अफ़ग़ानिस्तान: चेतावनी भरी अमरीकी निकासी

संयुक्त राज्य अमेरिका और नाटो को अब अफ़ग़ानिस्तान से अपनी सेना की वापसी शुरू करनी है, लेकिन आंखें उस निशाने पर हैं, जहां इस ‘लम्बे समय से चले आ रहे युद्ध’ के औपचारिक रूप से ख़त्म होने के बाद की स्थिति में निहित है। अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका के बाहर निकलने की रणनीति अपने मनमाफ़िक उस अचानक लॉटरी की तरह है जैसे 2011 में इराक़ युद्ध के समय हुआ था कि वह युद्ध आख़िर में अनिश्चितता के साथ समाप्त हुआ था।
इस बात के ढेर सारे सबूत हैं कि अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के 11 सितम्बर तक सभी सैनिकों की वापसी को लेकर 14 अप्रैल की उनकी घोषणा उस मामले पर आख़िरी शब्द नहीं हो सकते है। पेंटागन के कमांडर और सीआईए इस फ़ैसले पर "चुटकी लेते" हुए नज़र आते हैं।
बाइडेन के उस घोषणा के अगले ही दिन न्यूयॉर्क टाइम्स ने अख़बार के दो वरिष्ठ संवाददाताओं के नाम से छपे आलेखों में बताया, "पेंटागन, अमेरिकी जासूसी एजेंसियां और पश्चिमी सहयोगी इस देश (अफ़ग़ानिस्तान) को फिर से आतंकवादी ठिकाना बनने से रोकने को लेकर इस क्षेत्र में कम से कम दिखायी देने वाले, लेकिन शक्तिशाली सैन्यबल की तैनाती की बारीक़ योजना बना रहे हैं...पेंटागन अपने सहयोगी दलों के साथ इस बात पर चर्चा कर रहा है कि नये सिरे से सैनिकों की तैनाती फिर कहां की जाये।"
इस रिपोर्ट में इस बात का भी ज़िक़्र है कि हालांकि नाटो सेना की औपचारिक रूप से वापसी तो हो जायेगी, लेकिन गठबंधन के एक सदस्य तुर्की के "सैनिकों की वापसी बाद में होगी, ताकि वह सी.आई.ए.को ख़ुफ़िया जानकारी इकट्ठा करने में मदद कर सके।” इसके अलावा, पेंटागन के लिए ठेके पर काम करने वाले कुछ (भाड़े के)लोग, जिनमें 6, 000 अमेरिकी कर्मचारी भी शामिल हैं, उन्हें भी फिर से तैयार किया जा सके।
न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट में इस बात का भी ख़ुलासा किया गया है कि “पेंटागन के पास वास्तव में उस सैन्य दल से तक़रीबन 1000 सैन्यदल ज़्यादा हैं, जिसकी संख्या को लेकर वह सार्वजनिक रूप से स्वीकार करता है।कुछ ख़ास ऑपरेशंस फ़ोर्स को जान-बूझकर इससे ‘छुपाकर’ इसलिए रखा गया है... ताकि उन कुछ कुलीन सेना रेंजरों को शामिल किया जा सके, जो पेंटागन और सी.आई.ए. दोनों के तहत काम करते हैं। 11 सितंबर की वापसी की समय सीमा के बाद पेंटागन इन अघोषित सैनिकों को अफ़ग़ानिस्तान की तरफ़ सरका सकता है।
जिस दिन यह रिपोर्ट सामने आयी थी, उसी दिन काबुल से बोलते हुए राज्य सचिव-एंटनी ब्लिंकेन ने अफ़ग़ान सरकार के अधिकारियों के साथ बातचीत के बाद मीडिया से इस बात की पुष्टि की कि “हमारे सैनिकों की घर वापसी के बाद भी अफ़ग़ानिस्तान के साथ हमारी साझेदारी जारी रहेगी। हमारी सुरक्षा साझेदारी चलती रहेगी। अफ़ग़ान सुरक्षा बलों के लिए उस प्रतिबद्धता को लेकर (वाशिंगटन में) दोनों ही पार्टियों की तरफ़ से मज़बूत समर्थन हासिल है।”
