एक देश एक चुनाव बनाम लोकतांत्रिक सरोकार

देश के भीतर लगातार होने वाले चुनावों के मुद्दे ने हाल के दिनों में मुख्य मुद्दे के रूप में आकार ग्रहण कर लिया है, और देश के किसी न किसी हिस्से में लगातार चुनावों को आयोजित करने की प्रचलित प्रथा के खिलाफ आवाजें उठाई जाने लगी हैं। इस संदर्भ में, इकट्ठा सारे चुनावों को करने का विचार – जिसमें सभी तीनो स्तरों के शासन के लिए इकट्ठा चुनाव कराने के विचार को तुलनात्मक तौर पर अधिक कुशल प्रथा के तौर पर आगे बढ़ाया जा रहा है।
इसके पक्षकार निरंतर चुनावों से विकासात्मक योजनाओं और नीतियों पर पड़ने वाले कुप्रभावों, सशस्त्र बलों की लंबे समय तक इसमें भागीदारी, लगातार चुनावों को आयोजित करने पर होने वाले भारी खर्चों, और एक साथ चुनावों को आयोजित करने (1951-52 से लेकर 1967 तक) के ऐतिहासिक प्रचलन को अपने पक्ष को सही ठहराने और मजबूती प्रदान करने के लिए जोर-शोर से उठा रहे हैं। इसके विपरीत, इसके आलोचक संवैधानिक और व्यवहारिक समस्याओं का हवाला दे रहे हैं जो इसके कार्यान्वयन में अडचनें पैदा कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, क्या संसद और राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल को समकालीन किया जा सकता है? यदि हाँ, तो क्या ऐसा करना संवैधानिक तौर पर स्वीकार्य होगा?
भाजपा जोर दे रही, जबकि अन्य इससे बच रहे हैं
भारतीय जनता पार्टी [भाजपा] के बढ़ते चुनावी लाभों के साथ, 1990 के शुरूआती दशक में ही एक साथ चुनावों को फिर से शुरू करने की मांग रोज पकड़ने लगी थी। हालाँकि, इस मुद्दे ने 2014 के बाद से राष्ट्रीय राजनीतिक फलक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लगातार बढ़ते कद के साथ अद्वितीय जोशो-खरोश के साथ एक बार फिर से उभरना शुरू कर दिया है।
यह समकालिकता न ही कोई दुर्घटनावश है और न ही आश्चर्य में डालने वाली है। अन्य देशों खासकर संयुक्त राज्य अमेरिका से प्राप्त होने वाले साक्ष्यों से पता चलता है कि एक साथ चुनावों का परिणाम में एक ‘छुतहा प्रभाव’ पड़ सकता है: एक मजबूत और लोकप्रिय उम्मीदवार की क्षमता चुनाव में उसी पार्टी के अन्य उम्मीदवारों के लिए वोटों को आकर्षित करने का काम करती है। इस बात को ध्यान में रखते हुए कि 2014 के बाद से ही भाजपा की चुनावी जीत की अगुआई करने वाले स्टार प्रचारक रहे हैं, ऐसे में उसकी ओर से ‘एक देश, एक चुनाव’ का आह्वान कहीं से भी आश्चर्यजनक नहीं है। इस तथ्य को सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ़ डेवलपिंग सोसाइटीज, नई दिल्ल्ली के प्रोफेसर संजय कुमार के द्वारा 2019 के एक अध्ययन ने पुष्ट किया है, जिसने संकेत मिलता है कि भाजपा मतदाताओं के 32 प्रतिशत हिस्से ने मोदी की वजह से ही पार्टी को अपना वोट दिया था।
अन्य देशों खासकर संयुक्त राज्य अमेरिका के साक्ष्यों को देखने से पता चलता कि एक साथ चुनावों का परिणाम ‘छुतहा प्रभाव’ हो सकता है: अर्थात किसी चुनाव में उसी पार्टी के अन्य उम्मीदवारों के लिए वोटों को आकर्षित करने के लिए एक मजबूत और लोकप्रिय उम्मीदवार की क्षमता का काम करती है।
