भगवा 'गौशाला' में शामिल हुए दूसरे दल के नेताओं की वजह से बंगाल की राजनीति पर क्या असर पड़ेगा?

विधानसभा चुनाव जहाँ एक तरफ करीब छह महीने की दूरी पर हैं, वहीँ पश्चिम बंगाल की राजनीति मुख्यतया नंदीग्राम विधायक और पुरबा मेदिनीपुर जिले के महाबली सुवेंदु अधिकारी के सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) से विद्रोह के कारण हलचलों के बीच में है।
इस बारे में कोई संदेह नहीं है कि सुवेंदु के भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह की शनिवार की मेदिनीपुर सभा में अपने कुछ समर्थकों के साथ दल-बदल ने पार्टी की स्थिति को मजबूती प्रदान करने का काम किया है। लेकिन इससे पहले कि हम उभरती तस्वीर का विश्लेषण करें, आइये एक नजर डालते हैं कि वास्तव में क्या घटित हुआ है।
सुवेंदु का यह झटका शायद ही किसी तरह के आश्चर्य का विषय रहा हो। उनकी यह अस्थिरता प्रकट रूप से पार्टी प्रमुख ममता बनर्जी के भतीजे और डायमंड हार्बर के सांसद अभिषेक बनर्जी को पिछले कुछ महीनों से उनके प्रत्यक्ष उत्तराधिकारी के तौर पर बढ़ावा दिए जाने के कारण जग-जाहिर है। उनके द्वारा तीन मंत्री पद छोड़ने के एक हफ्ते के भीतर ही 1 दिसंबर को वरिष्ठ नेताओं के साथ शांति वार्ता हुई थी। यहाँ तक कि ममता के साथ टेलीफोन पर बातचीत भी हुई थी। लेकिन तब तक सब गड़बड़ हो चुका था, और यह स्पष्ट हो गया था कि सुवेंदु भाजपा में जाने की तैयारी कर चुके थे।
इससे पहले कि हम सुवेंदु की ताकत का आकलन करें, हमें उन लोगों पर एक निगाह डालने की जरूरत है जो उन्हें भगवा “गौशाला” और दल-बदल कराने की गतिशीलता में शामिल हैं। पश्चिम बर्धमान जिले में पंडाबेश्वर विधायक और आसनसोल नगर निगम (एएमसी) के मेयर/नगर प्रशासक जितेन्द्र तिवारी ने ममता बनर्जी के साथ बातचीत करने के लिए निर्धारित दिन से एक दिन पहले ही बृहस्पतिवार के दिन पार्टी सदस्यता से इस्तीफ़ा दे दिया था। सुवेंदु की कारगुजारियों में किसी प्रकार की अस्पष्टता नहीं थी, लेकिन तिवारी के साथ ऐसा नहीं था। उन्होंने पहले आसनसोल के मेयर के तौर पर अपना पद त्यागा, लेकिन पार्टी में बने रहे और सदन की अपनी सदस्यता बरकरार रखी। ऐसे में सवाल यह उठता है कि ममता के साथ निर्धारित बैठक को लेकर तिवारी ने अपनी विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफ़ा क्यों नहीं दिया था। गुरुवार को उन्होंने दावा किया कि चूँकि उस निर्वाचन क्षेत्र के लोगों ने उन्हें चुना था, इसलिए किसी निर्णय पर पहुँचने से पहले उन्हें उनसे सलाह-मशविरा करना होगा। वह सब बकवास था। भारतीय संविधान की दसवीं अनुसूची के तहत मौजूद दलबदल विरोधी कानून के अनुसार यदि वे पार्टी छोड़ देते तो उनकी सदस्यता स्वतः रद्द हो जाने वाली थी। वास्तव में तिवारी के “दलबदल” को लेकर भाजपा में विरोध शुक्रवार को नजर आया, जिसके परिणामस्वरूप उन्होंने तुरत-फुरत अपने फैसले से पीछे हटते हुए अपनी मूल पार्टी में वापस लौट आये।
भाजपा और कुछ बागियों का दावा है कि तीन से पाँच सांसद और 20 की संख्या में विधायक दलबदल करने जा रहे हैं। हालाँकि शनिवार को केवल एक सांसद और पांच विधायकों ने असत्यापित संख्या में स्थानीय निकाय के प्रतिनिधियों के साथ सुवेंदु का अनुसरण किया था। बर्धमान पुरबा सांसद सुनील मंडल भाजपा में शामिल हो चुके हैं। जिन विधायकों ने पाला बदला वे थे सिलभद्र दत्ता (बैरकपुर, नार्थ 24 परगना); बाणश्री मैती (कोंताई नार्थ, पुरबा मेदिनीपुर); दीपाली बिस्वास (गजोल, मालदा); सैकत पांजा (मोंटेश्वर, पुरबा बर्धमान); और सुकरा मुंडा (नागराकाटा, जलपाईगुड़ी)। विभिन्न समाचार स्रोतों ने दावा किया था कि बिस्वजीत कुंडू (कलना, पुरबा बर्धमान) और श्यामा प्रसाद मुखर्जी (बिश्नुपुर, बांकुड़ा) ने भी दल-बदल किया है, लेकिन ये खबरें असत्यापित हैं। तीन वामपंथी एवं कांग्रेस विधायकों ने भी पाला बदला है, जिसमें दो पुरबा मेदनीपुर से और एक पुरुलिया से हैं।
