लंबे समय के बाद RBI द्वारा की गई रेपो रेट में बढ़ोतरी का क्या मतलब है?

रिज़र्व बैंक ऑफ़ इण्डिया अर्थव्यवस्था में पैसे के प्रवाह को लेकर हर दो महीने पर मॉनेटरी पॉलिसी कमिटी की बैठक करती है। मॉनेटरी पॉलिसी कमिटी की पिछली बैठक 6-7 अप्रैल को हुई थी। इस हिसाब से यह बैठक जून में होनी चाहिए थी। लेकिन यह बैठक जून में होने की बजाए 2-3 मई के दिन हुई। तकनीकी भाषा में कहे तो आपातकालीन बैठक हुई। इस आपतकालीन में बैठक में भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) ने रेपो रेट को 4% से बढ़ाकर 4.40% कर दिया है। रेपो रेट की 4 प्रतिशत की दर 22 मई 2020 तय हुई थी। तब से लेकर अब तक महंगाई की मार बढ़ती जा रही थी लेकिन आरबीआई ने रेपो रेट में बदलाव नहीं किया। अब जाकर रेपो रेट में बदलाव किया है।
आरबीआई गवर्नर शक्तिकांत दास ने कहा कि यह कदम बढ़ती महंगाई को काबू में करने लिए उठाया गय है। दुनिया में चल रही कई तरह की हलचलों की वजह से - खासकर यूक्रेन लड़ाई की वजह से अर्थव्यवस्था का जहाज डगमगा गया है। इसे नियंत्रित करने के लिए यह कदम उठाये गए हैं। इस मुद्दे पर आगे बात करने से पहले रेपो रेट के बारे में जान लेते हैं।
रेपो रेट में बढ़ोतरी का मतलब है कि अब बैंक पहले के मुकाबले क़र्ज़ पर 0.40 फीसदी अधिक ब्याज लेगी। रेपो रेट यानी नीतिगत दर वह दर होती है जिस पर RBI से बैंकों को क़र्ज़ मिलता है, जबकि रिवर्स रेपो रेट वह दर होती है जिस दर पर बैंकों को RBI के पास अपना पैसा रखने पर ब्याज मिलता है।
थोड़ा विस्तार और संक्षेप में कहें तो बुनयादी बात यह है कि रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया पैसे और बैंक की दुनिया को नियंत्रित करने को लेकर देश में ढेर सारे अहम काम करती है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण काम यह है कि मुद्रा यानी पैसे के प्रवाह को संतुलित करते रहना। ऐसा न हो कि पैसे का फैलाव बाजार में इतना ज्यादा हो जाए कि महंगाई आ जाए और ऐसा भी न हो कि पैसे का प्रवाह इतना कम हो कि मंदी आ जाए। पैसे के प्रवाह को कम करने के लिए रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया ब्याज दर बढाकर रखती है। बाजार में लोग और कारोबारी बैंकों से क़र्ज़ लेना कम कर देते हैं। अगर महंगाई की परेशानी से देश झूझ रहा है तो अमूमन ब्याज दर बढ़ाकर रखने की नीति अपनाई जाती है। ऐसा करने पर महंगाई की परेशानी बेलगाम नहीं होती। पैसे की खरीदने की क्षमता कम नहीं होती।
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आर्थिक जानकारों का कहना है कि रेपो दरों में 40 बेसिस पॉइन्ट की बढ़ोतरी मतलब है कि पहले के मुकाबले किसी भी तरह का क़र्ज़ लेना महंगा होगा। अब तक सरकार को तकरीबन 7 से 7.5 फीसदी की दर से क़र्ज़ मिल रहा था। बैंक आरबीआई से 4.40 फीसदी दर पर क़र्ज़ लेंगे। आगे बैंक इसमें अपना मार्जिन जोड़ेंगे। उसके बाद उपभोक्ता का क्रेडिट प्रोफाइल जोड़ेंगे। इसलिए कई लोगों के लिए क़र्ज़ की दर 10 फीसदी से ज्यादा जा सकती है। घर, वाहन या किसी भी तरह के सामान और सेवा पर मासिक किस्तों पर पहले से अधिक पैसा देना होगा। आम लोगों और छोटे उद्योगों पर क़र्ज़ का बोझ पड़ेगा।
यहाँ यह भी ध्यान देने वाली बात है कि केवल रेपो रेट नहीं बढ़ाया गया है बल्कि कैश रिज़र्व रेश्यो यानी CRR की दर में भी 50 बेसिस पॉइंट की बढ़ोतरी हुई है। यह दर बढ़कर 4.5 फीसदी कार दी गयी है। यह वह दर होती है जिसपर बैंको को अपने यहां नकद कोष रखना पड़ता है,जिसका इस्तेमाल वह अपने किसी भी तरह के कारोबार में नहीं कर सकते हैं। इस दर के बढ़ने से तकरीबन 87 हजार करोड़ रुपए की राशि नकद कोष के तौर पर बढ़ेगी। लेकिन साथ में यह भी होगा कि बैंकों को क़र्ज़ देने के लिए काम राशि उपलबध होगी। इसकी वजह से भी बैंक द्वारा दिए जाने वाले क़र्ज़ की दर में कुछ न कुछ बढोत्तरी होगी।
रेपो दर बढ़ने पर यह भी बात की जाती है कि इसकी वजह से बैंको में जमा की जाने वाली राशि पर अधिक ब्याज मिलेगा। इस पर जानकारों का कहना है कि हाल फिलहाल ही बैंको ने जमा पर ब्याज दर बढ़ाया है। इसलिए रेपो रेट की बढ़ोतरी का जमा दरों की लिहाज से ज्यादा फायदा नहीं होने वाला।
अर्थव्यवस्था की बेकार नीतियों से जब महंगाई बढ़ती है तो इसका यही सबसे बुरा परिणाम होता है कि महंगाई बढ़ने पर भी आम आदमी पर मार बढ़ती है और रिज़र्व बैंक ऑफ़ इण्डिया के जरिये महंगाई नियंत्रित करने पर भी आम आदमी को बोझ सहना पड़ता है। अब आप पूछेंगे कि अर्थव्यवस्था के लिए अपनाई गयी गलत नीतियों का मतलब क्या है? इस पर पत्रकार सोमेश झा की लंबी रिपोर्ट बताती है कि कैसे महंगाई बढ़ती जा रही थी लेकिन आरबीआई रेपो रेट नहीं बढ़ा रहा था? कम रेपो रेट रखकर पूंजीपतियों और सरकार को कम ब्याज दर पर क़र्ज़ मिलने का माहौल बना रहा था। कैसे रेपो रेट को लेकर खींचतान इतनी बड़ी कि आरबीआई के दो गवर्नर रघुराम राजन और उर्जित पटेल को इस्तीफ़ा देना पड़ा?
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