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महामारी, कौन सी महामारी?

ममता बनर्जी के लिए बेहतर यही होगा कि वे कोविड-19 के संकट से निपटने की तैयारियों को नज़रअंदाज़ न करें, क्योंकि केंद्र में बैठी सरकार कुछ और नहीं बल्कि बदला चाहती है।
महामारी, कौन सी महामारी?

नई दिल्ली में बैठी सरकार बिना किसी शक़ के दो चीजों को साबित करने पर तुली नज़र आती है: पहला, कि वह सिर्फ पार्टी-राजनीति और सत्ता हथियाने में दिलचस्पी रखती है, फिर चाहे देश को जो भी कीमत चुकानी पड़े। दूसरा, शासन-प्रशासन से संबंधित मामले इसकी प्राथमिकताओं की सूची में नहीं आते ही नहीं हैं।

खैर, किसी को सत्ता चलाने वाले डबल-इंजन को बताना चाहिए कि उन्हे परेशान होने की जरूरत नहीं है। उपरोक्त दोनों बाते उनके सत्ता में आने के तुरंत बाद ही साबित हो गई थी - निश्चित रूप से 8 नवंबर 2016 तक तो यह साबित हो ही गया था जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी की घोषणा की थी। यह भी स्पष्ट हो गया था कि मोदी सरकार शासन करने का दृष्टिकोण धुंधला है।  

दुर्भाग्य से, भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) फिर से निर्वाचित हुई और तब से नागरिकों को उनके द्वारा दिए गए जनादेश पर पुनर्विचार करने के लिए 2.5 करोड़ से अधिक कारण हैं और उनमें से 2,75,000 से अधिक लोगों को देश की दुखद और शासन द्वारा पैदा की गई आपदा की दूसरी लहर के सामने निराशा में सिर झुकाने पर मजबूर होना पड़ा है। इस तबाही के नज़ारे से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह लापता नज़र आते हैं। इस संकट से निपटने में राज्यों की मदद करने के बजाय, वे ‘सिस्टम’ को दोषी बता रहे हैं

पश्चिम बंगाल में देश के विभाजन के बाद हुए भयंकर दंगों के बाद पैदा हुए सबसे बड़े संकट से निपटने में मोदी निज़ाम ने पूर्ण असफलता का प्रदर्शन किया है। सबसे पहले, सत्ताधारी पार्टी ने भारत के एक गुलाम चुनाव आयोग (ईसीआई) को एक घातक महामारी के बीच पांच सप्ताह तक चलाने वाले आठ चरणों के मतदान करने पर मजबूर किया, जो अभियान महामारी के रूप घटना में बदल गया था, जिसका बड़ा असर अभी आना बाकी है। 

अब, एक और सरकारी कार्यालय महामारी के खिलाफ लड़ाई में निर्विवाद रूप से नुकसान पहुंचा रहा है। वह राज्यपाल जगदीप धनखड़ का दफ़्तर है, जिनके जुलाई 2019 में कोलकाता में आने के बाद से वे लगातार अपने कार्यालय की गरिमा को जनता की नज़रों में अपमानित कर रहे हैं। उन्होने तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के दो मंत्रियों, कोलकाता के एक पूर्व मेयर और एक विधायक की गिरफ्तारी को हरी झंडी दे दी। चूंकि दोनों मंत्रियों, फिरहाद हकीम और सुब्रत मुखर्जी की संकट के प्रबंधन में महत्वपूर्ण भूमिकाएं हैं, इसलिए गिरफ्तारी के इस वक़्त पर गौर करने की जरूरत है। [हाकिम शहरी विकास और नगरपालिका मामलों के मंत्री हैं, जबकि मुखर्जी पंचायत और ग्रामीण विकास मंत्री हैं।]

