खैरलांजी से हाथरस- दलित महिलाओं के बलात्कार की दोहराई जाती कहानी

भय और दर्द की भयानक चीखें, पूरी तरह से शक्तिहीनता और समाज में कमजोर होने की भावना, मनहूस खतरों का खौफ, जो सरासर सच एवं बेहद क्रूर है- यह सब उस 19 वर्षीय युवती के साथ हुआ जिसे हाथरस के बूलगढ़ी गाँव में यौन हिंसा और क्रूर हत्या का शिकार बनाया गया। एक ऐसा ही दर्दनाक अंजाम 17 वर्षीय प्रियंका भोतमांगे और उनकी माँ सुरेखा को महाराष्ट्र के खैरलांजी गाँव में झेलना पड़ा था।
दलित महिलाओं के साथ कथित सामूहिक बलात्कार और हत्या की दो घटनाओं को 14 लंबे वर्ष अलग करते है, इन 14 वर्षों के दौरान भारत में निर्भया मामले के बाद कथित तौर पर इस तरह के अपराधों के प्रति संवेदनशीलता और सामूहिक रूह का जागना तेज हुआ था, लेकिन बावजूद इसके महिलाओं के मामले में सुरक्षा का तामझाम और सुरक्षा का कोई झुकाव नहीं है- विशेष रूप से दलित महिलाओं के संबंध में तो ऐसा नहीं हुआ-वह भी 2006 की तुलना में। इसके विपरीत, दलित महिलाओं के खिलाफ अपराध, विशेष रूप से बलात्कार और हिंसक हमले कई गुना बढ़ गए हैं।
महाराष्ट्र के भंडारा जिले के खैरलांजी में एक नहर से जब भोतमांगे महिलाओं के कटे-फटे शरीर के साथ प्रियंका के दो किशोर भाइयों के तहस-नहस शव निकाले गए थे तो 29 सितंबर, 2006 को तत्कालीन महाराष्ट्र में मुख्य रूप से दलित संगठनों ने इसका सार्वजनिक विरोध किया और तब महाराष्ट्र सरकार ने कार्रवाई की। उस शाम कांड की भयावहता से मुंबई और दिल्ली के मीडिया में भी हलचल मच गई और उन्हे इसे कवर करना पड़ा। इस मामले में भी, पिछले 14 वर्षों में बहुत कुछ नहीं बदला है।
उस वक़्त महाराष्ट्र के तत्कालीन गृह मंत्री ने संदेह जताया था कि पीड़ित माओवादी हो सकते हैं। हाथरस मामले में, उत्तर प्रदेश के अधिकारी भी कुछ ऐसे ही मूर्ख निकले। शुरुआत में उन्होंने इस घटना के होने से ही इनकार कर दिया, फिर इसे "नकली समाचार" कहा, और अपने सबसे अभेद्य पक्ष को प्रदर्शित किया, और अपना क्रूरता से भरा चेहरा दिखाते हुए 19 वर्षीय बालिका को धधकते सूरज के नीचे एक बेंच पर डाले रखा, गंभीर चोटों के बावजूद उसे एक स्थानीय अस्पताल में भेज दिया, उसके परिवार के अनुसार जब हालत बिगड़ी तो उसे दिल्ली के अस्पताल भेजा गया। हालांकि जैसे यह अन्याय काफी नहीं था, फिर पुलिस ने युवती के परिवार को आधी रात को उनके अपने घर में ही कैद कर दिया और कहा कि "आप से भी कुछ गलतियां हुई है" उसकी लाश को जला दिया।
दलित महिलाएं वैसे भी ज्यादा गरिमा के साथ नहीं जीती हैं, उन्हें मारा भी बिना किसी गरिमा के जाता है। खैरलांजी से लेकर हाथरस तक ऐसी लाखों कहानियां हैं- उनमें से कई महिलाओं की क्रूरता से भरी लाशें हैं-, खासकर दलित और आदिवासी महिलाओं की, जिनके शरीर लिंग या जाति के दंश के साथ-साथ जहरीली मर्दानगी का हमला भी झेलती हैं।
2006 से 2019 तक, कुछ 4,00,000 से अधिक बलात्कार हुए है; कथित बलात्कारों की कुल संख्या से एक अनुमान के अनुसार हर चार में से एक दलित महिला है। रिपोर्ट किए गए हर बलात्कार के अलावा कई मामले ऐसे हैं जो रिपोर्ट नहीं होते हैं। जबकि इस रिपोर्टिंग में वैवाहिक बलात्कार शामिल नहीं हैं।
संख्या
