सच, डर और छापे

सच, डर और छापे
राज़ी नहीं होने पर
डर जाता है राजा
दलील नहीं होने पर
सिहर जाता है इंसाफ़
मूक नहीं होने पर
बिफर जाती है मनमानी
अंधेरा नहीं होने पर
ठिठक जाते हैं दस्यु
उंगलियां उठ जाने पर
बिखर जाते हैं साम्राज्य
मगर,
असहमतियों
दलीलों
बेबाकियों
रौशनी
और
उंगलियों के उठ जाने के बीच
दमक उठता है सच
हांफ़ने लगता है झूठ
बिदक उठता है प्रतिशोध
तपतपाने लगता है आपा
फिर एक दिन
भरम का चरम रचते हुए
पड़ने लगता है छापा
- उपेंद्र चौधरी
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