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विमर्श: पिछले 200 साल से अमेरिकी सम्राज़्यवाद की विदेश नीति रही है 'मुनरो डॉक्ट्रिन'

ऐप्सो, पटना ने चेग्वेरा की जयंती पर किया 'मुनरो डॉक्ट्रिन के दो सौ साल और अमेरिकी सम्राज़्यवाद' विषय पर बातचीत का आयोजन किया।
che guevara anniversary
चेग्वेरा की जयंती की जयंती पर पटना में ऐप्सो की गोष्ठी

 

पटना: अखिल भारतीय शांति व एकजुटता संगठन (ऐप्सो)  द्वारा  महान लैटिन क्रांतिकारी अर्नेस्टो चे ग्वेरा की 97वीं वर्षगाँठ के अवसर पर मैत्री-शांति भवन में एक विमर्श का आयोजन किया। विमर्श का विषय था ' मुनरो डॉकट्रिन (Monroe Doctrine) के दो सौ साल और अमेरिकी सम्राज़्यवाद'। 

इस मौके पर पटना शहर के बुद्धिजीवी, साहित्यकार, रंगकर्मी, सामाजिक कार्यकर्ता सहित विभिन्न जन संगठनों के प्रतिनिधि मौजूद थे। 

मुनरो डॉक्ट्रिन (Monroe Doctrine) 1823 से संयुक्त राज्य अमेरिका की एक ऐतिहासिक विदेश नीति है। इसका मुख्य सार था कि यूरोपीय शक्तियां अमेरिका के महाद्वीपों (उत्तर और दक्षिण अमेरिका) में किसी भी तरह के उपनिवेशीकरण या हस्तक्षेप से दूर रहें। यदि वे ऐसा करती हैं, तो अमेरिका इसे अपने लिए खतरा मानेगा।

शुरू में इसे एक नैतिक चेतावनी के तौर पर देखा गया, लेकिन 19वीं और 20वीं सदी में अमेरिका ने इसे अपने प्रभाव क्षेत्र को बढ़ाने के औजार की तरह इस्तेमाल किया। बाद में यह अमेरिकी साम्राज्यवाद और हस्तक्षेप नीति (interventionism) का आधार भी बना — जैसे लैटिन अमेरिकी देशों में हस्तक्षेप।

कुल मिलाकर मुनरो डॉक्ट्रिन अमेरिका की "हस्तक्षेप न करने" की नीति से शुरू हुई, लेकिन आगे चलकर वह "जहां चाहे हस्तक्षेप करने" की नीति में बदल गई।

विषय प्रवेश करते हुए जयप्रकाश ने बताया " हमलोग हर वर्ष इस दिन महान लैटिन अमेरिकी क्रांतिकारी अर्नेस्टो चेग्वेरा को याद करते हैं। उनके बहाने दुनिया की राजनीति पर भी बातें होती है। इस बार मुनरो डॉक्ट्रिन के दो सौ साल पर बातचीत कर रह हैं। दो सौ साल पुरानी नीति को अमेरिका आज भी लागू लागू करने की कोशिश की जा रही है। लैटिन अमेरिका में अमरीकी साम्राज्यवाद ने इतने हस्तक्षेप किये हैं जिसकी दूसरी मिसाल नहीं मिलती। " 

इसी बात को आगे बढ़ाते हुए रौशन प्रकाश ने कहा "अमरीकी सम्राज़्यवाद को आखिर मुनरो डॉकट्रिन की जरूरत क्यों आना पड़ी? उस समय अमेरिका के साथ ग्रेट ब्रिटेन भी था। लेकिन जब अमेरिका जब सैन्य रूप से ताकतवर  हो जाता है तब धीरे-धीरे अपनी धौंस दिखाना शुरू करता है। 1902 में अमेरिकी राष्ट्रपति रुजवेल्ट एक नई बात जोड़ते हैं जिसे ‘रुजवेल्ट कोरोलरी' भी कहा जा जाता है जिसके अनुसार अमेरिकी साम्राज़्यवाद को पूरे लैटिन अमेरिका को हस्तक्षेप करने संबंधी अधिकार यहां तक कि आर्थिक व सैन्य रूप से भी दखल देने की बात मुनरो डॉक्ट्रिन के तहत की जाती है। बाद में उपनिवेशवाद को फैलाने के लिए पैक्स अमेरिकाना की अवधारणा लाई जाती है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका सोवियत संघ से संघर्ष  की बात शुरू करता है। क्यूबा में बे ऑफ पिग्स जैसा गंभीर संकट होता है। इसके बाद धीरे धीरे साम्यवादी क्रांति की शुरुआत होती है। इक्कसवीं सदी में जैसे-जैसे चीन का प्रभाव बढ़ता चला गया अब उसके प्रभाव को काउंटर करने की बात की जाने लगी है। अब अमेरिका का व्यापार घाटा बढ़ता जा रहा है। विचारधारा के आधार पर चुनौती दी जाती तो वह अधिक टिकाऊ होता है।  

