कटाक्ष: शांति का नोबेल; गुरु गुड़ रह गए, चेली शक्कर होए!

गुरु गुड़ का गुड़ रहा, चेली शक्कर होए! डोनाल्ड ट्रंप साहब के साथ वाकई बुरा हुआ है। बेचारे की वह वाली गत बन रही है, जिसे दुहेली गति कहते हैं। नोबेल कमेटी वालों ने बेचारे की ऐसी गत बनायी है कि बंदे से न हंसते बन रहा है, न रोते। अगला हंसे तो हंसे कैसे? आखिरकार, हाथ में आया-अवाया शांति का नोबेल, आखिरी वक्त में हाथ से निकल गया, जैसे मुट्ठी से रेत फिसल जाए। और यह तब था जबकि नोबेल पुरस्कार अपनी अंटी में करने के लिए, अगले ने इस बार जितनी मेहनत की थी, उतनी मेहनत तो न इससे पहले कभी किसी ने की होगी और न आगे कोई कर पाएगा।
पहले लोग समझते थे कि मेहनत तो विज्ञान वगैरह के नोबेल पुरस्कार के लिए करनी पड़ती है। बेशक, थोड़ी-बहुत मेहनत अर्थशास्त्र वगैरह के नोबेल पुरस्कार के लिए भी करनी पड़ती होगी। और हां कुछ न कुछ मेहनत तो साहित्य के नोबल के लिए भी करनी ही पड़ती होगी। लेकिन, शांति का नोबेल, वह तो यूं ही बैठे-बिठाए मिल जाता है। जिसको मिलना होता है, उसकी झोली में खुद ब खुद आ पड़ता है। इसके लिए किसी को कम से ऐसी मेहनत नहीं करनी पड़ती होगी, जो करने वाले के करने से भी ज्यादा, देखने वालों को और यहां तक कि नहीं देखने वालों तक को दिखाई पड़े। पर यह तब की बात है, जब तक व्हाइट हाउस के धराधाम पर ट्रंप का आगमन नहीं हुआ था और आगमन से भी बढक़र, ट्रंप जी की वापसी नहीं हुई थी।
दूसरी पारी में तो ट्रंप जी ने जैसे आते ही एलान कर दिया था, इस बार शांति का नोबेल मेरा। नोबेल के लिए अपुन कुछ भी करेगा। अगले की इच्छा भी गलत नहीं थी। व्हाइट हाउस में वापसी के बाद, क्या था जो अगले के पास नहीं था। सब कुछ तो अगले के पास था। अगले के पास न्यूक्लियर बटन था। अगले के पास दुनिया की सबसे बड़ी सैन्य ताकत थी और आर्थिक ताकत भी। अगले के पास दुनिया में कहीं भी तबाही मचाने की ताकत थी। और तो और, बाद में पता चला कि अगले के पास टैरिफ की तलवार भी थी। मोदी जी की तरह, सारा मीडिया भले ही अगले की गोदी में नहीं था, फिर भी अगले की गोदी में भी काफी मीडिया था। फिर भी ओबामा मिलता था, तो नजरें नीची रखकर निकलना तो दूर रहा, अगला अकड़ के साथ गर्दन तानकर निकलता था। और अकड़ किस बात की? ट्रंप के मेरे पास बंगला है, गाड़ी है, पैसा है, पावर वगैरह सब है के जवाब में, अगला बस अपने मैडल की ओर इशारा करता था--मेरे पास नोबेल है और वह भी शांति का! पहले नोबेल लेकर आओ, तब करना मुझ से मुकाबला!
नोबेल और वह भी शांति का, यही डबल ट्रबल वाली बात थी। और किसी नोबेल की बात होती, तब तो ट्रंप जी को इतनी प्रॉब्लम का सामना नहीं करना पड़ता। रसायन या भौतिकी का नोबेल हासिल करना तो ट्रंप जी के लिए बाएं हाथ का खेल था। वैज्ञानिकों को ही तो अपना काम, ट्रंप जी के नाम करने के लिए पटाने की जरूरत होती। कुछ ले-देकर, ट्रंप साहब सौदा पटा ही लेते। बल्कि हमें तो पक्का है कि सौदा भी सस्ते में ही पटा लेते। यूं ही थोड़े ही पूरा जमाना उनकी सौदागरी का कायल है। ट्रंप साहब तो डील की गाजर दिखाकर, बाकायदा युद्ध तक रुकवाने का दावा करते हैं, जैसे भारत-पाकिस्तान का पिछला युद्ध, हालांकि मोदी है कि मानता नहीं है। तब सौदे की गाजर दिखाकर क्या ट्रंप जी किसी वैज्ञानिक का नोबेल लायक काम भी अपने नाम नहीं लिखवा सकते थे? साहित्य को छोड़कर, कोई भी नोबेल ट्रंप जी चुटकियों में अपना बना सकते थे।
क्या है कि लेखक-वेखक किसी और ही अकड़ में रहते हैं। रस्सी जली रहती है, पर इनकी अकड़ नहीं जाती। और अर्थशास्त्र के नोबेल पर तो ट्रंप जी कभी भी डायरेक्ट दावा कर सकते थे। अर्थशास्त्र के जानकार नहीं होते, तो क्या धंधे में इतने कामयाब होते। पर शांति का नोबेल? ओबामा ने यही फंसा दिया। काश, नोबेल वालों ने युद्ध का नोबेल रख दिया होता। ओटोमैटिकली हर बार अमरीकी राष्ट्रपति को मिल जाता। हर साल नहीं तो भी कम से कम एक कार्यकाल में एक बार तो खुद ब खुद मिल ही जाता। पर नोबेल और वह भी शांति का। वैसे भी नोबेल की कंपनी तो हथियार बनाने की थी, उसे शांति के नोबेल की क्या सूझी? हथियार बनाने वाले भी शांति को प्रमोट करेंगे, तो युद्ध के चाहने वालों की कद्र कौन करेगा?