सवाल यह है कि सुवेंदु के पार्टी छोड़ने से कितना व्यापक प्रभाव पड़ने जा रहा है। मेदनीपुर क्षेत्र में अब सबसे महत्वपूर्ण निर्धारक, कोंताई सांसद और पुरबा मेदनीपुर ईकाई के पार्टी प्रमुख सुवेंदु के पिता सिसिर अधिकारी बने हुए हैं, कि आखिर वे किस पाले में जाते हैं। यह देखते हुए कि कई स्पष्ट वजहों से ऐसा प्रतीत होता है कि वे सुवेंदु की तरह महत्वाकांक्षा पालकर नहीं बैठे हैं, इसलिए उनके पास दल-बदल करने कोई कोई भारी राजनीतिक मज़बूरी नहीं है। अभी तक उन्होंने कहा है कि वे मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ हैं, लेकिन पारिवारिक दबाओं के आगे अभी उनका इम्तिहान होना बाकी है।
सुवेंदु के दो भाई हैं: दिब्येंदु जो कि तामलुक से तृणमूल सांसद हैं और सौमेंदु कोंताई नगरपालिका के चेयरमैन पद पर रहते हुए दोनों ही पुरबा मेदिनीपुर में हैं। इस बिंदु पर उन दोनों ने ही कोई दृढ प्रतिबद्धता नहीं दिखाई है। जहाँ तक सिसिर का सवाल है वे निश्चित तौर पर किसी भी फैसले से पहले राजनीतिक अवसर और पारिवारिक प्रतिबद्धता के बीच के संतुलन को तौलेंगे।
यह कहा जा रहा है कि सुवेंदु का प्रभाव द्विभाजित मेदिनीपुर जिले से आगे मुर्शिदाबाद और मालदा तक फैला हुआ है और वे दोनों बर्धमान जिलों में असंतुष्ट नेताओं के संपर्क में बने हुए हैं। हालाँकि मेदिनीपुर के बाहर सुवेंदु का कितना प्रभाव है यह अभी काफी हद तक अस्पष्ट है। “प्रभाव” वाले मुद्दे पर हम कुछ देर में आते हैं।
सबसे पहले आइये पुरबा मेदिनीपुर पर नजर डालते हैं। यहाँ पर कुल 16 विधायक हैं, जिनमें से 13 टीएमसी के टिकट पर चुने गये थे। एक की मृत्यु हो चुकी है। विभिन्न रिपोर्टों के अनुसार मेदिनीपुर शहर में आयोजित ममता की एक रैली में करीब 3,00,000 से अधिक की संख्या में लोगों की शिरकत हुई थी और 12 में से आठ विधायक मौजूद थे। टीएमसी नेताओं का कहना था कि इनमें से दो बीमार चल रहे थे और उन्होंने पार्टी को पहले से ही सूचित कर रखा था। कुलमिलाकर दो विधायक बिना बताये गैर-हाजिर थे। अधिकारी परिवार से किसी भी सदस्य ने इसमें शिरकत नहीं की थी, हालाँकि सिसिर ने पैर के ऑपरेशन के बारे में पहले से ही सूचना भिजवा दी थी।
इस प्रकार यद्यपि टीएमसी के पास चुनावों में जाने से पहले कुछ महत्वपूर्ण पलायन होने के कारण चिंता का विषय बना हुआ है, जो कि पूरी तरह से सामयिक है। लेकिन जैसा कि तिवारी के मामले में प्रदर्शित हुआ है न तो बागियों और ना ही भाजपा को ही निर्विवाद रुप से इससे कोई विशेष फायदा होने जा रहा है। इसके उलट ममता और अन्य टीएमसी नेताओं का कहना है कि इन पलायनों का स्वागत है: भविष्य में संभावित तोड़फोड़ से अच्छा है कि यह पता जान लिया जाए कि कौन कहाँ खड़ा है।
सुवेंदु का कद भले ही कुछ भी हो, यदि वे जल्द ही भारी संख्या में विधायकों/सांसदों या पदानुक्रम में मौजूद अन्य परिणाम दे सकने वाले बाकी के नेताओं को शामिल करा पाने में असफल रहते हैं, जितना कि वे अभी कर पाने में सफल रहे हैं तो, भाजपा में वे खुद को बाहर की भीड़ के हिस्से के तौर पर ही पायेंगे। भाजपा के “पुराने समय के लोग” और टीएमसी से आयातित के बीच के असहज रिश्तों को देखते हुए घुसपैठियों की स्थिति शोचनीय बनी हुई है। भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष मुकुल रॉय की पार्टी के भीतर की स्थिति एक चेताने वाली कथा के तौर पर काम कर रही है।
