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निर्यात संचालित विकास रणनीति की विफलता

प्रभात पटनायक की क़लम से: हम से (Say) के नियम की बात इसलिए कर रहे हैं क्योंकि इस बीच आर्थिक विमर्श में इस नियम की दबे पांव वापसी हो गयी है।
Export-Led Growth
प्रतीकात्मक तस्वीर

 

ज्यां बेप्टिस्ट से (Say) एक फ्रांसीसी अर्थशास्त्री थे, जिन्होंने अठारहवीं सदी में अपना लेखन किया था। उन्होंने एक नियम सूत्रबद्ध किया था, जिसका आशय यह था कि ‘आपूर्ति खुद अपनी मांग पैदा करती है।’ इसका अर्थ यह था कि किसी अर्थव्यवस्था में मालों के समग्र उत्पादन की तुलना में, मांग की कमी या तंगी कभी हो ही नहीं सकती है।

एक झूठी पूर्व-धारणा

उनकी दलील इस प्रकार थी। किसी अर्थव्यवस्था में जो कुछ भी पैदा होता है, वह इस उत्पादन से जुड़े लोगों के बीच उतनी ही मात्रा में आय पैदा करता है। इस आय का या तो उपभोग कर लिया जाता है या फिर इसकी ‘बचत’ कर ली जाती है यानी उपभोग नहीं किया जाता है। जितनी भी आय का उपभोग होता है, उससे उत्पादित उपभोग मालों की उतनी ही मांग पैदा होती है। और जितना भी हिस्सा बचा लिया जाता है, उसका या तो सीधे-सीधे पूंजी मालों की खरीद के लिए इस्तेमाल किया जाता है या फिर उसे ऋण के तौर पर उन लोगों के हवाले कर दिया जाता है जो पूंजी माल खरीदना चाहते हैं यानी ऋण लेकर निवेश करना चाहते हैं। जो कुछ भी ‘बचाया’ जाता है तथा जो कुछ भी निवेश किया जाता है, अंतत: ब्याज की दरों में समायोजनों के जरिए बराबर हो जाता है। इसलिए, इस तरह के समायोजनों के साथ, जो कुछ भी पैदा होता है, अंतत: समग्रता में उसकी मांग आ जाती है और इसका कोई कारण नहीं बनता है कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था अधिकतम उत्पादन की यानी पूर्ण रोजगार की अवस्था में नहीं हो। बेशक, किसी बाजार विशेष में मांग और आपूर्ति का बेमेल होना तो संभव है, लेकिन समग्रता में ऐसा कभी नहीं होता है।

से महाशय के इस नियम की समस्या यह है कि इसमें चालू समय में कमाई गयी आमदनियों में से सारी मांग को, चालू समय में पैदा हुए मालों की मांग के रूप में ही देखा जाता है, चाहे वह उपभोग के लिए हो या फिर अपनी संपदा में बढ़ोतरी करने यानी निवेश के लिए हो। लेकिन, अगर संबंधित लोग अपनी संपदा में पैसे के रूप में बढ़ोतरी करना चाहते हों यानी वे अपनी संपदा को आंशिक रूप से मुद्रा के रूप में भी रख रहे हों, जोकि वर्तमान समय में पैदा होने वाला माल नहीं होता है (मिसाल के तौर पर अगर वे अपनी चालू आय में एक हिस्सा मुद्रा के रूप में रखना चाहते हों) तो इसका कोई कारण नहीं होगा कि वर्तमान समय में उत्पादित मालों की अपूर्ति, अपने बराबर मांग पैदा कर रही हो। 

माल-धन-माल के चक्र में, अगर लोग धन को माल में नहीं तब्दील करना चाहते हों, तो माल के यानी उत्पादित मालों के अधिउत्पादन की स्थिति पैदा हो जाएगी। अपर्याप्त मांग के ऐसे हालात में, उत्पादित मालों के मुद्रा मूल्य में अगर कोई कमी होती है, तो उससे तो संपदा के रूप के तौर पर मुद्रा की मांग ही पुख्ता होगी और इसलिए अधिउत्पादन की प्रवृत्ति खत्म नहीं हो रही होगी।

