शैलेंद्र: किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार... जीना इसी का नाम है

क्या आप किसी ऐसे गीतकार, कवि का नाम ले सकते हैं जो सिर्फ 43 साल तक जिया और इस देश में इंकलाब का ख्वाब देखने वाले लोगों के संघर्ष की आवाज बन गया। क्या आप उस अमर रचनाकार का नाम बता सकते हैं जिसकी कलम ने तो ‘तू जिंदा है तो जिंदगी की जीत में यकीन कर’ जैसा जोशीला गाना और ‘हर जोर-जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है’ जैसा फड़कता हुआ उद्घोष दिया। वह कौन था जिसने ‘प्यार हुआ इकरार हुआ..और ये रात भीगी-भीगी ये चांद प्यारा-प्यारा जैसे न जाने कितने गीतों के जरिये रोमांस का ऐसा जादू जगाया कि दुनिया वाह-वाह कर उठी। वह किसकी कलम थी जिससे, ‘आवारा हूं या गर्दिश में हूं आसमां का तारा हूं... और मेरा जूता है जापानी ये पतलून इंग्लिशतानी जैसे गीत निकल कर पूरी दुनिया में आम आदमी से लेकर राष्ट्राध्यक्षों की जुबां पर चढ़ गए। उस कलम का मालिक था शंकरलाल केसरीलाल। दुनिया आज उसे शैलेंद्र के नाम से जानती है।
ग्लोबलाइजेशन भले ही आज का दौर का जुमला हो लेकिन 50-60 साल पहले जब भारत के सॉफ्ट पावर की रोशनी पूरी दुनिया में फैली तो उसकी चमक के एक हिस्से पर शैलेंद्र के लिखे गीतों का हक था।
वामपंथी रुझान और जनवादी मिज़ाज का अज़ीम गीतकार
जिंदगी भर अपने वामपंथी रुझानों और जनवादी चेतना से लैस रहे शैलेंद्र का परिवार बिहार के भोजपुर इलाके का था और वह शायद हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के पहले दलित शायर थे, जिसने दुनिया को बताया कि टैलेंट को बांध कर नहीं रख जा सकता। यह मुश्किल से मुश्किल दौर में भी अपना रास्ता खोज लेता है। शैलेंद्र के पिता अपने कामकाज के सिलसिले में रावलपिंडी (अब पाकिस्तान में) चले गए थे और फिर वहां से आकर उनका परिवार मथुरा (यूपी) में बस गया था। घर में आर्थिक दिक्कतें थीं। लिहाजा शैलेंद्र की पढ़ाई ठीक से नहीं हो पाई। बाद में वह रेलवे की एक प्रतियोगी परीक्षा पास कर अप्रेंटिसशिप पर मुंबई पहुंच गए। लेकिन कवि हृदय शैलेंद्र का नौकरी में मन नहीं लगता था और काम के घंटों में कहीं बैठ कर कविता लिखने लगते थे।
शैलेंद्र जज्बाती थे। मिजाज और रुझान वामपंथी था। लिहाजा इप्टा के जलसों में जाने लगे। इप्टा का एक जलसा हुआ। अध्यक्षता कर रहे थे फिल्म और थियेटर के जाने-माने नाम पृथ्वीराज कपूर। इसी जलसे में शैलेंद्र ने अपनी एक नज्म सुनाई – ‘जलता है पंजाब’। नज्म में विभाजन की त्रासदी झेल रहे पंजाब की कहानी थी। वहीं राजकपूर भी आए हुए थे। उस समय तक वह एक फिल्म ‘आग’ बना चुके थे और दूसरी फिल्म ‘बरसात’ की तैयारी कर रहे थे। जलसा खत्म होने पर राजकपूर शैलेंद्र के पास पहुंचे। कहा- मेरा नाम राजकपूर है। मैंने एक फिल्म बनाई है- ‘आग’। दूसरी ‘बरसात’ नाम से बना रहा हूं। क्या आप इसके लिए गाने लिखना पसंद करेंगे? माली हालत बेहद खराब होने के बावजूद उन्होंने गाने लिख कर पैसे कमाने से इनकार कर दिया।