ब्लिंकेन ने भविष्य में अफ़ग़ानिस्तान में सीआईए की उस मौजूदगी के स्तर के मामले पर कुछ भी नहीं कहा, जो इस वापसी का नहीं दिखायी पड़ने वाला हिस्सा है। लेकिन, मास्को उस पहेली को तब हल करता हुआ दिखा, जब रूसी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता मारिया ज़खारोवा ने 17 अप्रैल को आरोप लगाते हुए कहा, "इस बात की लगातार रिपोर्टें आती रही हैं कि अमेरिका ख़ुद अफ़ग़ानिस्तान में आईएसआईएस सहित आतंकवादी समूहों को समर्थन दे रहा है, और भले ही अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका अपने सैनिकों को वापस बुला ले, लेकिन वाशिंगटन की योजना अफ़ग़ानिस्तान के इस्लामिक गणराज्य में अपनी ख़ुफ़िया सेवा को बनाये रखने की है।"
ज़खारोवा ने कहा, “ये हालात न सिर्फ़ रूस, बल्कि इस क्षेत्र के अन्य देशों के लिए भी गंभीर चिंता को जन्म दे रहे हैं। हम अमेरिकी पक्ष से स्पष्टीकरण पाने को लेकर उत्सुक हैं।” दरअसल, ऐसा पहली बार नहीं है जब रूस ने मध्य एशियाई क्षेत्र को अस्थिर करने के लिए अमेरिकी ख़ुफ़िया और आईएसआईएस के बीच सांठगांठ का आरोप लगाया हो।
असल में 19 अप्रैल को रूस ने सीरिया के पल्मायरा के पास स्थित एक सुदूर इलाक़े में आतंकवादियों के शिविरों पर एक बड़ा हवाई हमला किया था, जिसमें 200 आतंकवादी मारे गये थे। रूसी बयान में आरोप लगाया गया है कि आतंकवादियों को बग़दाद-दमिश्क राजमार्ग से सटे दक्षिण-पूर्व सीरिया के सीमावर्ती क्षेत्र में अमेरिका-नियंत्रित अल-तन्फ़ क्षेत्र में प्रशिक्षित किया जा रहा है।
इससे पहले, जनवरी में शंघाई सहयोग संगठन के अधिकारियों को सीरिया और इराक़ से अफ़ग़ानिस्तान में स्थानांतरित किये जा रहे आईएसआईएस लड़ाकों की "बढ़ती" संख्या पर चिंता व्यक्त करते हुए उद्धृत किया गया था।
यह कहना काफ़ी होगा कि भले ही अमेरिका और नाटो अफ़ग़ानिस्तान से अपनी सेना को औपचारिक रूप से वापसी की तैयारी कर रहे हों, लेकिन पेंटागन और सीआईए इस देश में अपने भविष्य के अभियानों, ख़ासकर अफ़ग़ान सुरक्षा बलों की सहायता करने को लेकर बारीक़ी से हिसाब-किताब लगा रहे हैं, हालांकि इसके पीछे वाशिंगटन का असली मक़सद उस बड़े क्षेत्रीय हितों की तलाश है, जो इस समय ख़ास तौर पर रूस और चीन के नियंत्रण के पक्ष में झुका हुआ है। अफ़ग़ान सरकार का ढांचा ध्वस्त हो रहा है और इससे अमेरिकी विशेष बल और सीआईए के गुर्गों को उन तमाम हरक़तों को अपनी इच्छानुसार अंजाम देने की आज़ादी मिल जायेगी, जिसे वे करना चाहते हैं।
दिलचस्प बात यह है कि काबुल से लौटने के बाद ब्लिंकेन ने मंगलवार को काबुल की व्यवस्था के सिलसिले में "अफ़ग़ान में निवेश करने और वहां के लोगों की सहायता करने को लेकर अपनी प्रतिबद्धता के हिस्से के तौर पर" असैन्य नागरिक सहायता" के लिए 300 मिलियन डॉलर की घोषणा की।" जिस मोड़ पर यह मामला आ पहुंचा है, यह तो हास्यस्पद लगता है। हाल ही में वाशिंगटन पोस्ट में जो रिपोर्ट छपी है, उसके मुताबिक़, "जब अफ़ग़ानिस्तान में शांति को लेकर कठिन संघर्ष चल रहा हो, उस समय इस तरह की कोशिश काबुल के राजनीतिक नेतृत्व को तोड़ रही है और यू.एस. समर्थित सरकार को कमज़ोर कर रही है।" सवाल है कि क्या ब्लिंकेन को काबुल की स्थिति को लेकर इतना भी पता नहीं है ? दरअसल, यह तो अफ़ग़ान सुरक्षा प्रतिष्ठान में सत्ता के दलालों को वाशिंगटन का उपहार प्रतीत होता है।