गिरफ्तारियां "नारदा स्टिंग" मामले से जुड़ी हुई हैं, जिसमें कई टीएमसी नेताओं और पुलिस अधिकारियों को विभिन्न मसलों को सुविधाजनक बनाने के वादे के बदले मुद्रा-नोटों की गड्डियां स्वीकार करते हुए वीडियो पर कैद किया गया था। यह स्टिंग ऑपरेशन 2014 में हुआ था, लेकिन इसके विडियो 2016 में सार्वजनिक हुए, वह भी बंगाल विधानसभा चुनाव से ठीक पहले, स्पष्ट रूप से भाजपा के लाभ के लिए ऐसा किया गया था। पांच साल बीत चुके हैं और शासन की तलवार यानि केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) ने आरोप पत्र अब दायर किए है।

मामला पांच साल पुराना है। हाल ही में इस मामले के बारे में कोई खास चर्चा सामने नहीं आई थी, जिसने मामले को इतना तूल दिया हो और उसे बिल्कुल बदल दिया, फिर गिरफ्तारी करने की बात तो छोड़ ही दीजिए। बेशक, एक बात के अलावा: कि सत्तारूढ़ टीएमसी ने हाल ही में संपन्न राज्य चुनावों में भाजपा का जमीनी सफाया कर दिया है, जबकि ईसीआई सहित आधिकारिक मशीनरी के सभी उपलब्ध तत्वों का मोदी शासन ने खुले तौर पर दुरुपयोग किया और मुख्यमंत्री ममता पर रसोई सिंक फेंकने के बावजूद बनर्जी और उनकी पार्टी ने भाजपा को हरा दिया। मोदी और शाह ने करीब एक महीने तक दिल्ली और बंगाल के बीच करीब 50 सभाए कीं और फिर भी उन्हे बड़ी हार का मुह देखना पड़ा। अभियान और अन्य दलों के नेताओं को खरीदने पर बेंतहा पैसा खर्च किया गया जो अपने में गंभीर रूप से खराब निवेश बन गया। 

इस प्रकार, अब, महामारी के बीच में, भाजपा हार का बदला लेना चाहती है। कोई यह नहीं कह रहा है कि भ्रष्टाचार के दोषियों को दंडित नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन, निश्चित रूप से, जांच और न्यायिक प्रक्रिया अब तक बिना किसी गिरफ्तारी के चल रही थी। गिरफ्तार किए गए लोगों से चल रही जांच में कोई भी जोखिम नहीं था, न ही वे सीबीआई जांच को प्रभावित करने की स्थिति में हैं, खासकर इतनी देर के बाद तो कतई नहीं हैं। 

फिर मुकुल रॉय और सुवेंदु अधिकारी का मामला भी काफी जिज्ञासा वाला है। रॉय अब एक भाजपा विधायक है, वे 2017 में टीएमसी से अलग हो गए थे, और सुवेंदु अधिकारी अब पश्चिम बंगाल विधानसभा में विपक्ष के नेता हैं, जो विधानसभा चुनाव से ठीक पहले, 2020 दिसंबर में भाजपा में चले गए थे, और उन्होने खुद माना कि 2014 से हिंदुत्व की ताकतों के साथ वे खेल में थे। उन दोनों को पैसे लेते हुए वीडियो में दिखाया गया था, फिर भी चार्जशीट में उनके नाम नहीं हैं। मूल प्राथमिकी में उनका नाम 11 अन्य लोगों के साथ था, लेकिन इसकी कोई संभावना नहीं है कि वे जल्द ही किसी जेल की कोठरी में नज़ए आएंगे। निश्चित रूप से इस मामले में ऐसा नहीं होगा। 

कलकत्ता उच्च न्यायालय ने चार गिरफ्तार लोगों को जमानत देने पर 19 मई को विचार किया था, लेकिन अब इसकी सुनवाई गुरुवार को होगी। सरकार को हाकिम और मुखर्जी की जगह अन्य नेताओं तलाश करनी पड़ सकती है क्योंकि संक्रमण और मौतों की लहर को रोकने का संघर्ष जारी है।

