‘अन्य’ जातियों के मुकाबले जनजातीय जनसँख्या की स्वास्थ्य सम्बन्धी स्थिति चौंकाने वाली: एक रिपोर्ट

जनजातीय स्वास्थ्य पर एक विशेषज्ञ समिति ने यह निष्कर्ष निकाला है कि इनकी जनसँख्या का एक बहुत बड़ा भाग स्वास्थ्य सम्बन्धी परेशानियाँ झेल रहा हैI ऐसा इनकी स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच और उसकी गुणवत्ता की वजह से है।
2013 में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय और जनजातीय कार्य मंत्रालय द्वारा गठित समिति द्वारा हाल ही में जारी की गई रिपोर्ट के मुताबिक देश की जनजातीय जनसँख्या सबसे अधिक बीमारियों का बोझ झेल रही है। मलेरिया और तपेदिक जैसे कुपोषण और संक्रमणीय बीमारियाँ तो इनमें काफी पायी ही जाति हैं, लेकिन मधुमेह, उच्च रक्तचाप और कैंसर के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं, विशेष रूप से नशे की लत जैसी गैर-संक्रमणीय बीमारियाँ भी आदिवासियों में बढ़ी हैं।
‘Tribal health in India - Bridging the gap and a roadmap for the future’ (भारत में जनजातीय जनसँख्या का स्वास्थ्य- खाई कम करने की कोशिश और भविष्य के कार्यक्रमों की रूपरेखा) नाम की रिपोर्ट राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण, राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ रिसर्च इन ट्राइबल हेल्थ (एनआईआरटीएच), सिविल द्वारा किए गए अध्ययनों के आधार पर तैयार की गयी हैI यह एक जनजातीय जनसँख्या के स्वास्थ्य सम्बन्धी परिस्थितियों का एक विस्तृत ख़ाका प्रस्तुत करती हैI इसे डॉ. अभय बैंग की अध्यक्षता में प्रमुख शिक्षाविदों, नागरिक समाज के सदस्यों और नीति निर्माताओं वाली एक 12 सदसीय समिति ने तैयार किया है।
रिपोर्ट में बताया गया है कि सरकार के पास स्वास्थ्य सहित जनजातीय आबादी के विकास के लिए कोई व्यापक योजना नहीं है। आधिकारिक आँकड़ों के अनुसार जनजातीय आबादी का लगभग 90 प्रतिशत ग्रामीण इलाकों में रहता है और देश में 50 प्रतिशत से अधिक जनजातीय आबादी वाले 90 ज़िले या 809 ब्लॉक हैं, और ये देश की अनुसूचित जनजातीय (एसटी) आबादी का लगभग 45 प्रतिशत हिस्सा है। उनमें से दो तिहाई प्राथमिक क्षेत्र में काम कर रहे हैं यानी ये मुख्यतः कृषि पर निर्भर हैं, या तो किसान हैं या कृषि मज़दूर हैं।
इन समुदायों की खराब आर्थिक स्थिति का खुलासा करते हुए, रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में गैर-जनजातीय आबादी का 20.5 प्रतिशत के मुकाबले एसटी आबादी का कुल 40.6 प्रतिशत गरीबी रेखा से नीचे रहता है। इसके अलावा, इन समुदायों के बीच बुनियादी सुविधाएँ भी कम पहुँच रही हैं– गैर-अनुसूचित जनजातियों के 28.5 प्रतिशत के मुकाबले जनजातीय आबादी के केवल 10.7 प्रतिशत को नल से पानी तक पहुँचता है और लगभग 74.7 प्रतिशत जनजातीय आबादी अब भी खुले में शौच करती है।
समिति ने दस विशेष स्वास्थ्य समस्याओं की पहचान की जो आदिवासियों में ग़ैर-आदिवासियों के मुकाबले ज़्यादा पायी जाती है। वे हैं: मलेरिया, कुपोषण, शिशु मृत्यु दर, मातृ स्वास्थ्य, परिवार नियोजन की कमी, नशे की लत, सिकल सेल रोग, पशु द्वारा काटने की घटनाएँ और दुर्घटनाएँ, स्वास्थ्य निरक्षरता और आश्रम-शालाओं में बच्चों के स्वास्थ्य में गिरावट।
