कटाक्ष: उमर, शरजील, फातिमा…इनको जेल में ही रहने दो यारो!

विरोधियों को तो मोदी जी-शाह जी के राज से शिकायत का बहाना चाहिए। अब बताइए, और कुछ नहीं मिला तो इसी का रोना रोकर पब्लिक को सेंटीमेंटल करने की कोशिश कर रहे हैं कि उमर खालिद, शरजील इमाम, गुलफिशां फातिमा वगैरह की जमानत की अर्जी फिर खारिज हो गयी। यानी पांच साल तो हो गए जेल में, पर ये दस के दस युवा-छात्र, अभी जेल में ही रहेंगे।
पांचवीं बार अदालत ने जमानत की अर्जी खारिज की है, अभी जेल में ही सड़ते रहेंगे। न कोई सबूत है और न कोई सुनवाई शुरू हुई है, पर जेल में ही एड़ियां रगड़ते रहेंगे। सिर्फ इसलिए कि इन्होंने शाहीनबाग वाले आंदोलन के टैम पर मोदीशाही का विरोध किया था, इनकी जवानी के बेशकीमती दिन यूं ही जेल की सलाखों के पीछे गुजरते रहेंगे। ये कहां का न्याय है?
वो कहां हैं जो कहते थे कि जमानत ही नियम है, जेल जाना अपवाद है? ये कहां का कानून है? यह तो कार्रवाई ही सजा हो गयी, फिर कार्रवाई के नतीजे का इंतजार करने का मतलब ही क्या है? और भी न जाने क्या-क्या!
पर क्या यह शिकायत ही झूठी नहीं है। यानी एक मामूली जमानत के खारिज होने पर इस तरह रोना-धोना? अदालत को और उसके बहाने से मोदी जी की सरकार को ही कोसना, वगैरह। क्या यह सब बहुत ज्यादा ही नहीं हो गया?
पहली बात तो यही है कि इन लोगों के लिए जमानत की अर्जी खारिज होना क्या कोई नयी बात है? यह पांचवीं बार है जब इनकी जमानत की अर्जी खारिज हुई है। पांच साल में पांच बार यानी औसतन साल में एक बार। इतनी बार में तो इन्हें जमानत की अर्जी के खारिज होने आदत हो जानी चाहिए थी। बल्कि हम तो कहते हैं कि आदत हो चुकी होगी।
ये जो डेमोक्रेसी से लेकर सेकुलरिज्म तक, पश्चिमी विचारों के नामलेवा, इनकी जमानत से इंकार का इतना रोना-धोना कर रहे हैं, हमारे हिसाब से तो सब दिखावा है। वर्ना सबको पहले ही पता होगा कि जमानत नहीं मिलेगी। जमानत मांगने वालों ने भी जमानत की अर्जी यह जानते-समझते हुए लगायी होगी कि जमानत तो नहीं मिलेगी। जब पहले चार बार नहीं मिली, तो पांचवीं बार ही जमानत क्यों मिल जाएगी? चार अदालतों ने जब पहले ही जमानत देने से इंकार कर दिया, तो पांचवीं अदालत ही लीक छोड़कर क्यों चलेगी और जमानत देने की जुर्रत क्यों करेगी? पांचवीं अदालत ही अपने भविष्य की तरफ से आंखें मूंदकर क्यों चलेगी? न्याय की मूर्ति की आंखों से पट्टी किसलिए हटवायी गयी है, आंखें मूंदकर न्याय करने के लिए या आगे-पीछे सब कुछ देखकर पूरा न्याय करने के लिए। पूरा न्याय यानी न्यायाधीशों के भविष्य के साथ भी न्याय!
