राइट ऑफ़ और क़र्ज़ माफ़ी: तकनीकी शब्दावली में मत उलझाइए, नीति और नीयत बताइए

बैंकों द्वारा तकरीबन 68 हजार करोड़ रुपये के क़र्ज़ का राइट ऑफ कर दिया गया है। इसके बाद राइट ऑफ़ और लोन वेवर की बहस लम्बी खिंच चुकी है तो थोड़ा इसे समझने की कोशिश करते हैं।
क़र्ज़ का राइट ऑफ़
राइट ऑफ़ एकाउंटिंग की एक प्रक्रिया है। एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें बैंक द्वारा उन क़र्ज़ों को बट्टे खाते में डाल दिया जाता है, जिनपर बैंक को लगता है कि इनकी वसूली मुश्किल है। चूँकि किसी को दिया हुआ क़र्ज़ बैंक की एसेट्स यानी सम्पति होती है, इसलिए बैलेंस शीट के एसेट्स साइड से न वसूल किये जाने वाले क़र्ज़ के बहार निकल जाने पर बैंक की स्थिति साफ़-सुथरी दिखनी लगती है। सम्पति कम दिखने की वजह से बैंक को कम आयकर का भुगतान करना पड़ता है।
बैंक के कारोबार में यह एक नियमित प्रक्रिया है। लेकिन इसका यह मतलब यह नहीं है कि बैंक अब राइट आफ वाले क़र्ज़ की वसूली नहीं करेगा। राइट ऑफ किए गए क़र्ज़ पर के क़र्ज़दार पर मुकदमा चलाया जाता है। दंड दिया जाता है। ऐसे क़र्ज़ की आगे भी वसूली की कोशिश की जाती है। यानी तकनीकी तौर पर कहा जाए तो राइट ऑफ़ कर देना क़र्ज़ माफ़ी नहीं है।
लोन वेवर यानी क़र्ज़ माफ़ी में क्या होता है?
क़र्ज़ माफ़ी में बैंक पूरी तरह से क़र्ज़ वसूली को निरस्त कर देते हैं और उसे बकाया से हटा देते हैं। इसकी बाद में किसी भी तरह से वसूली नहीं हो सकती। आमतौर पर किसान क़र्ज़ के मामले में ऐसी क़र्ज़ माफ़ी देखी जाती है। वह भी तब जब किसान ऐसे हालात से गुजर रहे हैं, जिसपर उनका नियंत्रण नहीं हो। जैसे प्राकृतिक आपदा के समय। लेकिन आप यह भी पूछ सकते हैं कि हर साल किसानों के नाम पर क़र्ज़ माफ़ी की बात तब क्यों उठायी जाती है? वह इसलिए क्योंकि किसान आंकड़ों और तथ्यों के साथ यह सत्यापित करते हैं कि बाजार के तौर तरीके उनके साथ न्याय नहीं कर हैं और उन्हें अपनी उपज की सही कीमत नहीं मिल रही है। यह ऐसी परिस्थिति है, जिसपर उनका नियंत्रण नहीं है। इसलिए उनकी क़र्ज़ माफ़ी कर दी जाए।
ऐसे में कभी-कभार लगता है की सबकुछ सोच पर निर्भर करता है। सरकारें कंपनियों को पैसा देती हैं तो ‘इन्सेंटिव फॉर ग्रोथ’ कहती हैं और किसानों को पैसा देती हैं तो ‘सब्सिडी’ कहती हैं। सब्सिडी एक तरह की मदद समझी जाती है लेकिन कंपनियों को दिया गया पैसा एक तरह से विकास का कारोबार समझा जाता है। अगर नीति निर्माताओं के सोचने का यही तरीका है तो क्यों न ऐसा नियम बना दिया जाए जहां कंपनियां क़र्ज़ लेती रही बैंक क़र्ज़ देते रहे और राइट ऑफ होता रहे।
चलिए राइट ऑफ़ और क़र्ज़ माफ़ी की बेसिक जानकरी मिलने के बाद आगे बढ़ते हैं।
कृषि अर्थशास्त्री देविंदर शर्मा डेक्कन हेराल्ड में लिखते हैं कि “यह बात सही है कि क़र्ज़ माफ़ी और राइट ऑफ़ में अंतर होता है। लेकिन राइट ऑफ़ कर देने से क़र्ज़दार को ही फायदा होता है। बट्टे खाते में डाला हुआ पूरा पैसा रिकवर नहीं होता। सच तो यह है कि बट्टे खाते में डाले गए कुल पैसे का बहुत कम हिस्सा ही रिकवर हो पाता है। साल 2014 में कुल बट्टे खाते का तकरीबन 18 फीसदी रिकवर हो पाता था। साल 2016 में यह घटकर 10 फीसदी हो गया। साल 2014 से 2019 के बीच तकरीबन 7.7 लाख करोड़ रूपये राइट ऑफ किया गया। 2014 से लेकर जनवरी 2020 तक किसानों का केवल 2. 85 लाख कर्जा माफ़ी किया गया।''