हमने देखा है क्यूबा और वियतनाम जैसे देशों ने जब अमेरिका को विचारधारा के स्तर पर चुनौती दी तो वह अधिक टिकाऊ साबित हुई और जो धर्म या साम्प्रदायिक आधार पर अमेरिका से लड़ने की बात करते हैं वे अंततः अमेरिका के साथ ही हो जाते हैं। "

एमीटी यूनिवर्सिटी में लॉ विभाग के हेड प्रो राजीव रंजन ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा " चेग्वेरा की 'मोटर साइकिल डायरी' पढ़ने से पता चलता है कि अमेरिकी साम्राज़्यवाद ने कैसा दुष्प्रभाव लैटिन अमेरिका पर डाला था। पिछले दो सौ साल से जो विचारधारा अमेरिकी साम्राजयवाद को निर्देशित कर रहा है वह है 'मुनरो डॉक्ट्रिन'। इसे ही वह दूसरे ढंग से अमेरिका 'मानिफेस्ट डेस्टिनी'  के रूप में प्रचारित करता रहा है । यही उसकी विदेश नीति रही है। जब विश्व युद्ध लड़ा जा रहा था अमरिका कभी नहीं चाह रहा था कि उसे कोई नुकसान हो। पूरे विश्व को मालिकाना हक़ से देखने की आदत थी। मैं अमेरिकन महादेश का नक्शा देख रहा था तो पाया कि हर छोटे-छोटे देश पर अमेरिका का कब्जा रहा है। इक्कसवीं शताब्दी में हम इस विचारधारा का प्रभाव अफगानिस्तान, लीबिया, सीरिया सहित कई देशों में स्पष्ट रूप से देख सकते हैं।" 

साहित्य अकादमी से सम्मानित सुप्रसिद्ध कवि अरुण कमल ने  अपने संबोधन में कहा " दुनिया में जहाँ कहीं भी लड़ाई हो रही है वहां एक पक्ष अमेरिका जरूर है। अमेरिका में पूंजीवाद अपने सबसे विकसित रूप में है। आप भारत को देखें जितनी हत्याएं यहां पिछले कुछ दिनों  से हो रही हैं उतनी कहीं भी नहीं है। आज हम ऐसी जगह पहुँच गए हैं कि अमेरिका ताकतवर हो गया है। जब सोवियत संघ था तब उसे रोका गया। अब जब सोवियत संघ नहीं है तो यूक्रेन क्यों  फिर नाटो में जा रहा है? यह सवाल पूछा जाना चाहिए अभी इजरायल में लेखकों कलाकारों द्वारा सड़क पर उतर कर विरोध किया जा रहा है। सब जगह संघर्षशील लोग का लड़ रहे है।  अपने देश में यहाँ की कम्युनिस्ट पार्टियों ने कई ऐसे  जरूरी और साहसिक बयान दिए हैं यह सकारात्मक बात है। चेग्वेरा भारत भी आये थे।  ऐसे ही वेनेजुएला के राष्ट्रपति रहे हयुगो शावेज भी आये थे। चे ग्वेरा आज होते तो 97 साल के होते लेकिन आज हम उन्हें युवा के रूप में याद करते हैं। जैसे हम भगत सिंह को युवा के रूप में ही याद करते हैं। शान्ति तभी होगी जब हम एकजुट हों और जान देने के लिए भी तैयार रहें। "

ऐप्सो के राज्य महासचिव अनीश अंकुर ने बताया " यूक्रेन और रूस युद्ध शुरू होने के ठीक पहले अमेरिकी राष्ट्रपति कह रहे थे कि हम रूस को इसकी इजाजत नहीं देंगे की वह यूक्रेन में अपने 'स्फ़ीयर ऑफ इन्फीलुएन्स' बढ़ाये तब अमेरिकी  संसद में  बर्नी सैंडर्स  ने कहा था कि आज आप जो बात रूस के बारे में कह रहे हैं लेकिन आप तो पिछले दो सौ साल से पुरी दुनिया में मुनरो डॉक्ट्रिन के नाम पर वही काम तो कर रहे हैं। अपने स्फ़ीयर ऑफ इन्फीलुएन्स को पूरी दुनिया में बढ़ा रहे हैं। इससे बड़ा पाखंड और क्या हो सकता है? 