संकट से निपटने में पर्याप्त मंत्रिस्तरीय प्रतिभा होनी चाहिए। हालाँकि, कुछ ऐसी चीजें हैं जिनसे बनर्जी और उनकी सरकार को सावधान रहना होगा। सूची में सबसे ऊपर किसी भी किस्म के इनकार, आत्मतुष्टि और बेज़ा शक्ति के प्रदर्शन से बचना होगा। सतर्कता की जरूरत को ध्यान में रखते हुए बंगाल सरकार को अंधी और अक्षम केंद्र सरकार और उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सरकार के खराब रिकॉर्ड का अध्ययन करना होगा। 

क्योंकि दोनों ने ही इस बात से इनकार किया है कि कोई बड़ा संकट है या व्यावहारिक रूप से समस्या से हाथ धोए बैठे हैं, जब समस्या बढ़ती हैं, तो जिम्मेदारी और दोष दूसरों पर डालने का प्रयास करते हैं: जैसे कि अन्य राज्य सरकारों; अंतरराष्ट्रीय मीडिया; या फिर "आम लोगों", पर कि वे मास्क नहीं पहनते है या आपस में दूरी बनाए रखने से इनकार करते हैं। न तो सरकार को हालात की परवाह है और न ही उससे उपजे संदेश की कोई परवाह है। 

जब कोई संदेह हो, निश्चित रूप से, अगर कोई भाजपा और मोदी-शाह शासन का अनुसरण करता है, तो कोई भी अपने आप को अंधा कर सकता है, क्योंकि जनता के सामने बड़ा सफ़ेद झूठ बोला जा रहा है। इस प्रकार जब विपक्ष ने सरकार को 12 मई को महामारी से निपटने के लिए 12 पार्टियों के नेताओं ने हस्ताक्षरित पत्र भेजा तो भाजपा ने जवाब दिया कि कांग्रेस ने वैक्सीन के प्रति विरोध बढ़ाया जबकि मोदी ने सितंबर और अप्रैल के बीच छह बार मुख्यमंत्रियों को दूसरी लहर की चेतावनी दी थी। आफ़सोस कि मोदी ने इस अंतर्दृष्टि पर कोई कार्रवाई नहीं की, बल्कि विशाल कुंभ मेले को प्रोत्साहित किया और बंगाल को आठ चरणों के मतदान के लिए मजबूर किया और अपनी रैलियों में भारी भीड़ खींचने का दावा किया - दो नहीं, तीन नहीं, बल्कि लगभग बीस बार ऐसा किया गया।

इस प्रकार अजय मोहन बिष्ट जिन्होने 16 मई को कहा था कि उत्तर प्रदेश सरकार ने "पहली लहर को हरा दिया है ... और दूसरी पर पकड़ बना ली है और तीसरे के लिए अच्छी तरह से तैयार हैं"। यह सब उस वक़्त कहा जा रहा है जब राज्य के विभिन्न हिस्सों में शवों को गंगा के किनारे दफनाया या गंगा में बहाया जा रहा है। 

ऐसा लगता है कि संक्रमण की संख्या में थोड़ी गिरावट आई है, हालांकि देश भर में मृत्यु दर कम नहीं हो रही है। लेकिन वे सभी लोग जो अपनी नाक से परे नहीं देख सकते हैं, वे जानते हैं कि भारत की पूरी की पूरी संक्रमित संख्या सिर्फ एक रुझान को दर्शाती हैं। मौतों और संक्रमणों की वास्तविक संख्या, विशेष रूप से दूसरी लहर के मामलों को पांच से गुणा किया जा सकता है और फिर भी वास्तविक संख्या का अंदाज़ा लगाना मुश्किल है।

विशेष रूप से उत्तर प्रदेश में, जहां लोगों को गिरफ्तार किया जा रहा है, पीटा जा रहा है या फिर महामारी की हक़ीक़त के बारे में बोलने पर धमकाया जा रहा है। लेकिन यह एक उदाहरण है जिसे ममता बनर्जी नज़रअंदाज करेंगी तो अच्छा होगा। बजाय इसके राज्य सरकार को 15 दिनों के लॉकडाउन को चरणबद्ध तैयारियों के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार और शोधकर्ता हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

इस लेख को अंग्रेजी में इस लिंक के जरिए पढ़ सकते हैं

Pandemic, What Pandemic?

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