देविंदर शर्मा आगे लिखते हैं, “जहां बैंकों के राइट ऑफ से कुछ चुनिंदा कारोबारियों - इनमें भी अधिकतर विलफुल डिफॉल्टर यानी ऐसे क़र्ज़धारी जो क़र्ज़ लौटा सकते हैं, को फायदा पहुँचता है, वहीं क़र्ज़ माफ़ी से बहुत बड़ी आबादी को फायदा पहुँचता है। जनवरी में महाराष्ट्र में नई सरकार आने के बाद केवल 50 हजार करोड़ के क़र्ज़ माफ़ी से छोटे और सीमांत तकरीबन 44 लाख किसनों को फायदा पंहुचने की सम्भावना बनी थी।”
साल 2014 - 2019 के बीच तकरीबन 7.7 लाख करोड़ रुपये राइट ऑफ़ किये गए हैं, इनमें से बहुत अधिक जब विलफुल डिफॉल्टर है और पहले के आंकड़े यह बताते हैं कि राइट ऑफ़ के बाद केवल 10 फीसदी के आसपास ही रिकवरी हो रही है तो इन्हें कॉरपोरेट डिफॉल्टर कहकर क्यों नहीं पुकारा जा रहा है। जैसे जब एक आम आदमी अपना क़र्ज़ नहीं चूका पाता है तो उसे डिफॉल्टर घोषित कर दिया जाता है। उस आदमी की साख खराब कर दी जाती है तो कॉरपोरेट के साथ ऐसा क्यों नहीं होता आख़िरकार यह जनता का पैसा है। जनता को यह जानने का हक़ है कि उसका पैसा कहाँ खर्च हो रहा है? कांग्रेस और भाजपा की आपसी बातचीत से ज्यादा जरूरी है कि भ्रम पैदा करने वाले सिस्टम को सुधारा जाए। ताकि व्यवस्था साफ़-सुथरी दिखे।
पिछले दस सालों से कम्पनी सेक्रेटरी का काम कर रहे अमृतेश शुक्ल कहते हैं कि एकाउंटिंग यानी लेखांकन पहले की तरह आसान काम नहीं है। बहुत जटिल काम है। बकायदे इसकी पढाई होती है। बी.कॉम से लेकर एम.कॉम तक की डिग्रियां मिलती है। चार्टेड एकाउंटेंट से लेकर चार्टेड फाइनेंसियल एनालिस्ट की महंगी पढाई और महंगी कमाई वाला कोर्स किया जाता है।
ऐसे में राइट ऑफ और लोन वेवर की बहस छेड़ दी जा रही है। जबकि बहस इस बात पर होनी चाहिए कि पढ़ाई करके सबकुछ जाने लेने के बावजूद एकाउंटिंग में ऐसा क्या तिकड़म किया जाता है कि कंपनियां बैंकों से पैसा लेकर डूब जाती है। या बैंक क़र्ज़ के तौर पर उन्हें पैसा देते हैं, जिनकी असली स्थिति किसी भी तरह के कारोबार करने की नहीं होती है। खातों से जुड़े मामलों में माहिर यह एक्सपर्ट सब जानते हैं। उन्हें पता होता है कि किसी कम्पनी की वित्तीय स्थिति क्या है? कंपनी का पैसा कहाँ से आ रहा है। मेहुल चौकसी और नीरव मोदी के एकाउंटेंट और बैंक की तरफ से तय किये ऑडिटर को पता होगा कि नीरव मोदी, मेहुल चौकसी का पैसा कहाँ से बन रहा है?
वह कैसे घोटाला कर रहे हैं? फिर भी वह बड़ी मात्रा में बैंकों से पैसे लेते रहे? यह तभी हो सकता है, जब एकाउंटिंग के पूरे सिस्टम में घुन लग चुके इंसान काम कर रहे हों। एकाउंटिंग एक तरह का मैनेजमेंट है। सही आदमी के हाथ में रहेगा तो सही तरह से काम करेगा और ग़लत आदमी के हाथ में जाएगा तो ग़लत तरह से काम करेगा। राइट ऑफ तो बहुत छोटी बात है एकाउंटिंग का झोल तो ऐसा है कि कारोबार बेकार हो गया हो फिर भी कारोबार चल रहा है, ऐसा बताया जा सकता है। इसे एकाउंटिंग वाले आसानी से पकड़ लेते हैं लेकिन वही बात है खूब कमाया जाए, खूब लूटा जाए।
कुल मिलाकर कहा जाए तो राइट ऑफ और क़र्ज़ माफ़ी जैसे तकनीकी बातों पर बहस फ़िज़ूल की है। तकनीक तभी सही से काम कर सकती है जब सिस्टम ठीक हो। और असल मामला नीति और नीयत का है, कि आप किसे क्यों या कैसे राहत या फ़ायदा देना चाहते हैं।
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