जब रॉय ने नवंबर 2017 में भाजपा का दामन थामा था तो दोनों ही पक्षों को काफी उम्मीदें थीं। पार्टी ने सोचा कि उनके साथ टीएमसी से एक विशाल खेमा निकलकर आने वाला है। लेकिन इसे अमली जामा नहीं पहनाया जा सका। इसके उलट, रॉय जो कि एक समय टीएमसी में नंबर दो के नेता हुआ करते थे और उनके साथ अभेद्य संगठक की प्रतिष्ठा जुडी हुई थी, को आज पार्टी में किनारे लगा दिया गया है क्योंकि राज्य अध्यक्ष दिलीप घोष के बारे में मशहूर है कि वे नवागुन्तकों को तवज्जो देने के पक्ष में नहीं रहे हैं। अब भले ही रॉय को पद दिया गया है, लेकिन वे पश्चिम बंगाल में अब एक चुकी हुई ताकत बनकर रह गये हैं। अर्जुन सिंह जिन्होंने 2019 के चुनावों से ठीक पहले पाला बदला था और बैरकपुर संसदीय सीट पर भी जीत हासिल की थी, वे भी अपनी पकड खो चुके हैं जो कि कभी उनका गढ़ हुआ करता था।
बंगाल में पार्टी के प्रति निष्ठा बेहद जुड़ी हुई चीज है, विशेषकर सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़े लोगों के लिए। यह शायद ही कभी दल-बदल के लिए किसी के लिए भी विशाल समूह को तैयार कर पाना सामान्य मामला रहा हो। कुछ अपवादों के साथ, इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि बंगाल में यह पार्टी ही है जो किसी राजनीतिक संगठन और लामबंदी के लिए मूल ईकाई के तौर पर बनी हुई है, बजाय कि किसी समुदाय के आधार के, भले ही जाति, भाषा, धर्म या क्षेत्र का आधार कुछ भी क्यों न हो। सामंती निष्ठा का यहाँ कोई मोल नहीं है जबकि व्यक्तिगत वफ़ादारी यहाँ पर बड़ा कारक नहीं है।
वहीँ दूसरी तरफ ममता अपने लोकलुभावन/कल्याणकारी रास्ते पर सफलतापूर्वक चल रही हैं। जिन योजनाओं को वे एक के बाद एक पेश करती जा रही हैं उससे लोगों के बीच में यह सन्देश जा रहा है कि वे उनके साथ खड़ी हैं। एक ऐसे दौर में जब अम्फान के कारण कोविड-19 महामारी काफी जटिल हो चुकी है, जिसने गहरे अभाव को पैदा किया है। जब बढ़ाचढ़ाकर भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना करते हुए और जमीन पर राहत पहुँचाने को लेकर गलत दिशा पर चलने के आरोप लग रहे हों, तो वे यह कह सकने की स्थिति में हैं कि वे अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रही हैं, जबकि भाजपा सिर्फ दोषारोपण में ही लगी हुई है। वे अच्छी मंशा के साथ कहती हैं कि न सिर्फ दिल्ली में भाजपा सरकार है लेकिन उसने सदी के एक बार के चक्रवात में बमुश्किल से कोई सहायता प्रदान की है, बल्कि इसने राज्य की वैध बकाया राशि भी रोक रखी है।
वे तार्किक तौर पर यह भी कह सकती हैं और कहा है कि जहाँ एक तरफ भाजपा विस्तार से हिसाब-किताब के बारे में पूछताछ करती रहती है, वहीँ इसके द्वारा पीएम के नागरिक सहायता एवं आपातकालीन राहत कोष को पूरी तरह से अपारदर्शी तौर पर चलाया जा रहा है। नागरिकों के बीच में इसको लेकर चिंता है कि क्या दिख रहा है और इसमें कीचड़ कोष जैसी दुर्गन्ध आ रही है।
जाहिरा तौर पर परिणामों के बारे में पूर्वानुमान करना जल्दबाजी होगी। बंगाल का वर्तमान राजनीतिक प्रवाह सरल परिभाषा को नकारता है। इसकी प्रवत्ति का पहला संकेत नगर निगम के चुनावों के साथ संभवतः मार्च में देखने को मिल सकता है। तब तक हम सब यही कर सकते हैं कि अपनी साँसों को थामकर रखें।
लेखक स्वतंत्र पत्रकार और शोधार्थी हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।
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