“1984” 2022 में भी प्रासंगिक

जब राज्य में सब कुछ ठीक न हो और इस बारे में सोचना भी क्राइम थॉट हो, जहां अतीत के ब्रदरहुड को विलुप्त करके बिग ब्रदर का तानाशाही साम्राज्य बनाया जाए और इसके लिए किसी भी कीमत का अदा करना वाजिब कर दिया जाए। जॉर्ज ऑरवेल का उपन्यास 1984 उस क्राइम थॉट की कल्पना है जो ब्रदरहुड की बात करता है। जहां इस सच्चाई के प्रति आकर्षण की सजा मौत है।
दूसरे विश्व युद्ध के बाद 1949 में लिखे इस उपन्यास को चार दशक बाद के परिपेक्ष्य में रचा गया है, उपन्यास की हैरान करने वाली बात ये है कि दर्शाये गए समय के चार दशक बाद भी ये प्रासंगिकता की कसौटी पर खरा उतरता है। मौजूदा दौर में 1984 को पढ़ा जाना बिल्कुल वैसा ही है जैसे किसी पुराने सिनेमा को रीमेक करके पेश किया जाये और उसकी प्रस्तुति हर नज़रिये से वर्तमान की घटनाओं का प्रस्तुतीकरण नज़र आएं। सत्ता पर कब्ज़ा करने और महाशक्ति बनने की इस कहानी में कई बार पाठक को लगता है कि अरे ये तो उसके इर्द गिर्द का बखान है। कहानी का नायक बंद कमरे की घुटन से परे जब खुली खिड़की के पार देखता है तो वहां भी उसे यही सन्देश नज़र आता है -
युद्ध शांति है
आज़ादी ग़ुलामी है
अज्ञानता शक्ति है
दूसरे विश्व युद्ध का सामना कर चुका नायक अपने अतीत और वर्तमान में जिस विश्व को देख रहा है वहां इंसाननुमा रोबोट हैं और उनके कब्ज़े किये दिमागों में सत्ता द्वारा सम्प्रेषित विचार हैं। जहाँ उन्हें सोचने की आज़ादी नहीं, बल्कि एक ऐसा संसार है जिसमें सिर्फ उन्हें कमांड किया जा रहा है। सोचने वालों के लिए थॉट पुलिस की दहशत है और ब्रदरहुड का एक विचार। जहां नायक अपने विचार को छुपाकर उसके लिए युद्ध करने के जतन में लगा है और खुद भी नहीं जानता कि उसके जैसे लोगों की संख्या उसके अलावा एक है या असंख्य। इसका एहसास उस समय होता है जब नायक सोचता है -'क्या वह इकलौता है जिसके पास याददाश्त थी?'
ओशिनिया, जहां हर दिन इतिहास को मिटाया जा रहा है और शासक बिगब्रदर के तारीफों के पुल बनाने के लिए सत्य और वाजिब आंकड़ों की बलि दी जा रही है। भाषा को सीमित करके बिगब्रदर समझ के दायरे को सीमित करने की रणनीति भी अपनाए हैं। बिगबॉस के इस साम्राज्य में राज्य की हर मशीनरी की मदद से भाषा तक पर पूरा नियंत्रण किया जा रहा है। सत्ता के लिए उचित शब्द को रखना और अनुचित को सदा के लिए समाप्त कर देना भी एक मिशन है, जिसके लिए पूरा एक संगठन काम करता है। बिगब्रदर के इस साम्राज्य में लोगों को सिर्फ ये एहसास दिलाया गया है की वह आज़ाद हैं, जबकि हर कार्यकर्ता पर टेलीस्क्रीन से नज़र रखी जा रही है और उनकी हर गतिविधि का संज्ञान लिया जा रहा है।
इंगसॉक (INGSOC) जॉर्ज ऑरवेल द्वारा तैयार एक पृष्ठभूमि है जिसमें उसके उपन्यास के किरदार 1984 में अपनई भूमिका निभा रहे हैं। इंगसॉक ही वह विचारधारा है जिसके नीति नियम पर यहाँ की राजनीतिक चल रही है। अत्त्याचार, अविश्वास और दहशत के बीच बढ़ती इस कहानी में उम्मीद के पल भी हैं, जैसे घोर अवसाद की परिस्थितियों में जब नायक अपनी डायरी में दर्ज करता है - 'अगर कहीं उम्मीद है, तो वह श्रमिकों के पास है।'