दरअसल मुनरो डॉक्ट्रिन 1804 में हैती में हुई उपनिवेशवाद विरोधीक्रांति तथा 1821 में लैटिन अमेरिकी क्रांतिकारी सिमोन बोलिवार के नेतृत्व में काराबोडो में हुई उत्साहवर्द्धक जीत से निपटने की प्रतिक्रिया थी। उस वक्त भले अमेरिका कहता था कि मुनरो डॉक्ट्रिन नये आजाद हो रहे  देशों में  यूरोपीय प्रभाव,  ख़ासकर स्पेनिश, को फिर नहीं  फैलने देंगे। तब अमेरिकी सम्राज़्यवाद  लैटिन अमेरिका को अपना बैकयार्ड यानी पिछवाड़ा समझता रहा है मानो वह उसकी जागीर हो। इस कारण अमेरिकी साम्राज्यवाद ने लैटिन अमेरिका में लोकतात्रिक ढंग से चुनी उन सरकारों को तख्तापलट के जरिये गिराया, हत्यायें, लोगों को गायब किया क्योंकि ऐसे देशों को अमेरिकी हितों के प्रतिकूल समझा जाता था और मुनरो डॉक्ट्रिन के तहत उनको जैसे दूसरे देश के अंदरूनी मामलों में दखलन्दाजी का अधिकार था। 

1954 में गवाटेमाला में जैकब अरबेन्ज की चुनी सरकार से लेकर 1973 में चिली में सलवाडोर आयेंदे की सरकार को सैन्य तख्त पलट के जरिये गिराना उसकी मुनरो डॉक्ट्रिन का हिस्सा था। लेकिन  फिडेल और चेग्वेरा के नेतृत्व में क्यूबा में हुई क्रांति हो या फिर वेनेजुएला, बोलीविया, कोलम्बिया आदि कई देशों में वामपंथी सरकारों का आना मुनरो डॉक्ट्रिन के मुंह पर तमाचे के समान रहा है। वैसे आजकल अमेरिका मुनरो डॉक्ट्रिन को लैटिन अमेरिका तक सीमित न रखकर उसे ग्लोबल डॉक्ट्रिन बनाने पर तुला है जिसका हमें विरोध करना है।"

अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए ऐप्सो के राज्य महासचिव सर्वोदय शर्मा ने अपने संबोधन में कहा " जब फिदेल कास्त्रो गुटनिरपेक्ष आंदोलन  के दौर में भाग लेने भारत आये थे तब मैं उस वक्त युवा था। मुझे याद है कि फिदेल कास्त्रो ने अपने भाषण के दौरान सत्तावन दफ़े अमेरिकी साम्राज़्यवाद का नाम लिया था। अमेरिका के जेम्स मुनरो ने ब्रिटिश साम्राज़्यवाद को दूर रखने के लिए मुनरो डॉक्ट्रिन की बात की थी। ट्रम्प आज बेशर्मी से उस डॉक्ट्रिन को लागू करने की बात करता है। ट्रम्प राजनेता और राष्ट्रपति बनने के पहले जमीन की खरीद बिक्री का  काम करता था यहां तक की भारत में भी उसका कुछ कारोबार था। आज  दुनिया तीसरे विश्वयुद्ध के कगार पर है। हम लोगों को चेग्वेरा की डायरी का प्रचार प्रसार करना चाहिए। जो भी आज़ादी और समानता के लिए लड़ता है, जो सारे सुखों को त्याग कर गुरिल्ला युद्ध के लिए गए और मारे गए। चेग्वेरा को बहुत पसंद करता है।"

ऐप्सो द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम में प्रमुख लोगों में मनोज कुमार, कुमार बिंदु, बिटटू भारद्वाज, निखिल कुमार झा, प्रशांत विप्लवी, अभिषेक विद्रोही, सबीना खातून, राजीव रंजन, सत्येंद्र सिन्हा, गोपाल शर्मा, देवरत्न प्रसाद, चितरंजन भारती, आशीष रंजन, अभिषेक विद्रोही, उदयन राय, जितेंद्र कुमार, रोहित,  आशीष कुमार आदि मौजूद थे।

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