अन्य राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के दृष्टिकोण के लिहाज से देखें तो इस प्रकार का परिदृश्य उनके लिए तबाही का कारण बन सकता है क्योंकि उनका नेतृत्व मोदी के समूचे भारत के मतदाताओं पर पड़ने वाले करिश्माई प्रभाव का मुकाबला नहीं कर सकता है। उनका नेतृत्व काफी हद तक अपने-अपने दलों के लिए चुनावी समर्थन में अपने प्रभाव को तब्दील कर पाने में आम तौर पर विफल रहा है, और लोकसभा के चुनावों में तो यह खासतौर पर देखने को मिलता है। इस प्रकार, वे एक साथ चुनावों के बजाय लगातार होने वाले चुनावों को वरीयता देते हैं।
लोकतांत्रिक सरोकार
पहली नजर में देखने पर, एक साथ चुनाव कराने का प्रस्ताव आकर्षक प्रतीत होता है। बहरहाल, यदि हमने इसके अवसर की लागत का मूल्यांकन किये बगैर समर्थन करना निरा बचकाना साबित होगा। संवैधानिक एवं व्यवहारिक चिंताओं के अलावा भी ऐसे अनेकों लोकतांत्रिक सरोकार हैं जो ध्यान देने योग्य हैं।
सबसे पहले, ‘छुतहा प्रभाव’ को देखते हुए, यह विशेष रूप से सत्तारूढ़ राजनीतिक दल, और आम तौर पर राष्ट्रीय दलों के लिए एक साथ चुनावों में अपने अन्य प्रतिस्पर्धियों के मुकाबले लाभदायक बढ़त को सुनिश्चित करता है। और यह बात ही अपने आप में सभी को समान रूप से अवसर न देकर लोकतांत्रिक प्रकृति के विरुद्ध है। लेकिन इसके क्षेत्रीय स्तर पर लागू होने पर खतरे की गंभीरता काफी बढ़ जाती है, जहाँ पर लोकतंत्र के लिए इसके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं।
इसे ध्यान में रखते हुए एक साथ चुनाव होने की स्थिति में राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के लिए प्रभुत्वकारी स्थिति में होने की संभावना है, जिसमें क्षेत्रीय दल या तो कम सफल होंगे या फिर उन्हें राष्ट्रीय स्तर के प्रतिस्पर्धियों के साथ हाथ मिलाने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। बहरहाल, जो भी हो, इससे क्षेत्रीय आकांक्षाओं और मांगों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा, क्योंकि यह क्षेत्रीय राजनीतिक दल ही हैं जो उनके मुद्दों को विभिन्न लोकतंत्रिक मंचों पर उठाते आये हैं।
इसके साथ-साथ, जैसा कि ‘छुतहा प्रभाव’ सत्तारूढ़ दल/गठबंधन सरकार को स्वाभाविक तौर पर प्रमुखता देता है, ऐसे में लगातार इस बात का जोखिम बना रहता है कि चाहे भले ही कोई भी लागत क्यों न आ जाए, उन्हें राजनीतिक सत्ता में बनाये रखने के लिए प्रोत्साहित किया जायेगा। यह लोकतंत्र के लिए घातक होगा, क्योंकि भारत ही नहीं बल्कि विश्व इतिहास भी ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है, जैसे कि वेनेजुएला में ह्यूगो चावेज के पांचवे गणतंत्र आंदोलन और हंगरी में विक्टर ओर्बन के फिदेस्ज़ में इसे देखा जा सकता है, जहाँ पर एकल दल के प्रभुत्व ने एक लोकतांत्रिक व्यवस्था को तानशाही में तब्दील करने में खुद को सिमटा दिया है।
दूसरा, संसदीय लोकतंत्र के बुनियादी उसूलों में से एक यह है कि एक सरकार जिसके पास लोकप्रिय समर्थन हासिल है, उसे शासन करने का अधिकार है जब तक कि वह खुद को भंग करने का विकल्प नहीं चुनती या लोकप्रिय समर्थन नहीं खो देती है। एक साथ चुनाव कराने से जरुरी नहीं कि इस सिद्धांत का पालन हो। ऐसे भी मामले भी हो सकते हैं, जहाँ एक साथ चुनावों के जरिये चुनी गई सरकारें या तो लोकप्रिय समर्थन खो सकती हैं या कार्यकाल के बीच में ही भंग की जा सकती हैं। यदि कोई राज्य सरकार अपने कार्यकाल के बीच में ही अपना बहुमत खो देती है, तो उस अवस्था में भारत के राष्ट्रपति की ओर से काम करने वाले राज्यपाल को अन्य दलों/गठबंधनों को विकल्प के तौर पर सरकार बनाने के लिए कहने के लिए बाध्य होना पड़ेगा क्योंकि दोबारा चुनाव का विकल्प उपलब्ध नहीं है। यदि इसके बावजूद सरकार बनाने के प्रयास विफल हो जाता है, तो राज्य को अगले तयशुदा समय तक होने वाले चुनावों तक, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन के माध्यम से शासित करना होगा। जो कि, स्पष्ट तौर पर लोकतंत्र विरोधी होगा।