खैर! ट्रंप जी भी दूसरी पारी में पहले दिन से ही भिड़ गए। चेलेंज शांति के नोबल का था, सो बेचारे को युद्ध रुकवाने के काम में जुटना पड़ा। और अगले ने खोज-खोज कर युद्ध रुकवाए। अफ्रीका तक में छोटे-छोटे युद्ध रुकवाए और बड़ी शान से गिनवाए। बस रूस-यूक्रेन वाला युद्ध ही बार-बार हाथ से फिसलता रहा और रुकते-रुकते, रह गया। इसीलिए तो ट्रंप जी जेलेंस्की और पुतिन, दोनों से बहुत खफा हैं। बस उनसे पक्की वाली कुट्टी नहीं की है, वर्ना बोल-चाल बंद सी ही कर दी है। और ग़ज़ा पर इस्राइल का युद्ध भी। वैसे वह तो शुरू से ट्रंप जी के काबू में था। जिस दिन दिल करता, वार रुकवा देते। बस दो साल दिल ही नहीं किया। सोचा नेतन्याहू को भी अपने मन की कर लेने दें। पर अब और नहीं। दो साल के बाद फिलहाल और नहीं। नोबेल के फैसले के हिसाब से ऐन वक्त पर नेतन्याहू से कह दिया स्टॉप और सारी दुनिया देख रही है कि इस्राइल ने वार रोक दी है। पर क्या फायदा, इतने युद्ध रुकवाने का? दुनिया में इतनी शांति कराने का? नॉर्वे वालों ने नोबेल तो किसी और को दे दिया।
कभी-कभी ट्रंप जी को ऐसा लगता है कि अगर फ्रैंड मोदी ने खेल नहीं बिगाड़ा होता, तो शांति का नोबेल उनके ही हाथ होता। पर अगला तो फ्रैंड होकर भी खेल बिगाड़ने पर अड़ गया। जरा सा एक बार युद्ध रुकवाने के लिए थैंक यू कहने में, अगले का क्या जाता था? पर थैंक यू नहीं बोला तो नहीं ही बोला। थैंक यू बोलना छोड़ो, खुद अपने मुंह से तो कुछ नहीं कहा, पर इशारे से अपने अलग-अलग लेवल के अफसरों को लगा दिया, यह कहने पर कि वॉर रोकी, तो हमने खुद रोकी, उसमें किसी तीसरे का कोई काम नहीं था। यानी ट्रंप की वॉर रुकवाने की कहानी झूठी थी।
बात सिर्फ इतनी नहीं है कि ट्रंप की रुकवायी वॉर छह से घटकर पांच रह गयीं। पांच भी क्या छोटी गिनती है? पर माहौल बिगड़ गया। विरोधियों ने कहना शुरू कर दिया कि पांच की गिनती में झोल-झाल लगता है। ठीक से जांच हो। नोबेल कमेटी वाले घोटाले के आरोपों से डर गए। हाय! दुश्मन भी न करे, दोस्त ने वो काम किया है, दोस्ती का नाम बदनाम किया है!
पर ट्रंप जी रोयें भी तो रोयें कैसे? शांति का नोबेल मिला तो उनकी चेली, मरिया कोरिना मचाडो को ही है। वेनेजुएला के वाममार्गी निजाम का तख्तापलट करने का, उनके उस अमेरिका का ही तो हथियार है मचाडो, जिसे उन्हें अगेन ग्रेट बनाना है। अगेन ग्रेट, माने अगेन दुनिया भर में, जो निजाम पसंद नहीं आए, उनका तख्तापलट ! मचाडो की जीत में भी तो, उनकी ही जीत है। उसने भी नोबल मिलते ही सबसे पहले, ट्रंप का ही थैंक यू किया है। बड़ी चालू रकम है! क्या कीजिए, गुरु गुड़ ही रह जाए और चेला/ चेली शक्कर हो जाए, यह तो हमेशा से होते ही आया है। नोबेल न सही, नोबेल हासिल करने वाली के गुरु का दर्जा सही! दिल को खुश रखने को ट्रंप जी, ये ख्याल अच्छा है!
(इस व्यंग्य स्तंभ के लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लोक लहर के संपादक हैं।)
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