अधि-उत्पादन की प्रवृत्ति

मुख्यधारा का पूंजीवादी अर्थशास्त्र, जो से के नियम को सच मानता है, यह मानकर चलता है कि लोग कभी भी संपदा के रूप के तौर पर पैसा अपने पास नहीं रखना चाहते हैं। वे मानते हैं कि धन तो सिर्फ लेन-देन या सर्कुलेशन का माध्यम होता है, पर कभी भी संपदा के रखे जाने का रूप नहीं होता है। लेकिन, यह एक बेतुकी पूर्व-धारणा है। यह न सिर्फ व्यावहारिक रूप से गलत है बल्कि तार्किक रूप से भी चलने वाली बात नहीं है। इसीलिए, पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के संबंध में से का नियम, एक बेतुकी पूर्व-धारणा था 

कार्ल मार्क्स ने से के नियम को और एक अर्थशास्त्री के नाते जेबी सायस को (जिन्हें वह ‘घिसे पिटे’ मोन्सेयर से कहा करते थे) खूब आड़े हाथों लिया था और पूंजीवाद के अंतर्गत अधिउत्पादन के संकटों की संभावना की प्रस्थापना की थी।

हम अर्थशास्त्र की इतनी पुरानी बहसों की बात क्यों कर रहे हैं, जिन्हें न सिर्फ मार्क्स ने निपटा दिया था बल्कि जिन्हें 1930 के दशक में एक बार फिर से, महामंदी के समय पर हुई, पूंजीवादी अर्थशास्त्र में केन्सवादी क्रांति ने निपटा दिया था। उन हालात में यह दलील देना ही हद दर्जे की बेहूदगी होता कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में, उत्पादित मालों की सकल मांग की तंगी कभी हो ही नहीं सकती है। केन्स पश्चिमी पूंजीवाद को बोल्शेविक शैली की क्रांति से बचाना चाहते थे और उन्होंने यह पहचाना था कि ऐसा करने के लिए हमें पहले तो पूंजीवाद की विफलताओं को स्वीकार करना होगा और उनसे उबरने के लिए इस व्यवस्था की ही मरम्मत करनी होगी, ताकि क्रांति की संभावनाओं को रोका जा सके।

नव-उदारवाद के तर्क में वापसी

हम से के नियम की बात इसलिए कर रहे हैं क्योंकि इस बीच आर्थिक विमर्श में इस नियम की दबे पांव वापसी हो गयी है। से के नियम की इस वापसी की खामोशी, उसे जितना प्रभावशाली बनाती है, उतना ही कपटपूर्ण भी बना देती है। वास्तव में समूची नव-उदारवादी आर्थिक व्यवस्था का तर्क ही से के नियम की वैधता को मानकर चलने पर आधारित है।

नव-उदारवाद के लिए और तब तक चलती आ रही नियंत्रणात्मक रणनीति के त्यागे जाने के लिए (भारत में नियंत्रणात्मक रणनीति को अक्सर नेहरू-महालनबीस रणनीति के नाम से जाना जाता है) बौद्धिक आधार, सत्तर के दशक के आरंभ में तैयार किया गया था। 

उस समय यह दलील दी जाती थी कि चार पूर्वी एशियाई टाइगरों– दक्षिण कोरिया, ताईवान, हांगकांग तथा सिंगापुर– ने, उल्लेखनीय रूप से ऊंची आर्थिक वृद्धि दरों का प्रदर्शन किया था, जो नियंत्रणात्मक रणनीति का अनुसरण कर रहे भारत जैसे देशों के मुकाबले कहीं बहुत ऊंची दरें थीं। और अगर ये अन्य देश भी नियंत्रणात्मक रणनीतियों का त्याग कर देते हैं या विश्व बैंक की शब्दावली में अपनी ‘अंतर्मुखी’ विकास रणनीति को छोड़ देते हैं और उसकी जगह पर ‘निर्यात संचालित वृद्धि’ का रास्ता अपना लेते हैं, तो वे भी इन एशियाई टाइगरों की ही तरह कामयाबी हासिल कर सकते हैं।

