कैसे नवउदारवाद की ओर से मैक्सिको ने मुंह फेरा!

मैक्सिको के राष्ट्रपति लोपेज ओब्राडोर ने राष्ट्रपति पद संभालने के बाद अपने पहले ही संबोधन में नवउदारवाद को एक ‘सत्यानाश’ और ‘आपदा’ करार दे दिया। मोरेना (एमओआरईएनए) नाम की जिस वामपंथी राजनीतिक पार्टी के वह नेता हैं, उसने अपने कार्यक्रम में ही कह दिया था कि वैश्विक आर्थिक संकट ने नवउदारवादी मॉडल की विफलता को उजागर कर दिया है। अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संगठनों द्वारा थोपी गयी आर्थिक नीति का नतीजा है कि मैक्सिको सबसे धीमी वृद्घि दर वाले देशों में है। मोरेना के कार्यक्रम में इसकी जगह पर यह पेशकश की गयी थी कि शासन को विदेशी दखलंदाजी के बिना, विकास का नेतृत्व करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेनी चाहिए।
राष्ट्रपति ओब्राडोर, इस परिप्रेक्ष्य के साथ ऐसे अनेक बदलाव लागू कर रहे हैं, जो नवउदारवाद की ओर से मुंह फेरे जाने और उस तरह के नियंत्रणकारी निजाम के दोबारा स्थापित किए जाने को दिखाते हैं, जो पिछले कई दशकों से इस देश के नेतृत्व के लिए पूरी तरह से अछूत ही बना हुआ था। अचरज की बात नहीं है कि पश्चिमी प्रेस उन पर इस गुस्ताखी के लिए हमले कर रही है और लंदन-आधारित पत्रिका, द इकॉनमिस्ट ने मई के आखिर के अपने अंक में उनकी तस्वीर अपने फ्रंट कवर पर लगाते हुए उसे शीर्षक दिया था ‘मैक्सिको का झूठा मसीहा’
पश्चिमी मीडिया के इस हमले के संबंध में एकदम से ध्यान खींचने वाली बात यह है कि चूंकि वे इससे बखूबी परिचित हैं कि नवउदारवाद ने विश्व अर्थव्यस्था को किस दलदल में फंसा दिया है, वे विकसित दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं के मामले में तो नवउदारवादी निजाम से दूर हटने के कदमों के प्रति कहीं ज्यादा सहानुभूति का प्रदर्शन करते हैं, लेकिन तीसरी दुनिया की किसी भी अर्थव्यवस्था के नवउदारवाद से जरा से भी विचलन पर अपनी पूरी ताकत के साथ टूट पड़ते हैं। यह सिर्फ एक दोरंगी नीति या रुख का ही मामला नहीं है। यह साम्राज्यवाद की परिघटना के ही मूर्त रूप को दिखाता है, जिसमें तीसरी दुनिया में आय के संकुचन को, विकसित दुनिया में मुद्रास्फीति-मुक्त आर्थिक बहाली के लिए जरूरी समझा जाता है। और मैक्सिको की प्रतिव्यक्ति आय भले ही दक्षिण एशिया या उप-सहारावी अफ्रीका से ज्यादा हो, है तो वह तीसरी दुनिया का ही हिस्सा और वह भी उसका वाकई एक महत्वपूर्ण हिस्सा, क्योंकि वह एक तेल उत्पादक देश है।