और ये जो बहुत ज्यादा वक्त हो जाने, फिर भी सुनवाई शुरू तक नहीं होने का शोर मचाया जा रहा है, वह बिल्कुल बेबुनियाद है। पहली बात तो यह है कि पांच साल का वक्त कोई इतना ज्यादा नहीं होता है कि इसी बहाने कोई जमानत मांगे और जमानत मिल भी जाए। होता होगा किन्हीं और मामलों में पांच साल का वक्त भी बहुत ज्यादा। होने को तो एक दिन का वक्त भी बहुत ज्यादा हो सकता है। बड़े वाले गोदी पत्रकार, अर्णव गोस्वामी के मामले में तो सबसे ऊंची अदालत को एक दिन की हिरासत भी बहुत ज्यादा लगी थी और उसे हाथ के हाथ रिहा कर दिया गया था। और भी कई मामलों में अदालतों को एक दिन भी बहुत ज्यादा लगा है। पर इन दस के मामले में पांच साल का वक्त भी बहुत ज्यादा नहीं है, जैसे भीमा-कोरेगांव मामले में भी पांच-सात साल का वक्त बहुत ज्यादा नहीं था। ऐसे मामलों में, जिनमें सरकार ही चाहती है कि बंदा ज्यादा से ज्यादा देर जेल में रहे, कितना भी हो वक्त इतना ज्यादा नहीं होता है कि बंदा इसीलिए बाहर आ जाए कि अंदर रहते-रहते बहुत वक्त हो गया। यह विशेष सुविधा या तो राम रहीमों तथा आशारामों के लिए सुरक्षित है या फिर अंडरवर्ल्ड के डॉनों के लिए।
और जो लगातार इसका शोर मचाया जाता रहता है कि पांच साल हो गए, मुकद्दमे की सुनवाई शुरू तक नहीं हुई, सुनवाई से पहले और सुनवाई के दौरान और कितने साल जेल में सड़ाया जाएगा, यह भी एक प्रकार का एंटी-नेशनल प्रचार ही है। ऐसी दलीलें देने वालों को असल में न देश की कानून व व्यवस्था पर विश्वास है और न न्याय व्यवस्था पर। वर्ना जिसमें लेशमात्र भी देशभक्ति है, आसानी से इस बात को समझ सकता है कि ऐसे मामलों में सबूत जुटाना कितना कसाले का और टैम लेने वाला काम है। आखिरकार, यह ऐसे राष्ट्र विरोधी षडयंत्र का मामला है, जिसमें बंदों ने करने के नाम पर सिर्फ भाषण दिए हैं, प्रदर्शनों में हिस्सा लिया है और षडयंत्र के नाम पर, व्हाट्सएप संदेशों से लोगों को इकठ्ठा किया है, जो सब कानून के दायरे में आता है। जो कानून के दायरे में हो, उसमें से भी ‘राष्ट्रविरोधी षडयंत्र’ के साक्ष्य खोजकर निकालने के लिए तो, असली षडयंत्र से भी ज्यादा समय और श्रम की जरूरत होगी ही।
फिर दिल्ली के दंगों के पीछे के और गहरे षडयंत्र के आरोपियों के खिलाफ साक्ष्य खोजने में पांच साल से ज्यादा लग रहे हैं, तो क्या यह बहुत ज्यादा है? ट्रंप की यात्रा के समय पर होने से यह तो अंतरराष्ट्रीय षडयंत्र था, जिसके साक्ष्य खोजने के लिए और ज्यादा टैम चाहिए।
असली बात यह है कि कानून अपना काम कर रहा है और सरकार भी अपना काम कर रही है। हर देशभक्त का कर्तव्य है कि उनके काम करने पर भरोसा रखे। रही टैम लगने की बात, तो सब्र रखना, हरेक देशभक्त का परम कर्तव्य है। एंटी-नेशनलों वगैरह की हम नहीं कहते, पर देशभक्तों के लिए भी और उनकी सरकार के लिए भी, सब्र का फल मीठा ही हो सकता है।
और उमर खालिद वगैरह की इस दलील में भी कोई दम नहीं है कि उन्हें इसलिए जमानत दी जाए क्योंकि उसी केस में नताशा नरवाल, देवांगना कलिता वगैरह को जमानत दी गयी है। केस एक है, षडयंत्र एक है, पर एक जैसा सलूक होने के लिए इतना ही काफी नहीं है। षडयंत्र में भूमिकाएं भी तो अलग हो सकती हैं, जिसका पता जांच पूरी होने के बाद चलेगा। वैसे सच्ची बात तो यह है कि सरकार ने भी उनके साथ बराबरी का सलूक करने की पूरी कोशिश की थी और नताशा वगैरह की जमानत का भी उसी तरह विरोध किया था। लेकिन, नाम देखकर जमानत मिल ही गयी, तो इसमें बेचारी सरकार और उसकी एजेंसियों का क्या कसूर?
वैसे भी इस देश में, जहां भगवान कृष्ण का जन्म कारागार में ही हुआ था और आजादी की लड़ाई में लाखों लोग जेल गए थे, किसी के जेल में बंद रखे जाने पर इतनी हाय-तौबा करना क्या ठीक है? सरकार तसल्ली से जांच कर ले, फिर अदालत तसल्ली से मुकद्दमे की सुनवाई कर ले। दूध का दूध, पानी का पानी हो ही जाएगा। जो निर्दोष है, वह निर्दोष साबित भी हो जाएगा। बस, उम्र के कुछ बरसों का ही तो सवाल है। हम तो कहेंगे कि जिससे भी विरोध का खतरा लगे, सब को परमानेंटली जेल में बंद रखा जाए। देश और सरकार, दोनों चैन की नींद तो सो सकेंगे।
(इस व्यंग्य स्तंभ के लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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