एशियाई टाइगरों के अनुसरण का लालच

यह एक बेतुकी दलील थी। अगर विश्व सकल मांग का स्तर किसी खास दर से बढ़ रहा है, तब सभी देशों को मिलाकर उत्पादन का स्तर, उससे ऊंची दर से नहीं बढ़ सकता है। अगर कुछ देशों का उत्पाद विश्व की सकल मांग की वृद्धि दर से ज्यादा तेजी से बढ़ रहा हो, तो यह इसीलिए संभव होगा कि अन्य देशों का उत्पाद कहीं धीमी दर से बढ़ रहा होगा। अगर पहले धीमी गति से वृद्धि कर रहे देशों की उत्पाद वृद्धि दर बढ़ती है, तो यह उन देशों की कीमत पर ही हो सकता है, जिनकी वृद्धि दर पहले अपेक्षाकृत तेजी से बढ़ रही हो। इसलिए, यह लालच देना ही बेतुका था कि सभी देश ‘एशियाई टाइगरों’ वाली रफ्तार से बढ़ सकते हैं, बशर्ते वे एक ‘निर्यात-संचालित’ वृद्धि रणनीति अपना लें। ऐसी दलील देना सकल मांग की सीमाओं को अनदेखा करना यानी से के नियम को सत्य मानकर चलना था। इस तरह, नेहरूवादी रणनीति के त्यागे जाने की पुकार के पीछे, से के बेतुके नियम का सहारा लिया जा रहा था।

बहरहाल, से के नियम का यह सहारा लिया जाना, एक आवरण में किया जा रहा था और इसीलिए यह कामयाब रहा था। इस आवरण ने एक ‘लघु देश धारणा’ का रूप लिया था। कोई छोटा देश, ठीक अपने छोटा होने की वजह से, अपेक्षाकृत बड़े देशों की कीमत पर कहीं ज्यादा निर्यात कर सकता था और इस तरह ज्यादा निर्यात कर सकता था कि उन्हें इस पैमाने पर नुकसान हो ही नहीं, जोकि ध्यान में आ सकता हो। इसलिए, छोटे देशों के लिए इस धारणा की फिर भी कुछ तुक बनती है कि वे अगर चाहें तो ज्यादा निर्यात कर सकते हैं यानी उनके सामने मांग की कोई उल्लेखनीय सीमा है ही नहीं। और छोटे देश अक्सर ऐसी धारणा लेकर चलते हैं। लेकिन, ‘निर्यातोन्मुखी वृद्धि’ की नव-उदारवादी रणनीति तो इसका स्वांग भरते हुए सभी देशों के गले उतरवाने की कोशिश की जा रही थी कि उनमें से हरेक, किसी ‘छोटे देश’ की तरह आचरण कर सकता था। यह पूरी तरह बेतुकी बात थी। यह जोड़ने की उलट भ्रांंति का नंगा मामला था और से के नियम की चोर दरवाजे घुसपैठ का मामला।

बेशक, चार एशियाई टाइगरों की कामयाबी के बाद, चीन में तथा दक्षिण-पूर्वी एशिया में और भी शानदार वृद्धि दर सफलताएं देखने को मिली थीं। हां! यह जरूर है कि ये अनिवार्य रूप से नव-उदारवादी रणनीति की मिसालें नहीं थीं और ना ही ये शुद्ध रूप से तथा सरल तरीके से ‘‘निर्यातोन्मुखी वृद्धि’’ की मिसालें थीं। और जिस हद तक ये निर्यात की कामयाबियां थीं, यह बहुत हद तक इसका नतीजा था कि पश्चिमी विकसित देशों की पूंजी ने, पश्चिमी विकसित देशों के बाजार के लिए उत्पादन करने के लिए, इन देशों की धरती पर अपने कारखाने लगाने का फैसला लिया था। 

दूसरे शब्दों में उनकी सफलता के सिक्के का दूसरा पहलू यह था कि विकसित देशों की पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं की वृद्धि दर धीमी हुई थी, हालांकि ऐसा उनकी महानगरीय पूंजियों के साथ नहीं हुआ था। और इस तथ्य का तो जिक्र ही क्या करना कि तीसरी दुनिया के अन्य देश, दौड़ से बाहर ही छूट गए थे। फिर भी यह देशों के बीच दौड़ तो थी।

