सत्ता के हर दमन का मुंहतोड़ जवाब देता किसान-आंदोलन आज देश की सबसे बड़ी आशा है

महीने भर के अंदर दूसरी बार किसान आंदोलन ने हरियाणा सरकार को घुटने टेकने और पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया। जाहिर है इससे किसान-आंदोलन में जबर्दस्त उत्साह का संचार हुआ है। दिल्ली के मोर्चों पर किसानों के जत्थे आने की रफ्तार बढ़ती जा रही है ।
दरअसल, मामला हरियाणा सरकार का है ही नहीं। वह तो केंद्र सरकार की सीमावर्ती चौकी की ही भूमिका में हैं, केंद्र के सीधे इशारे पर काम कर रही है। 26 नवम्बर को भी जब किसानों को दिल्ली पहुंचने से रोकने के लिए उसने दुश्मन सेना जैसा बर्ताव किया था, तब से ही वह इस मामले में केंद्र सरकार के सीधे dictates पर काम कर रही है।
हरियाणा के मुख्यमंत्री खट्टर की इसी सप्ताह दिल्ली में मोदी जी से मुलाकात हुई है, इसके पहले हिसार के showdown के बाद 17 मई को अमित शाह के साथ खट्टर की बैठक हुई थी। जो तय हुआ होगा, हरियाणा सरकार मोदी-शाह की उसी रणनीति पर काम कर रही है।
ऐसा लगता है कि सरकार भारी असमंजस में है, सुचिंतित रोडमैप के अभाव में आंदोलन से निपटने में हम उसकी नीतियों में flip-flop देख रहे हैं, एक कदम आगे, दो कदम पीछे !
टोहाना प्रकरण में सरकार ने पहले आक्रामक रुख अख्तियार किया। JJP विधायक देवेंदर सिंह बबली से किसानों की अन्यथा सामान्य किस्म की तकरार को मुद्दा बनाकर 3 किसान नेताओं को आपराधिक धाराओं में जेल में डाल दिया गया। संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा उनकी रिहाई की मांग को बड़बोले मंत्री अनिल विज ने यह कहते हुए ठुकरा दिया कि मामला कोर्ट में है, वहीं जाइये। बहरहाल, शीर्ष किसान नेताओं ने जब तुरंत जुझारू पहलकदमी ली, जो अब किसान-आंदोलन का ट्रेडमार्क बन चुका है, सीधे जेल भरो नारे के साथ हजारों समर्थकों के साथ वे टोहाना थाने में अनिश्चितकालीन धरने पर बैठ गए और पूरे हरियाणा के सभी थानों के घेराव का call दे दिया, तब घुटने टेक कर रविवार का दिन होने के बावजूद आधी रात को कोर्ट बैठी और 2 नेताओं को जेल से सरकार ने रिहा कर दिया, लेकिन नीतिगत असमंजस और bold face maintain करने की जिद देखिए कि एक नेता को तब भी नहीं छोड़ा गया, पर किसान जब सबकी रिहाई के बिना टस से मस होने को तैयार नहीं हुए तब अगले 24 घण्टे किसानों के घेराव -प्रदर्शन में और फजीहत कराने के बाद सरकार को आखिर सबको रिहा करना पड़ा।
किसानों के इस आरोप में दम लगता है कि मौजूदा दौर में मोदी और शाह के निर्देश पर तैयार की गयी सरकार की रणनीति का उद्देश्य किसानों का ध्यान दिल्ली के मोर्चों से हटाकर हरियाणा, विशेषकर दूरवर्ती पश्चिम हरियाणा के हिसार-जींद-फतेहाबाद-सिरसा पट्टी में उलझाए रखना है।
उससे भी बढ़कर यह कि किसानों ने जब से "मिशन उत्तर प्रदेश-उत्तराखंड" की घोषणा की है, तब से सरकार की नींद उड़ी हुई है। उन्हें हरियाणा में उलझाए रखना, किसान नेताओं को "मिशन उत्तर प्रदेश" पर ध्यान केंद्रित करने से रोकने की रणनीति का भी हिस्सा हो सकता है।