वास्तव में ओब्राडोर के सुधार, तेल क्षेत्र में खासतौर पर महत्वपूर्ण हैं। जहां अंतर्राष्ट्रीय पूंजी की मांग तेल क्षेत्र का और ज्यादा निजीकरण करने की ही रही है, ओब्राडोर की सरकार ने इससे ठीक उल्टी दिशा में कदम उठाए हैं, यानी तेल क्षेत्र के दोबारा से राष्ट्रीयकरण की ओर। इस उद्देश्य के लिए उसने राष्ट्रीय पॉवर ग्रिड के लिए यह अनिवार्य कर दिया है कि वह पहले सरकारी स्वामित्ववाली कंपनी पेमेक्स से तेल खरीदेगा न कि निजी तेल कंपनियों से। तेल की तलाश (एक्सप्लोरेशन) के मामले में भी उसने, तेल की तलाश के अधिकारों के लिए लगायी जाने वाली सभी बोलियों को रोक दिया है। ये बोलियां मुख्यत: विदेशी निजी कंपनियों के लिए ही आयोजित की जा रही थीं।
मैक्सिको ने घरेलू तेल शोधन क्षमता के विस्तार में निवेश करना तो चार दशक से ज्यादा से बंद ही कर रखा था। इसके बजाए, वह अपना ज्यादा से ज्यादा कच्चा तेल शोधन के लिए अमेरिका भेजता था। लेकिन, ओब्राडोर सरकार ने मैक्सिको में नयी तेल शोधन क्षमताएं स्थापित करना शुरू कर दिया है, जिनका संचालन पेमेक्स द्वारा किया जाएगा, जिसे सरकार से वित्तीय सहायता भी मिल रही है। इस तरह, तेल की तलाश व उसके खनन से लेकर तेल शोधन तक, तेल क्षेत्र से जुड़ी हरेक गतिविधि में ओब्राडोर सरकार, मैक्सिकी शासन की भूमिका को बढ़ा रही है, जाहिर है कि विदेशी निजी स्वार्थों की कीमत पर ही वो ऐसा कर रही है। इसके महत्वपूर्ण राजकोषीय निहितार्थ भी हैं। पेमेक्स के मुनाफे जाहिर है कि सरकारी खजाने में आते हैं और देश की अर्थव्यवस्था में पेमेक्स का सापेक्ष आकार जितना कम होगा तथा उसके मुनाफे जितने कम होंगे, उतना ही ज्यादा सरकार को अपने खर्चों के लिए राजस्व के अन्य स्रोतों पर निर्भर रहना पड़ता।
इन हालात में घरेलू तौर पर तेल पर कर वसूली, उसके राजस्व का एक महत्वपूर्ण अन्य स्रोत रही थी, जैसा कि भारत में इस समय मोदी सरकार कर रही है। इसलिए, मैक्सिको के तेल उद्योग के निजीकरण का नतीजा यह हो रहा था कि वहां तेल पर ज्यादा कर लगाया जा रहा था और इसलिए तेल के दाम ज्यादा थे। मेक्सिको एक महत्वपूर्ण तेल उत्पादक था, जिसने 2019 में विश्व के कुल तेल उत्पादन का 2 फीसद पैदा किया था, खुद लेकिन मैक्सिको में तेल की कीमतें समूचे उत्तरी अमेरिका में सबसे ज्यादा थीं। ओब्राडोर बहुत समय से तेल के ऊंचे दाम का विरोध करते आ रहे थे और तेल के मामले में राजकीय क्षेत्र का विस्तार, उनके ऊंचे दाम के विरोध को अमल में उतारने का भी काम करेगा।
लेकिन, ऐसा नहीं है कि ओब्राडोर ने अकेले तेल क्षेत्र में ही नवउदारवादी नीतियों को पलटा हो। विदेशी कंपनियों के लिए, जिनमें कनाडियाई कंपनियां ही खास हैं, खनन के तमाम नये सौदे भी रोक दिए गए हैं। इरादे हैं, मैक्सिको के लिथियम भंडारों का राष्ट्रीयकरण करने के।
मैक्सिको के प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण फिर से शासन के हाथ में लाने के साथ ही साथ, ओब्राडोर सरकार देश के केंद्रीय बैंक का नियंत्रण भी फिर से अपने हाथ में लेने की योजना बना रही है। हालांकि, देश के केंद्रीय बैंक का गवर्नर नाम को तो सरकार द्वारा नियुक्त किया जाता है, फिर भी इस पद पर नियुक्त किया जाने वाला व्यक्ति नियमत: ऐसा होता है, जो अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी को मंजूर हो। और ऐसा व्यक्ति निरपवाद रूप से ऐसी नीति पर चलता है जिसमें मुद्रास्फीति पर नियंत्रण को, अर्थव्यवस्था की वृद्धि पर प्राथमिकता दी जाती है।