तीसरी दुनिया में गलाकाट होड़

झूठे तरीके से, से के नियम को मानने के जरिए, ‘निर्यात संचालित वृद्धि’ की रणनीति ने देशों को, और खासतौर पर तीसरी दुनिया के देशों को, एक-दूूसरे के खिलाफ खड़ा कर दिया था। मिसाल के तौर पर भारत, वस्त्रों का अपना निर्यात बढ़ा तो बांग्लादेश की कीमत पर ही सकता था। पलटकर इसका अर्थ यह था कि कोई देश कम मजदूरी देने के जरिए, उनसे ज्यादा घंटे तक काम कराने के जरिए और फर्जीवाड़े के जरिए उनके वैध भुगतानों को छीनने के जरिए, अपनी कामगार आबादी को जितना ज्यादा निचोड़ने में सफल रहेगा, उतना ही ज्यादा वह अपनी निर्यात की मुहिम में सफल रहेगा। इस तरह, असमानताकारी वृद्धि या यहां तक कि गरीबी पैदा करने वाली वृद्धि तक, ‘निर्यातोन्मुखी वृद्धि’ के मूल तर्क के साथ ही लगी हुई थी।

बहरहाल, असमानताकारी वृद्धि का अर्थ अंतत: तो, विश्व अर्थव्यवस्था में मांग की वृद्धि की दर का धीमा होना और इसलिए निर्यातोन्मुखी वृद्धि रणनीति के लिए संकट का पैदा होना ही था। कोविड महामारी के आने से पहले से, समग्रता में विश्व अर्थव्यवस्था की जीडीपी की दशकीय वृद्धि दर, दूसरे विश्व युद्ध के बाद के दशकों में सबसे कम रही थी और महामारी के बाद से यह वृद्धि दर और भी धीमी पड़ गयी है।

यह रणनीति नैतिक रूप से गर्हित तो है ही, क्योंकि यह उत्पीडि़त जनगणों के बीच गलाकाट होड़ की मूर्तिपूजा स्थापित करती है, इसके साथ ही इस रणनीति ने विश्व अर्थव्यवस्था को एक बंद गली में पहुंचा दिया है। तीसरी दुनिया की कोई भी अर्थव्यवस्था इस बंद गली से एक ही तरह से निकल सकती है, वह यह कि राज्य को इसके लिए सक्रिय करे कि देश के घरेलू बाजार को बढ़ाने के लिए, खर्च में बढ़ोतरी का रास्ता अपनाए। घरेलू बाजार को बढ़ाना इसका तकाजा करता है कि कृषि वृद्धि दर को बढ़ाया जाए (जिससे किसानों तथा खेत मजदूरों के हाथों में ज्यादा आमदनी आएगी); न्यूनतम मजदूरी का स्तर बढ़ाया जाए (जिससे मजदूरों के हाथों में ज्यादा आय आएगी); और कल्याणकारी शासन के कदमों को बढ़ाया जाए (जो समूची मेहनतकश आबादी के वास्तविक जीवन स्तर को ऊपर उठाएगा। और इसके लिए जरूरी है कि संपदा तथा विरासत कराधान के जरिए, इस तरह के खर्चों के लिए वित्त जुटाया जाए। और इस सबके लिए पूंजी नियंत्रण लगाने की और खासतौर पर वित्तीय बर्हिप्रवाहों पर नियंत्रण लगाने की जरूरत होगी और यह पलटकर व्यापार नियंत्रणों की मांग करेगा। 

संक्षेप में इसके लिए ‘निर्यात-संचालित वृद्धि’ की रणनीति के त्यागे जाने की और से के नियम के शिकंजे को तोड़ने की जरूरत होगी। यह नियम पहले ही बहुत भारी नुकसान कर चुका है। 

(लेखक दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के आर्थिक अध्ययन एवं योजना केंद्र में प्रोफ़ेसर एमेरिटस हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित इस आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें–

Silent Return of Say’s Law in Economic Discourse

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