उत्तर प्रदेश के बेहद महत्वपूर्ण चुनाव के लिये तैयारी में मोदी-शाह जोड़ी उतर चुकी है, ऐसा लगता है कि कोरोना की दूसरी लहर पर " नियंत्रण " और अमित शाह के शब्दों में टीकाकरण के " विश्व कीर्तिमान" ( कुछ इसी आशय की बातें मोदी जी ने भी राष्ट्र के नाम अपने संदेश में कहीं ) से आश्वस्त सरकार किसानों से एक राउंड और जोर-आजमाइश के मूड में है।
सम्भव है, सरकार को उम्मीद रही हो कि बंगाल फतह के बाद किसान आंदोलन राजनीतिक तौर पर अप्रासंगिक हो जाएगा और फिर महामारी का फायदा उठाकर उनका बोरिया बिस्तर समेट दिया जाएगा। पर बंगाल पराजय से यह प्लान औंधे मुंह गिर गया।
इधर, बंगाल में अपने भाजपा हराओ अभियान से उत्साहित किसानों ने " मिशन उत्तर प्रदेश " का एलान कर दिया, कोरोना की दूसरी लहर के दबाव का सफलतापूर्वक मुकाबला करते हुए तथा हरियाणा में भाजपा सरकार की नाक में दम किये हुए किसान आंदोलन पूरे जोश तथा आत्मविश्वास से लबरेज़ आगे ही बढ़ता जा रहा है।
बंगाल पराजय के बाद, अगले 6-7 महीने में होने जा रहा राजनीतिक दृष्टि से देश के सबसे महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश का चुनाव भाजपा के लिए जीवन-मरण का प्रश्न है, क्योंकि इसका नतीजा 2024 के लिए फैसलाकुन होगा। उत्तर प्रदेश में योगी सरकार अपने चौतरफा कुशासन, साम्प्रदायिक-पुलिस-गुंडा राज, महिलाओं-दलितों-कमजोर तबकों पर बढ़ते हमलों, बेरोजगारी, छात्र-युवा असंतोष के कारण पहले से ही भारी एन्टी-इनकम्बेंसी का सामना कर रही थी, जिसकी अभिव्यक्ति हाल के पंचायत-चुनावों में हुई, जहां उसे हार का मुंह देखना पड़ा और वह पिछले चुनावों के प्रचण्ड बहुमत से बहुत नीचे गिरकर दूसरे नम्बर की पार्टी हो गयी।
अभी आयी कोरोना की दूसरी लहर ने रही सही कसर भी पूरी कर दिया। शहरी मध्यवर्ग समेत भाजपा का ग्रामीण सामाजिक आधार जो महामारी से बुरी तरह प्रभावित हुआ है, सरकार से बेहद निराश है और गुस्से में है। कोरोना के भयावह कुप्रबंधन ने मोदी-योगी दोनों की छवि को ध्वस्त कर दिया है।
कोढ़ में खाज यह कि, इन्हीं सब हालात की पृष्ठभूमि में, भाजपा के अंदर मोदी-योगी के बीच मे तनाव की खबरें भी हैं, जो वैसे तो कुछ tactical मसलों, मसलन सरकार व संगठन के चेहरे में कुछ बदलाव पर मतभेद लगता है, पर अंतिम विश्लेषण में वह 2022 और 2024 के मद्देनजर एक तरह का सत्ता-संघर्ष ही है। इसका समग्र निहितार्थ तो अभी भविष्य के गर्भ में है, परन्तु इसने उप्र. में भाजपा की चुनावी संभावनाओं को और धूमिल कर दिया है।
ऐसे नाजुक हालात में किसान आंदोलन के प्रति मोदी सरकार क्या रुख अख्तियार करेगी यह बेहद महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि आंदोलन से पूरे प्रदेश में बनने वाले प्रतिकूल माहौल, विशेषकर पश्चिम उप्र में बनते नए सामाजिक समीकरणों के फलस्वरूप भाजपा का सूपड़ा साफ हो जाने का अंदेशा है।
दरअसल, यह महामारी का काल किसी संवेदनशील सरकार के लिए आत्मनिरीक्षण और पुनर्विचार का अवसर होना चाहिए था