अब ऐसी मौद्रिक नीति की आलोचना का मतलब यह नहीं है कि मुद्रास्फीति को अनदेखा ही कर दिया जाना चाहिए। इस आलोचना का अर्थ यह है कि मुद्रास्फीति से भिन्न तरीके से निपटा जाना चाहिए, न कि आर्थिक वृद्धि में ही कटौती करने के जरिए, जो कि कड़ी मुद्रा नीति में किया जाता है। यह मुद्रास्फीति के संबंध में एक वैकल्पिक परिप्रेक्ष्य की मांग करता है। इस पर लातीनी अमरीका में काफी बहस होती रही है और इस संबंध में यहां थोड़ी सी चर्चा प्रासंगिक होगी।
तीसरी दुनिया की किसी भी अर्थव्यवस्था में आर्थिक वृद्घि को तेज करने के किसी भी प्रयास को, अनेक वास्तविक ढांचागत सीमाओं का सामना करना पड़ता है। ये सीमाएं सबसे बढक़र कृषि क्षेत्र से आती हैं, जहां न सिर्फ उत्पाद में बढ़ोतरी सुस्त रफ्तार से होती है बल्कि इसके लिए शासन के सचेत हस्तक्षेप की भी जरूरत होती है, भूमि सुधारों के रूप में और लागत सामग्री मुहैया कराने तथा ऐसे ही अन्य कदमों के रूप में। इसलिए, ऐसी अर्थव्यवस्था में वृद्घि दर को बढ़ाने की कोशिश, कृषि के क्षेत्र में बनी हुई सीमा के चलते, फौरन मुद्रास्फीति पैदा कर देती है। इन हालात में, अगर मुद्रास्फीति पर नियंत्रण रखना ही सर्वोच्च लक्ष्य हो जाता है, तो मुद्रास्फीति पर यह नियंत्रण, उसके सिर उठाते ही, अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर में कटौती किए जाने का रास्ता ले लेता है। इसका नतीजा यह होता है कि अर्थव्यवस्था हमेशा ही कम आय के जाल में फंसी रहती है।
इस जाल से निकलने के लिए यह जरूरी होता है कि मौद्रिक नीति और आम तौर पर आर्थिक नीति, हाथ बांधने वाली नहीं रहे और वह वृद्धि को बढ़ाने का लक्ष्य लेकर चले। इस प्रक्रिया में अगर मुद्रास्फीति पैदा होती है तो उससे, आर्थिक वृद्घि की संभावनाओं को खतरे में डाले बिना, अलग से निपटा जाए। इसके लिए, राशनिंग के जरिए तथा ‘आपूर्ति प्रबंधन’ के कदमों के जरिए, सीधे बाजार में हस्तक्षेप किया जा सकता है और सीधे शासन द्वारा शुरू किए गए कदमों के जरिए, तंगी वाले क्षेत्रों में उत्पाद में बढ़ोतरी की जा सकती है।
कहने की जरूरत नहीं है कि नवउदारवादी दौर में, मुद्रास्फीति नियंत्रण को दूसरे सभी लक्ष्यों के ऊपर रखा जाता है, जिसका मतलब होता है अर्थव्यवस्था को हमेशा कम आय के जाल में फंसाए रखना। ऐसा किसी भ्रमित बुद्धि समझदारी की वजह से नहीं होता है।