कुछ महीनों के बाद शैलेंद्र की पत्नी बीमार हो गईं। इलाज के लिए पैसे नहीं थे। शैलेंद्र को राजकपूर के ऑफर की याद आ गई है. फिर भी वह गीत लिखने के इरादे से राजकपूर तक नहीं पहुंचे। कहा- मुझे आपसे 500 रुपये उधार चाहिए। राजकपूर ने उन्हें रुपये दे दिए। 1947 के दौर में यह एक बहुत बड़ी रकम थी। कुछ दिनों बाद शैलेंद्र जब 500 रुपये लौटाने राजकपूर के पास पहुंचे तो उन्होंने कहा, मैं सूद पर पैसा नहीं देता। आप ये पैसे अपने पास रखें। मेरी फिल्म बरसात के लगभग सारे गाने लिखे लिए गए हैं। दो गानों की गुंजाइश है। बड़ा अच्छा लगेगा, अगर आप ये दोनों गाने लिख दें।
जावेद अख्तर कहते हैं, “ राजकपूर में टैलेंट परखने की अद्भुत क्षमता थी। इसी की बदौलत उन्होंने अपनी टीम में एक से एक नायाब हीरे जमा किए थे। वह सच्चे मायने में जौहरी थे। उन्होंने शैलेंद्र की प्रतिभा पहचान ली थी। तब तक शैलेंद्र राजकपूर के भलमनसाहत के कायल हो चुके थे।
शैलेंद्र ने बरसात का टाइटिल गाना लिखा- ‘बरसात में हमसे मिले तुम ओ सजन.... हम से मिले तुम.. और ‘पतली कमर है, तिरछी नजर है। दोनों गाने सुपर-डुपर हिट। और इसी के साथ उनकी कामयाबी का सफर शुरू हुआ है। शैलेंद्र लगभग 20-22 साल एक से बढ़ कर एक गाने लिखते गए। उनके बोल ने देश और दुनिया भर के लोगों को अपने जादू बांध में बांध लिया। राजकपूर उन्हें प्यार से कविराज कहते थे।
हरफ़नमौला गीतकार थे शैलेंद्र
जावेद अख्तर उनके गीतों की सरलता, सहजता, म्यूजिकेलिटी और उनके शब्दों से जाहिर विचारों के मुरीद हैं। वह उनके गीतों में मौजूद गहरे रोमांस की तारीफ करते नहीं थकते। वह कहते हैं, ‘’जरा, वो, ‘सजना बरखा बहार आई, रस की फुहार लाई’ गाने को याद करिये बेहद सरल शब्द में ऐसा रूमानी गाना शायद ही आपको सुनने को मिलेगा। ‘मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंग्लिशतानी, सर पर टोपी लाल रूसी, फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी’ का मैसेज देखिये, भले ही दुनिया से सब कुछ लो लेकिन दिल हिन्दुस्तानी रहना चाहिए।” इसी तरह उन्होंने ‘दिल का हाल सुने दिलवाला गाने’ में थानेदार के साले को पकड़ने का बिंब रच कर समाज में छाए भाई-भतीजावाद पर गहरी चोट की है।” इसी गाने की एक लाइन- ‘पांव में लेकिन बेड़ी पड़ी है, टांग अड़ाता है दौलत वाला” का जिक्र करते हुए अख्तर साहब कहते हैं- शैलेंद्र रूमानी गीतों के साथ ही शोषण, समाज में ऊंच-नीच और वर्ग संघर्ष भी कहानी कह रहे थे।
शैलेंद्र ने ज्यादातर गाने राजकपूर की फिल्मों के लिए लिखे। लेकिन उन्होंने शंकर-जयकिशन जैसे संगीतकारों और राजकपूर जैसे निर्देशकों के अलावा दूसरे निर्देशकों-फिल्मकारों के लिए भी एक से बढ़ कर एक गाने लिखे। राजकपूर कैंप से बाहर उन्होंने सबसे शानदार और यादगार गीत दिए एसडी बर्मन और देव आनंद के साथ। देव आनंद की फिल्म ‘गाइड’ के गाने, “आज फिर जीने की तमन्ना है या फिर वहां कौन है तेरा मुसाफिर जाएगा कहां, कौन भूल सकता है। या फिर ‘बंदिनी’ का वह गाना- ओ रे मांझी, मेरे साजन है उस पार,मैं मन मार इस पार.... आपको आज भी याद आता होगा। क्या आप ‘सीमा’ का गाना ‘तू प्यार का सागर है तेरी एक बूंद के प्यासे’ को कभी भूल पाएंगे?