प्रधानमंत्री कोरोना-आपदा में जो गरीबों को मुफ्त अनाज बांटने का एलान करके अपनी पीठ ठोंक रहे हैं और चुनावी वैतरणी पार करने के लिए हाथ पैर मार रहे हैं, वह तीन कृषि कानूनों के लागू होने के बाद कहाँ से बांटते जब PDS सिस्टम ही खत्म हो चुका होता, जाहिर है गरीब जनता भूख से मर जाती।
मोदी की विनाशकारी नीतियों तथा महामारी की दुहरी मार से अर्थव्यवस्था के सम्पूर्ण ध्वंस के दौर में कृषि क्षेत्र ने जिस तरह देश को संभाला है, उसने हमारी अर्थव्यवस्था में कृषि की जो केन्द्रीयता है, उसे निर्विवाद रूप से पुनः स्थापित कर दिया है।
जो विकास दर मोदी के सत्ता संभालते समय 7% के आसपास थी वह लगातार गिरते हुए वित्तीय वर्ष 2020-21 में नकारात्मक ( - 7.3% ) हो गयी। वहीं कृषि एकमात्र क्षेत्र है, जहां सरकार की तमाम किसान विरोधी नीतियों के बावजूद भी 3.6 प्रतिशत की सकारात्मक वृद्धि हुई है। उत्पादन और रोजगार दोनों दृष्टि से यह हमारी अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा क्षेत्र है। इस वित्तीय वर्ष में कुल GDP में इसका योगदान 20% रहा। हमारी आधी आबादी तो अपनी आजीविका के लिए पहले से ही कृषि क्षेत्र पर निर्भर है ही, कोरोना की दोनों लहरों के दौरान जो बहुत बड़ी आबादी शहरों से बेरोजगार होकर गाँवों को लौटी, उन्हें अगर खेती न संभालती तो क्या मंजर होता, इसकी कल्पना करके ही सिहरन होती है।
पिछले दशकों में सम्पूर्ण जीडीपी में कृषि के घटते share को आधार बनाकर कारपोरेट लाबी द्वारा यह माहौल बनाया गया था कि हमारी अर्थव्यवस्था में कृषि की भूमिका और उसका महत्व घट गया है। यह सरकार की किसान-विरोधी, कारपोरेट-परस्त नीतियों के लिए बहाना था।
बहरहाल, अगर किसी को सचमुच भी ऐसा कोई भ्रम रहा हो, तो अब जब महामारी की आपदा ने यह बिल्कुल साफ कर दिया कि यूरोप, अमेरिका या अन्य विकसित देशों के विपरीत भारत में कृषि आज भी हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ है, हमारी विराट आबादी की आजीविका का मूल आधार है, उसका कोई विकल्प हमारे पास उपलब्ध नहीं है।
इस नई अनुभूति के आधार पर कोई संवेदनशील सरकार होती, ईमानदार नीति निर्माता होते तो वे जिस कृषि ने देश को बचाया है, उसे बचाने के लिए आगे आते, विनाशकारी नए कृषि कानूनों पर पुनर्विचार करते, उन्हें वापस लेते तथा किसानों की लोकतांत्रिक भागेदारी के माध्यम से चौतरफा कृषि विकास के लिए नई नीतियां और कदम उठाते। पर यह कारपोरेट के पक्ष में उनके वर्गीय पूर्वाग्रह का ही सुबूत है कि वे बेहयाई से उन कानूनों पर अड़े हुए हैं।
रास्ते यहां से दोनों निकलते हैं। एक सम्भावना अभी भी यह है कि सरकार tactical retreat करे और आंदोलन खत्म हो इसके लिए प्रयास करे क्योंकि इसकी राजनीतिक कीमत शायद अब पूरे शासक वर्ग के लिए unaffordable होती जा रही है।