स्वास्थ्य देखभाल
वर्तमान मानदंडों के अनुसार, जनजातीय और पहाड़ी इलाकों में प्रति 3,000 लोगों के लिए एक स्वास्थ्य उप-केंद्र होना चाहिए, प्रति 20,000 लोगों के लिए एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और 80,000 लोगों के लिए एक समुदाय स्वास्थ्य केंद्र होना चाहिए। जबकि समिति ने पाया कि लगभग आधे राज्यों में, वर्तमान मानदंडों के आधार पर, जनजातीय क्षेत्रों में स्वास्थ्य संस्थानों की संख्या 27 से 40 प्रतिशत कम थी। ये आँकड़ें खतरनाक हैं क्योंकि करीब 50 प्रतिशत जनजातीय आबादी बाह्य रोगी के तौर पर सार्वजनिक अस्पतालों में जाती है और जनजातीय आबादी का दो तिहाई हिस्सा सरकारी अस्पतालों में ही दाखिल होता है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि "अनुसूचित क्षेत्रों में जनजातीय आबादी मुख्यतः सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा प्रणाली पर ही निर्भर है इसके बावजूद, यहाँ लगातार देखा जा रहा है कि स्वास्थ्य सुविधा प्रणाली की प्राथमिकताएँ इनती गलत हैं कि यहाँ इनका इस्तेमाल कम होता है, इनकी गुणवत्ता भी कम है और इनसे जिन परिणामों की आकांक्षा रखी जाती है वह भी पूरे नहीं होतेI इसलिए केंद्र और राज्यों, दोनों स्तरों पर परिवार एवं स्वास्थ्य कल्याण मंत्रालयों की प्राथमिकता यह होनी चाहिए कि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा प्रणाली की पुन:संरचना और मज़बूती की ओर ध्यान दिया जायेI”
जनजातीय उप-योजना को दिए जाने वाला धन एसटी आबादी को मुख्य्धारा में शामिल करने के एक हथियार हैI लेकिन इसके आलावा एक और समस्या की ओर रिपोर्ट में चर्चा की गयी है कि इसके तहत किये गये व्यय को केवल बहीखाते में ब्यौरा देने की खानापूर्ति के रूप में देखा जाता हैI क्योंकि तमाम मंत्रालय इसके तहत अधिकतर उन सामान्य सुविधाओं का ज़िक्र करते हैं जो उन्हें वैसे भी आदिवासी इलाकों में देनी ही होती हैं, लेकिन उप-योजना के अनुसार इन क्षेत्रों में जो अतिरिक्त खर्च किया जाना आवश्यक है उसका ब्यौरा कहीं नहीं होताI
समिति ने जनजातीय स्वास्थ्य के लिए धन देने के लिए तीन अनिवार्यताओं की सिफारिश की:
जनजातीय उप-योजना के निर्देशों को सख्ती से लागू किया जाये और यह सुनिश्चित किया जाये कि केंद्र और राज्यों दोनों के स्वास्थ्य मंत्रालय जनजातीय क्षेत्रों की सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली ले लिए अलग से धन आबंटित और खर्च करें, यह आबंटन एसटी जनसख्याँ के अनुपात में होनी चाहिए यानी कुल 15,676 रूपये और यह भी सुनिश्चित किया जाये कि इसका 70 प्रतिशत सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च किया जाये, जनजातीय आबादी के स्वास्थ्य पर प्रति कैपिटा खर्च को बढ़ाकर 2,447 रूपये किया जायेI इससे यह 2016 की नई राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के लक्ष्य यानी राष्ट्रीय जीडीपी का 2.5 प्रतिशत हो जायेगा; इसके अलावा एक बेहतर प्रणाली का निर्माण होना चाहिए ताकि सरकार की तरफ से आबंटित धन राशी का सदुपयोग किया जा सके, और आँकड़ों की विश्वसनीयता बढ़ाई जायेI
जनजातीय स्वास्थ्य की समिति द्वारा प्रस्तावित प्रशासन संरचना का चार्ट।
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