लब्बोलुआब यही है कि सीआईए अफ़ग़ानिस्तान का इस्तेमाल रूस, ईरान और चीन को अस्थिर करने वाले एक मंच के रूप में करने के अपने ब्लूप्रिंट के साथ आगे बढ़ रहा है। दूसरी ओर, 24 अप्रैल से 4 मई तक इस्तांबुल में उच्च-स्तरीय सम्मेलन के स्थगित होने का मतलब है कि शांति प्रक्रिया पटरी से उतर गयी है और अमेरिकी सेना की वापसी के लिए दोहा समझौता की 1 मई की समय सीमा समाप्त हो गयी है। अगर इसी बात को अलग तरीक़े से कहा जाय, तो वाशिंगटन ने अपना लक्ष्य बदल लिया है और इस सौदेबाज़ी में अशरफ़ ग़नी शासन को एक नया जीवन दान भी दे दिया है।
शायद, भारत, अमेरिका का एकमात्र ऐसा दोस्त है, जो इस क्षेत्र में आज वाशिंगटन का सहारा है। ब्लिंकेन ने सोमवार को विदेश मंत्री एस.जयशंकर को "क्षेत्रीय सुरक्षा मुद्दों पर अमेरिका-भारत सम्बन्ध और सहयोग के महत्व की फिर से पुष्टि करने को लेकर फ़ोन किया।" व्हाइट हाउस के बयान में इस बात का दावा किया गया है कि दोनों मंत्री अफ़ग़ानिस्तान की स्थिति पर "एक दूसरे से क़रीब आने और लगातार समन्वय" को लेकर सहमति जतायी है।
दरअसल, मंगलवार को हुई वाशिंगटन स्थित हाउस आर्म्ड सर्विसेज कमेटी में एक सुनवाई में यूएस सेंट्रल कमांड के कमांडर-जनरल केनेथ मैकेंजी जूनियर ने कहा कि अफ़ग़ानिस्तान में भविष्य के अभियान के संचालन के लिए यूएस को "सबसे पहले भारी ख़ुफ़िया सहायता की ज़रूरत होगी और अमेरिकी राजनयिक इस क्षेत्र में ख़ुफ़िया आधार बनाने के लिए अब "नये ठिकाने की तलाश" में लगे हुए हैं।
निश्चित रूप से इस लिहाज़ से पाकिस्तान उन "नये ठिकानों" में तो नहीं हो सकता है। इस जटिल पृष्ठभूमि को लेकर पाकिस्तानी विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ईरानी नेताओं के साथ वार्ता के लिए बुधवार को तेहरान पहुंचे। तेहरान से प्रकाशित होने वाली प्रेस रिपोर्टों में पाकिस्तान के साथ ईरान के सहयोग की इच्छा की बात कही गयी है। लेकिन, यह कोई छुपी हुई बात तो है नहीं कि अफ़ग़ानिस्तान को लेकर दोनों देशों के नज़रिये, हित और प्राथमिकताएं अलग-अलग हैं।
यह कहना कि आज के उभर आये मौजूदा हालात में दोनों देश अपने-अपने हितों को उस दायरे में मिलते हुए महसूस कर सकते हैं, जिस दायरे में अफ़ग़ान शांति प्रक्रिया पर अस्थायी रोक हो सकती है, दोहा संधि को ठंडे बस्ते में है और तालिबान नाराज़ है, और अमेरिका अपने भविष्य के विकल्पों के अनुकूल नीतियों को अंजाम देने में लगा हुआ है। तेहरान और इस्लामाबाद जिस हद तक अपने नज़रिये को सीमित रखेंगे और तालमेल बिठायेंगे, इससे निस्संदेह भविष्य के घटनाक्रमों पर असर पड़ेगा। ज़ाहिर है, मॉस्को और बीजिंग को भी ऐसा ही कुछ अंदाज़ा होगा।
जिस तरह की स्थिति आज है, उसमें अफ़ग़ानिस्तान में जारी अस्थिरता और शांति प्रक्रिया का पटरी से उतरना वाशिंगटन के हक़ में इस तरह से हो सकता है कि वह अपने हिसाब से चीज़ों को तय करे और इस क्षेत्र में नये सिरे से खेल को शुरू करने के लिए शतरंज पर अपने प्यादे और नुमाइंदे को फिर से सजाये। काबुल में एक समावेशी अंतरिम सरकार की संभावना हाल फिलहाल में टलती हुई दिख रही है। निश्चित रूप से, पाकिस्तान पर तालिबान पर लगाम कसने का दबाव बढ़ता जा रहा है।
क्या यह महज़ संयोग हो सकता है कि आतंकवादियों ने क्वेटा में एक सुनियोजित, पेशेवर तरीक़े से किये गये देश की आंतरिक स्थिति को हिलाकर रख देने वाले हमले के लिए इसी पल को चुना है ? आख़िर, इससे किसे फ़ायदा पहुंचेगा ? इस सवाल का कोई आसान जवाब तो नहीं हैं। मगर, इस इस तरह की घटनाओं का पूर्वाभास बहुत ही स्वाभाविक है।
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