विश्व की भौगोलिक, राजनैतिक और सामाजिक व्यवस्था के बीच आज़ादी की तलाश करते विंस्टन की कहानी जहां उसके जीवन में प्रेम भी अनिश्चितताओं के साथ आता है। जहां उसपर हर समय बिग ब्रदर की निगाह है, मगर फिर भी ब्रदरहुड को बचाने की हर मुमकिन कोशिश वह करना चाहता है। जॉर्ज ऑरवेल की ये किताब इसलिए भी पढ़ी जानी चाहिए ताकि स्वतंत्रता के प्रति सचेत रहा जा सके। और इसलिए भी पढ़ी जानी चाहिए कि जाना जा सके कि सत्तासीन से स्वतंत्रता को बचाने के लिए किस त्याग की ज़रूरत है।
जॉर्ज ऑरवेल के बारे में –
अंग्रेजी उपन्यासकार, राजनीतिक लेखक और पत्रकार जॉर्ज ऑरवेल का नाम एरिक आर्थर ब्लेयर था। 25 जून 1903 को भारत के बिहार जिले में इनका जन्म हुआ। पिता सरकारी कर्मचारी थे। पढ़ाई के लिए मां के साथ ब्लेयर को लन्दन भेजा गया मगर भारत वापसी की इच्छा थी, जिसे पूरा करने के लिए 1922 में इंडियन इम्पीरियल पुलिस में भर्ती हुए और बर्मा (म्यांमार) आ गए।
साम्राज्यवाद से घृणा जताने का विकल्प लेखन बना और 1927 में लन्दन वापस आ गए। घुमक्कड़ी पसंद थी, मगर ख़राब सेहत ने इसकी इजाज़त नहीं दी। इस बीच लघु कहानियां और लेख आजीविका का साधन बने रहे। जॉर्ज ऑरवेल के उपनाम से पहली रचना 'डाउन एंड आउट इन पेरिस एंड लन्दन' दो देशों की राजधानी की गरीबी पर लिखा गया संस्मरण और यात्रा वृत्तांत था। ऑरवेल लोकप्रिय शब्दों को गढ़ने में माहिर माने गए। उपन्यास लेखन और पत्रकारिता की मदद से बड़ी ही सरलता से इन्होंने अपनी बात कहना जारी रखा। परिणाम स्वरूप ऑरवेल की साहित्यिक रचनाओं को पूरे विश्व में लोकप्रियता मिली। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद लिखी उन्नीस सौ चौरासी, स्पेन के गृहयुद्ध पर लिखी होमेज तो केटलोनिया तथा एनीमल फॉर्म उनकी उत्कृष्ट कृतियां हैं। जॉर्ज ऑरवेल का निधन 1950 में मात्र 46 वर्ष की उम्र में हो गया था।
अभिषेक श्रीवास्तव के बारे में -
अभिषेक श्रीवास्तव उत्तर प्रदेश के शहीदी जिले ग़ाज़ीपुर से हैं। इन्होने अपनी शिक्षा काशी हिंदू विश्वविद्यालय से गणित में करने के बाद पत्रकारिता का रुख किया। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन से पत्रकारिता में प्रशिक्षण के बाद एक दशक मीडिया से जुड़े रहे। तत्पश्चात स्वतंत्र लेखन और अनुवाद की दुनिया में दाखिल हुए। अगोरा प्रकाशन बनारस से 2018 में छपी ‘देसगांव’ इसकी पहली पुस्तक है। इस पुस्तक में देश के नौ राज्यों में चल रहे जन-आंदोलनों पर केंद्रित रिपोर्ताज का संकलन है। 2022 में पंजाबी में ‘आम आदमी के नाम पर’ प्रकाशित हुई। राजकमल प्रकाशन से दो अनुवाद प्रकाशित हुए जिनमें एक ‘आरटीआई कैसे आई’ तथा जॉर्ज ऑरवेल की “1984” है। राजकमल प्रकाशन से एक यात्रा संस्मरण तथा ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस से एक अनुवाद प्रकाशनाधीन है।
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