स्वामीनाथन रिपोर्ट जमा हुए 14 साल हो गए, लेकिन संसद में आधे घंटे भी चर्चा नहीं हुई : पी.साईनाथ

वाराणसी: 'साल 2014 के बाद भी किसानों की आत्महत्या की घटनाओं में भारी इजाफा हुआ है। अब तक 35 हजार किसान आत्महत्या कर चुके हैं, लेकिन सरकारी फाइलों से ये आंकड़े गायब हैं। उन्होंने कहा कि किसानों की आत्महत्या की घटनाएं कम नहीं हुई हैं। इतना जरूर हुआ है कि सरकार ने अब उनका सही आंकड़ा जारी करना ही बंद कर दिया है।'
ये कहना है प्रख्यात पत्रकार व किसान कार्यकर्ता पी. साईनाथ का। वे शुक्रवार को वाराणसी में आयोजित एक कार्यक्रम में बोल रहे थे। पी. साईनाथ का कहना है कि किसान, कृषि संकट और किसान की आत्महत्या का मुद्दा बीस साल से ज्यादा से चल रहा है। यूपीए सरकार ने भी किसान की आत्महत्या नंबर बदलने की कोशिश की, लेकिन 2014 में जब नई सरकार आई तो जहां 10 पैसे का बदलाव हो रहा था इसने 100 रुपये का बदलाव ला दिया।
उनके मुताबिक 2014 के बाद से किसान आत्महत्या का जो डेटा (एनसीआरबी) आया है उसकी पिछले 19 साल के डेटा से तुलना नहीं की जा सकती है क्योंकि डेटा काउंटिंग का तरीका बदल दिया गया। इस सरकार ने किसान की आत्महत्या नंबर बदलने के लिए किसान को ही अलग पार्ट में कर दिया है। जैसे- बटाई वाले किसान का अलग से एक कॉलम बनाया, लेकिन हमारे देश में बहुत से ऐसे बटाई वाले किसान हैं जिनके पास जमीन के कागजात नहीं होते हैं। बटाई वाले किसान जुबान से काम करते हैं।
एक किसान जो बटाई (दूसरों की जमीन पर खेती) वाला है अगर वो आत्महत्या करता है तो वह मजदूर की लिस्ट में आ जाता है और उसे किसान की लिस्ट में नहीं रखते, जिससे किसान आत्महत्या के आंकड़ें कम किए जाते हैं। इतना ही नहीं, हजारों किसानों की मौत की वजह सरकार कृषि मानती ही नहीं। उसकी वजह कुछ और बता दिया जाता है। और उन्हें अदर्स के कॉलम में डाल दिया जाता है।
साईनाथ कहते हैं कि सरकार किसानों के प्रति कोई ठोस नीति नही बना पा रही है। यह उदासीनता खतरनाक साबित होगी। रातों-रात की गई नोटबंदी और जीएसटी की मार देश के किसानों पर पड़ी है। जिस दौर में लोग सड़क पर आ गए, उस दौर में कॉरपोरेट घराने जमकर फले-फूले और अपनी आमदनी हजारों गुना ज्यादा बढ़ा ली।
एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि, 'किसान आज भी आत्महत्या करने पर विवश है, क्योंकि सरकार ने राष्ट्रीय बैंकों की क्रेडिट संरचना को खत्म कर दिया है। बैंक किसानों के स्थान पर उच्च मध्यमवर्गीय और कॉर्पोरेट घराना को लोन देने में दिलचस्पी दिखा रहे हैं।'
किसान और किसानों पर संकट के बारे में बोलते हुए साईनाथ ने कहा कि, 'किसानों की समस्या के मूल में नीति जनक गलतियां हैं। नीतियां बदलने से ही हालात में सुधार होंगे। स्वामीनाथन रिपोर्ट 2006 में जमा हुई। 14 साल बीत गए, लेकिन आधे-एक घंटे भी संसद में इस पर बहस नहीं हुई। मगर जब बात कारपोरेट सेक्टर की आती है तो चार घंटे में बिल पास हो जाते हैं।
किसानों के संकट के हल पर साईनाथ ने कहा, 'राष्ट्रीय किसान आयोग का गठन होना चाहिए और संसद का विशेष सत्र बुलाया जाना चाहिए, जिसमें सिर्फ कृषि संकट पर भी चर्चा की जानी चाहिए। इसमें तीन दिन स्वामीनाथन आयोग की रपट पर चर्चा हो और तीन दिन किसान क्रेडिट कार्ड पर। एमएसपी और सिंचाई समस्या का मुद्दा संसद में गंभीरता से उठाया जाना चाहिए। कृषि संकट के पीड़ितों को भी संसद में बुलाया जाए और उनकी बात भी सुनी जाए। उन्हें भी बोलने का मौका दिया जाए। देश भर के लगभग दस लाख किसानों को संसद के बाहर बुलाकर एक प्रोजेक्टर के माध्यम से संसद की कार्रवाई को भी दिखाने की व्यवस्था की जाए।'
ग्रामीण पत्रकार और पत्रकारिता पर बोलते हुए पी. साईनाथ ने कहा कि, 'ग्रामीण इलाकों में काम करने वाले पत्रकार सही मायने में काम कर रहे हैं। हमले भी इन्हीं पत्रकारों पर हो रहे हैं। हाल के सालों में जितने पत्रकारों की हत्याएं हुईं उनमें सभी ग्रामीण पत्रकार थे और वो क्षेत्रीय भाषाओं में काम करते थे।
'कितनी आज़ाद है ग्रामीण पत्रकारों की कलम' विषय पर संवाद में वरिष्ठ पत्रकार ने कहा कि, 'सियासी दल और माफिया गिरोह ग्रामीण क्षेत्र में काम करने वाले पत्रकारों को ही निशाना बनाते रहे हैं। यह स्थिति बेहद चिंताजनक है।' पत्रकारों को सतर्क रहने की बात कहते हुए कहा कि, 'ग्रामीण पत्रकारों पर हमले की घटनाएं बढ़ सकती हैं।' उन्होंने कहा कि मीडिया और पत्रकारिता में अंतर है। 'मीडिया कारपोरेट घरानों के लिए काम करती है और पत्रकारिता आम आदमी के लिए। दोनों के फर्क को समझना अब बेहद जरूरी है।'
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