दूसरा रास्ता यह है कि वह किसान-आंदोलन से होने वाले damage को कम करने की कोशिश करे। इसके लिए गन्ने के बकाए भुगतान जैसे उपायों के साथ उनके पास सबसे बड़ा हथियार सामाजिक ध्रुवीकरण के लिए low-intensity साम्प्रदायिक तनाव को हवा देना ही है, ताकि किसान आंदोलन के माध्यम से बनी सामुदायिक एकता और साम्प्रदयिक सद्भाव को छिन्न-भिन्न किया जा सके।
हाल के दिनों में इस तरह की खबरें लगातार आ रही हैं, विशेषकर उस पट्टी से जो किसान आंदोलन का गढ़ है। अलीगढ़, हाथरस,मथुरा, बुलंदशहर, आगरा, फिरोजाबाद में हाल में ऐसी कई घटनाओं की आड़ में उपद्रव फैलाने की कोशिश की गई।
नोएडा के रामपुर में व्यवसाईयों के बीच के मामूली विवाद को सांप्रदायिक स्वरूप दे दिया गया।
गोरक्षा के नाम पर मथुरा में एक व्यक्ति को गोली मार कर हत्या कर दी गयी, कई घायल हैं।
हरियाणा में ऐसे ही एक घटनाक्रम में हाई कोर्ट ने पूछा है कि इन स्वयंभू गोरक्षक vigilante समूहों को लोगों के घरों में छापा डालने और हमला करने का अधिकार किसने दिया है। लोग अभी भूले नहीं हैं बुलन्दशहर में इसी तरह के फर्जी मामले में पुलिस इंस्पेक्टर सुबोध सिंह की हत्या कर दी गयी थी।
इसी उद्देश्य से काशी-मथुरा के मंदिर-मस्जिद विवाद, CAA-NRC-NPR जैसे मुद्दों को आने वाले दिनों में हवा दी जा सकती है।
सारे रास्ते बंद हो जाने के बाद, चौतरफा संकट से घिरा फासीवादी कुनबा अपनी सत्ता को बचाने के लिए प्रत्याक्रमण में घटियापन और क्रूरता की किसी भी हद तक गिर सकता है।
जाहिर है किसान-आंदोलन को बेहद सजग रहना होगा और हर हाल में इस साजिश को नाकाम करना होगा। किसान-आंदोलन की सबसे बड़ी ताकत है उसकी एकता, जाति-धर्म-समुदाय-लिंग-भाषा-क्षेत्र की सीमा के पार विराट किसान एकता। इसकी हर हाल में रक्षा करना होगा तथा जरूरी सुधार और प्रयास करते हुए इसे और व्यापक बनाना होगा।
किसान-आंदोलन की दूसरी सबसे बड़ी ताकत यह है कि वह 1857 से लेकर 1947 तक चली आज़ादी की लड़ाई की बलिदानी परंपरा और उसके पवित्रतम मूल्यों का वारिस है, सामाजिक-राजनैतिक बदलाव की तमाम मुक्तिकामी धाराओं में उसकी जड़ें हैं, चंपारण-स्वामी सहजानन्द से लेकर-80 दशक के महान किसान आंदोलनों का वह सच्चा उत्तराधिकारी है, कारपोरेट सत्ता के खिलाफ जन-सत्ता के लिए उभरती वैश्विक लड़ाई का हिरावल है।
देश आज इतिहास के एक नाजुक मोड़ पर खड़ा है, यहां से एक रास्ता भारत के de facto फासिस्ट हिन्दू राष्ट्र बनने की ओर जाता है, 2025 के लिए जो RSS का शताब्दी वर्ष है, संघ का यही मिशन है; दूसरा रास्ता कारपोरेट-साम्प्रदयिक फासिस्ट सत्ता को निर्णायक शिकस्त देते हुए किसानों-मेहनतकशों के लोकतंत्र की ओर जाता है, जो आज़ादी के 75 वर्ष पूरे होने पर हर देशभक्त का स्वप्न है।
किसान-आंदोलन आज जिस मूल्यबोध, चट्टानी एकता और वज्र-संकल्प के साथ सत्ता के चरम दमन के सामने डटा हुआ है, वह हमारे धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की रक्षा तथा राष्ट्रीय नवनिर्माण की लड़ाई में भारतीय जनता की सबसे बड़ी उम्मीद है।
(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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