यह तो साम्राज्यवाद की कार्य पद्धति ही है, जिसका यह आग्रह होता है कि तीसरी दुनिया की अर्थव्यवस्थाएं संकुचित ही बनी रहें, ताकि वहां पहले से पैदा होने वाले कृषि जिंस और दूसरे ऐसे कृषि जिंस भी जिनकी ओर खेती की जमीनों को मोड़ा जा सकता हो, कीमतों में खास बढ़ोतरी के बिना, विकसित दुनिया की मांग के लिए मुहैया कराया जा सके। इसलिए, मौद्रिक नीति पर ऊपर से हानिरहित नजर आने वाली बहस वास्तव में, उस निजाम को पलटने से जुड़ी बहस है, जो नवउदारवादी दौर में साम्राज्यवाद द्वारा तीसरी दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं पर थोपा जाता है। और यह वह काम है जो राष्ट्रपति ओब्राडोर ने अपने ऊपर लिया है। इसके कारण उन्हें पश्चिमी मीडिया की हिकारत का सामना करना पड़ रहा है कि वह तो, द इकॉनमिस्ट के शब्दों में ‘राज्यवाद, राष्ट्रवाद और 1970 के दशक के अतीत-मोह’ को ही, पकडक़र बैठे हुए हैं।
ओब्राडोर नवउदारवादी एजेंडा को पलटने में कितने कामयाब होते हैं, यह तो वक्त ही बताएगा, फिर भी साम्राज्यवाद के लिए भी उनके प्रोजेक्ट को पटरी से उतारना आसान नहीं होगा। हालांकि, मैक्सिको के राष्ट्रपति चुनाव में अभी भी कुछ वक्त है, फिर भी विधायिका के तथा प्रांतीय गवर्नरों के हाल के चुनाव दिखाते हैं कि उन्हें उल्लेखनीय जन समर्थन हासिल है। और इतना ही नहीं, उन्होंने पीआरआइ जैसी अन्य राजनीतिक पार्टियों का भी समर्थन हासिल कर लिया है। मैक्सिकी क्रांति से निकली इस पार्टी ने दशकों तक मैक्सिको पर राज किया था और आज समूचा मैक्सिकी वामपंथ, किसी जमाने में उसके साथ जुड़ा रहा था। याद रहे कि बोल्शेविक क्रांति की पृष्ठभूमि में एम एन राय ने जिस कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ मैक्सिको की स्थापना की थी, उसका तो अब अस्तित्व ही खत्म हो चुका है। इसलिए, साम्राज्यवाद के लिए ओब्राडोर के खिलाफ वैसा संसदीय तख्तापलट कराना मुश्किल होगा, जैसा उसने ब्राजील में लूला के खिलाफ कराया था।
मैक्सिको में जो कुछ हो रहा है, उसमें भारत के लिए भी महत्वपूर्ण सबक हैं। हालांकि, विकसित दुनिया खुद नवउदारवाद से पीछा छुड़ाने की कोशिशें कर रही है, तीसरी दुनिया का जो भी देश ऐसा करने की कोशिश करेगा, उस पर उसकी तरफ से जरूर हमला किया जाएगा। और इस हमले में, हर तरह के हथियारों का इस्तेमाल किया जाएगा, जिनमें इस तरह के प्रयासों के खिलाफ धुर-दक्षिणपंथी कतारबंदियों का खड़ा करने से लेकर, क्यूबा की तरह आर्थिक युद्घ का इस्तेमाल करने तक और बहुत ही हुआ तो सैन्य हस्तक्षेप तक, का इस्तेमाल किया जाएगा। लेकिन, अगर जनता एकजुट बनी रहती है और इस तरह राजनीतिक कतारबंदियों के उल्लेखनीय हिस्से को एकजुट करा देती है, तो इन सारी तिकड़मों को शिकस्त दी जा सकती है। नवउदारवाद से उबरना हमारे जैसे देशों के लिए एक फौरी जरूरत बन गया है और इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए जनता को गोलबंद किया जाना चाहिए।
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