जब चीन के पीएम ‘आवारा हूं’ पर झूम उठे
शैलेंद्र बहुत कोशिश करके नहीं लिखते थे। उनका अंदाज बेहद सहज और सादा था। उनकी बेटी अमला शैलेंद्र ने बीबीसी को एक किस्सा सुनाया- एक बार बाबा की शंकर जयकिशन से अनबन हो गई। उन्होंने किसी दूसरे गीतकार को ले लिया। बाबा ने उन्हें एक नोट भेजा- ‘छोटी से ये दुनिया, पहचाने रास्ते हैं, तुम कभी तो मिलोगे, कहीं तो मिलोगे तो पूछेंगे हाल’। बाद में ये लाइनें भी हिट गाने के शक्ल के तौर पर आई। जोड़ी टूटने वाली नहीं थी और आखिर तक दोनों साथ रहे। ”
शैलेंद्र ने धर्मयुग में लिखे एक लिख में लिखा है कि किस तरह राजकपूर आवारा फिल्म के टाइटल सॉन्ग ‘आवारा हूं’ को रिजेक्ट कर चुके थे लेकिन ख्वाजा अहमद अब्बास को सुनाया तो उन्होंने कहा कि यह तो फिल्म का सबसे प्रमुख गाना होना चाहिए। फिर यह गाना पूरी दुनिया का एंथम बन गया है। आज भी यह गाना दुनिया भर में भारत और भारतीयों का पहचान बना हुआ है। दुनिया के किसी भी कोने में कोई शख्स आपको देखते ही आवारा हूं गुनगुना शुरू कर सकता है। 1962 में जब चीन की पीएम झाओ न लाई भारत आए थे तो उन्होंने आवारा हूं सुनाने की फरमाइश की। लेकिन मुकेश मौजूद नहीं थे तो तलत महमूद ने उन्हें यह गाना सुनाया और चीनी प्रधानमंत्री झूम उठे।
‘तीसरी क़सम’ और शैलेंद्र की मौत
शैलेंद्र बेहद भावुक आदमी थे। 1960 के आसपास उन्हें महान कहानीकार फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ बेहद पसंद आ गई। कहानी एक गाड़ीवान और नौटंकी की बाई के प्रेम पर आधारित है। बेहद सहज, सधी और मार्मिक। शैलेंद्र की रचनात्मकता को गीत बांध नहीं पा रहे थे। उन्होंने इस कहानी पर ‘तीसरी कसम’ नाम से फिल्म बनाने की ठानी। राजकपूर हीरो थे और वहीदा रहमान मुख्य अभिनेत्री। विमल राय के दामाद बासु भट्टाचार्य निर्देशन कर रहे थे। उन्होंने उस समय फिल्मी दुनिया के एक से बढ़ कर एक कलाकार और तकनीशियन जुटाए। संगीत शंकर जयकिशन का था। लता मंगेशकर, मुकेश और मन्ना डे ने इसके गाने गए थे। शैलेंद्र ने बड़ा इसरार कर खुद रेणु से फिल्म का संवाद लिखवाए थे। खुद उन्होंने और हसरत जयपुरी ने मिल कर गीत लिखे थे।
शैलेंद्र को इस फिल्म से बड़ी उम्मीद थी। लेकिन एक साल में बनने वाली फिल्म पांच साल में बनी। फिल्म निर्माण लंबा खिंचने की वजह से कर्जा बहुत बढ़ गया। कहा जाता है कि इस कर्ज के बोझ ने शैलेंद्र को तोड़ दिया। लेकिन उनकी बेटी अमला शैलेंद्र इससे इनकार करती हैं । वह कहती हैं , “फिल्म भले ही बॉक्स ऑफिस पर नहीं चली लेकिन उस वक्त भी वे सिनेमा में सबसे ज्यादा पैसा लाने वाले लेखक थे। इस फिल्म को बनाने के दौरान उनके मन को ठेस पहुंची। बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में वह कहती हैं, “ उन्हें धोखा देने वाले लोगों से चोट पहुंची थी। बाबा भावुक इंसान थे। इस फिल्म को बनाने के दौरान उन्हें कई लोगों से धोखा मिला। इसमें हमारे नजदीकी रिश्तेदार और उनके दोस्त भी शामिल थे। जान पहचान के दायरे में ऐसा कोई नहीं बचा जिससे बाबा को लूटा नहीं था। नाम गिनवाना शुरू करूंगी तो सबके नाम लेने पड़ जाएंगे।”
दिल को लगी ठेस से शैलेंद्र टूट गए और शराब पीने लगे। यह अलग बात है कि ब़ॉक्स ऑफिस पर नाकाम तीसरी कसम को कल्ट फिल्म माना गया। इसे बेस्ट फीचर फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला लेकिन 14 दिसंबर 1966 को शैलेंद्र 43 साल की उम्र में चल बसे। बहुत अधिक शराब पीने से वह लीवर सिरोसिस के शिकार हो गए थे। शैलेंद्र ने हिंदी फिल्मों के लिए कम से कम 800 गाने लिखे। उन्हें तीन बार अपने बेहतरीन गानों ( यहूदी -1958, अनाड़ी -1959 ब्रह्मचारी- 1968) के लिए फिल्मफेयर अवार्ड मिला। लेकिन शैलेंद्र इससे बहुत ज्यादा के हकदार थे।
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