यह परिदृश्य केंद्र के स्तर पर भी लागू होता है। यदि कोई केंद्र सरकार अपने बीच के कार्यकाल में ही अपना बहुमत खो देती है, तो कार्यवाही का एकमात्र उपलब्ध रास्ता यही बचता है कि राष्ट्रपति अन्य दलों/गठबन्धन को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करें। यदि यह उपाय भी विफल हो जाता है, तो उस स्थिति में देश को अगले चुनाव तक, मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह से राष्ट्रपति शासन के तहत शासित करना पड़ेगा, जो कि एक निष्क्रिय लोकसभा और एक कार्यात्मक राज्यसभा का हिस्सा होगा। इस प्रकार की सरकार लोकतांत्रिक होने से बहुत दूर होगी, और एक प्रकार से संवैधानिक कुलीनतंत्र के करीब होगी।
इसमें कोई आश्चर्य वाली बात नहीं है कि 2018 से एक साथ चुनाव कराने पर भारतीय विधि आयोग की मसौदा रिपोर्ट में भी कहा गया है कि संविधान के मौजूदा ढाँचा एक साथ चुनाव की अनुमति नहीं देता है, और इसमें कहा गया है कि इस प्रकार से चुनावों को आयोजित कराने के लिए संविधान में व्यापक संशोधनों की आवश्यकता पड़ेगी। इतना ही नहीं बल्कि इसके साथ-साथ लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम और लोकसभा एवं राज्य विधानमंडल की नियमावली प्रकिया में भी व्यापक संशोधन करने होंगे।
लगातार होने वाले चुनावों से निर्वाचित प्रतिनिधि और सरकारें हर समय सतर्क बनी रहती हैं क्योंकि उन्हें लगातार आम जनता के बीच में जाना पड़ता है। यदि एक साथ चुनावों को संपन्न कर दिया गया तो यह जवाबदेही कहीं न कहीं बड़े स्तर पर कम हो जायेगी क्योंकि निर्वाचित प्रतिनिधि अब मध्यावधि चुनावों के माध्यम से अपनी जवाबदेही से बचे रह जायेंगे।
और अंत में, लोकतांत्रिक जवाबदेही को सुनिश्चित बनाए रखने के लिए चुनाव एक महत्वपूर्ण उपकरण है। लगातार चुनाव होने से निर्वाचित प्रतिनिधियों और सरकारों को निरंतर खुद कको चाक-चौबंद बनाये रखना होता है क्योंकि उन्हें लगातार आम जनता के बीच में जाना पड़ता है। यह उन्हें अपने वायदों को पूरा करने के लिए निरंतर लोगों की निगाह के दायरे में रखता है। एक साथ चुनावों में जाने पर यह जवाबदेही कहीं न कहीं कम हो जायेगी, क्योंकि निर्वाचित प्रतिनिधियों के लिए अब मध्यावधि चुनावों के माध्यम से जवाबदेही की जरूरत नहीं रह जाएगी।
एक कदम आगे, दो कदम पीछे
भारत में लोकतंत्र की जडें समय के साथ-साथ मजबूत हुई हैं और इस संदर्भ में लगातार होने वाले चुनावों की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण रही है। इसने क्षेत्रीय राजनीतिक दलों को फलने-फूलने और राष्ट्रीय लोकतांत्रिक स्तर पर क्षेत्रीय आकांक्षाओं को महत्व देने की अनुमति प्रदान की है। संक्षेप में कहें तो, लगातार होने वाले चुनावों ने भारत में लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करने का ही काम किया है।
एक साथ चुनाव कराने की प्रथा को फिर से लागू करने की दिशा में बढ़ाया जाने वाला एक कदम प्रभावी रूप से भारत में लोकतंत्र को दो कदम पीछे ले जाने वाला साबित होगा।
साभार: द लीफलेट
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