंगे नहीं इसबार भी हम अपने मौलिक अधिकार के लिए लड़ेंगे।
वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने बताया कि क्यों सूचना आयुक्तों की स्वतंत्रता जरूरी है। उन्होंने कहा कि क्योंकि आप सरकार की सूचना मांग रहे हैं इसलिए यह प्रावधान किया गया कि इनको सरकार से स्वतंत्र रखा जाए। इसलिए इनके वेतन और कार्यकाल के नियम तय किये गए थे। लेकिन अब इसे खत्म किया जा रहा है। इसकी कोशिश पहले भी हुई है जैसे अफसरों की फाइल की नोटिंग को लेकर सवाल रहे कि ये नोटिंग पब्लिक की जा सकती है या नहीं ?
सीपीआई महासचिव डी राजा ने भी इस संशोधन का विरोध किया और कहा कि ये सरकार सभी संस्थाओं को तबाह करना चाहती है।
वहीं दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा कि ऐसा करने से केंद्रीय एवं राज्य के सूचना आयोगों की स्वतंत्रता समाप्त हो जाएगी।
अपनी सियासी पारी शुरू करने से पहले आरटीआई कानून को लागू करवाने की दिशा में सक्रियता से काम करने वाले केजरीवाल ने ट्वीट किया, “आरटीआई कानून में संशोधन का निर्णय एक खराब कदम है। यह केंद्रीय एवं राज्यों के सूचना आयोगों की स्वतंत्रता समाप्त कर देगा जो आरटीआई के लिए अच्छा नहीं होगा।”
Decision to amend the RTI Act is a bad move. It will end the independence of Central & States Information Commissions, which will be bad for RTI
— Arvind Kejriwal (@ArvindKejriwal) July 22, 2019
आपको बता दें कि केंद्र ने आरटीआई कानून में संशोधन करने के लिए लोकसभा में शुक्रवार को एक विधेयक पेश किया जो सूचना आयुक्तों का वेतन, कार्यकाल और रोजगार की शर्तें एवं स्थितियां तय करने की शक्तियां सरकार को प्रदान करने से संबंधित है।
सूचना का अधिकार (संशोधन) विधेयक पेश करते वक्त प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री जितेंद्र सिंह ने कहा कि यह आरटीआई कानून को अधिक व्यावहारिक बनाएगा। उन्होंने इसे प्रशासनिक उद्देश्यों के लिए लाया गया कानून बताया।
उधर, विरोध कर रहे हैं संगठनों का कहना है कि सरकार ने बिल पेश करने के लिए अपनाई जाने वाली प्रक्रियाओं को भी नहीं माना। इसे पेश किए जाने के पहले तक किसी को भी जानकारी नहीं दी गई। इन संगठनों का कहना है कि सबसे हैरानी की बात यह है कि जनता और बाकी हितधारक तो छोड़िए सांसदों को भी तब इसके बारे में पता चला जब उनके बीच इसकी कॉपी बांटी गई।
देश के लगभग 6 करोड़ नागरिकों द्वारा हर साल आरटीआई अधिनियम का इस्तेमाल किया जाता है। यह आम नागरिकों के हाथों में सबसे मजबूत हथियार साबित हो रहा है। इस अधिकार से वो अपने अधिकारों को जानते हैं और सरकारों की चोरी को पकड़ते है।
नेशनल कैंपेन फॉर पिपुल्स राइट टू इंफॉर्मेशन (एनसीपीआरआई) पूरी तरह से एनडीए सरकार द्वारा पेश किए गए संशोधनों को खारिज करता है और मांग करता है कि उन्हें तत्काल प्रभाव से वापस ले लिया जाए। ये संशोधन लोगों के मूल अधिकारों को प्रभावित करेंगे, अगर कोई संशोधन किया भी जाना है तो उसे उचित संसदीय समितियों द्वारा व्यापक बहस और चर्चा के माध्यम से रखा जाना चाहिए।
इससे पहले पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त श्रीधर आचार्युलु ने बीते शनिवार को सांसदों से सूचना के अधिकार (संशोधन) विधेयक, 2019 को पारित करने से रोकने की अपील करते हुए सांसदों को एक खुला पत्र लिखा और कहा कि कार्यपालिका विधायिका की शक्ति को छीनने की कोशिश कर रही है।
इस पत्र में, आचार्युलु ने पारदर्शिता की वकालत करते हुए कहा कि इस संशोधन के जरिये मोदी सरकार आरटीआई के पूरे तंत्र को कार्यपालिका की कठपुतली बनाना चाह रही है। आचार्युलु ने पत्र में लिखा, ‘राज्यसभा के सदस्यों पर जिम्मेदारी अधिक है क्योंकि वे उन राज्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनकी स्वतंत्र आयुक्तों को नियुक्त करने की शक्ति केंद्र को दी जा रही है।
एनसीपीआरआई के मुताबिक मुद्दों की एक विस्तृत श्रृंखला है जिसके लिए सरकार को तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है और उसके लिए आरटीआई कानून के प्रभावी क्रियान्वयन को सुनिश्चित करने और सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता के उच्च मानकों को बढ़ावा देने के लिए तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है, जो निम्नलिखित हैं;
• सूचना आयोगों में रिक्त पदों को भरने के लिए समयबद्ध और पारदर्शी नियुक्तियां करना
• सूचना चाहने वालों पर हमलों के मुद्दे का समाधान करना- देश भर में 80 से अधिक आरटीआई उपयोगकर्ताओं की हत्या कर दी गई है।
• व्हिसल ब्लोअर्स प्रोटेक्शन एक्ट लागू करना
• अनिवार्य स्वतः प्रकटीकरण (Pro Active Disclosures) को मज़बूत करने के लिए सूचना के अधिकार की धारा 4 के ख़राब क्रियान्वयन को ठीक करना, जिसकी कमी इस सरकार की कुछ सबसे व्यापक नीतियों जैसे कि नोटबंदी में तीव्रता से महसूस की गई।
• चुनावी चंदे में पारदर्शिता की पूर्ण कमी को ठीक करना
एनसीपीआरआई का कहना है कि यह अकल्पनीय है कि इनमें से किसी भी मुद्दे पर, जो वर्तमान में सूचना के जन अधिकार को कमजोर कर रहे हैं का समाधान करने के बजाय, एनडीए सरकार ने आरटीआई कानून के तहत निर्णय करने वाले प्राधिकारियों की स्वतंत्रता और स्वायत्तता को नष्ट करने पर अपना ध्यान केंद्रित कर
लिया है। यह नवीनतम विधायी चालाकी इस सरकार की इस देश की लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर करने की चाल का एक और उदाहरण है।
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