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों से पता चलता है कि 2006 में रिपोर्ट किए गए कुल बलात्कारों की संख्या 20,000 से कम थी; 10 साल बाद, यह 40,000 के करीब थी। कभी-कभी, इनमें से कोई विशेष रूप से क्रूर मामला राष्ट्र का ध्यान आकर्षित कर सकता है। निर्भया के साथ हुई दरिंदगी ने दिसंबर 2012 में पूरे देश को हिलाकर रख दिया था, उस वक़्त दिल्ली और केंद्र दोनों में कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकारों के खिलाफ नाराजगी थी और आम जन सरकारों के खिलाफ हो गए थे। सरकार ने बलात्कार पर आपराधिक कानून में बदलाव किया और “कोई और निर्भया” न हो, इसके लिए एक कोष की स्थापना की गई, और 2014 के आम चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने इस मामले का दोहन किया।
तब से प्रति वर्ष कुल बलात्कार की संख्या में वृद्धि को महिलाओं द्वारा अपराध की अधिक रिपोर्ट करने के प्रमाण के रूप में माना गया है। यह आंशिक रूप से सच हो सकता है। निर्भया मामले की निरंतर कवरेज ने बलात्कार की रिपोर्टिंग के इर्दगिर्द के कुछ सहने वाले कलंक को कम किया हो सकता है, लेकिन इसने एक बात यह भी स्थापित की कि कितनी अधिक महिलाओं के साथ बलात्कार हो रहे थे। पिछले सात वर्षों में 2016 से हर साल 32,000-33,000 से अधिक मामलों की रिपोर्टिंग सबसे खराब स्थिति को दर्शाता है, जिसका मतलब है कि हर दिन लगभग 90 महिलाओं का बलात्कार होता हैं।
अधिकतर तो आंकड़े हैं, लेकिन कुछ मामले हैं जैसे कि कठुआ के मंदिर में छोटी सी लड़की से साथ हुई दरिंदगी की याद, चेन्नई में 12 साल की बच्ची के साथ सात महीनों तक बलात्कार किया गया, केरल का नन वाला मामला, उन्नाव का मामला जिसमें पीड़िता को अदालत के पास ही आग के हवाले कर दिया गया था, उत्तर प्रदेश की युवती जिसने अपने परिवार का कत्ल होते देखा क्योंकि उसने भाजपा के बलात्कार के आरोपी विधायक कुलदीप सेंगर के खिलाफ आवाज़ उठाई थी और हैदराबाद में पशु चिकित्सक युवती के खिलाफ हुई हिंसा की आवाज उठाई।
हालाँकि, हर दिन बलात्कार की कहानी को संख्याओं के माध्यम से पढ़ने से डरावनी महिलाओं की सतह को ही कुरेदने का काम होगा। संख्या का विश्लेषण करना और महिलाओं के खिलाफ किसी भी अपराध में जाति और बलात्कार के बीच संबंध को अलग नहीं किया जा सकता है। राज्य-वार आंकड़ों के साथ इसे प्रस्तुत करें और यह स्पष्ट हो जाएगा कि उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश में दलित महिलाएँ, जहाँ जहरीली मर्दानगी का बड़ी जाति से घालमेल है, वहाँ दलित महिलाएं सबसे अधिक यौन अपराधों का सामना करती हैं। ये राज्य महिलाओं, खासकर बलात्कार और दलित महिलाओं के खिलाफ अपराधों के मामले में सबसे आगे और उच्च स्थान पर हैं। और अपराधी, बिना किसी अपवाद के, उच्च जाति के पुरुष हैं।
नेशनल दलित मूवमेंट फॉर जस्टिस (NDMJ) की रिपोर्ट के अनुसार, 2009 और 2018 के बीच दलितों के खिलाफ अपराधों में 6 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। “दलित महिलाएँ अक्सर प्रमुख यानि उच्च जातियों के हाथों हिंसा का शिकार होती हैं; ये हिंसा शारीरिक हिंसा, यौन हिंसा और डायन को मारने के रूप में होती है। कोविड-19 महामारी में दलित महिलाओं ने अत्याचार के विभिन्न रूपों को देखा है... पिछले पांच वर्षों में, 41,867 मामले आए जिनमें से 20.40 प्रतिशत अनुसूचित जाति की महिलाओं के खिलाफ हिंसा से संबंधित थे, " ऐसा रिपोर्ट में दर्ज़ है।
एनसीआरबी ने दलितों के खिलाफ बढ़ रहे अपराधों की प्रवृत्ति की पुष्टि की है। इसने 2013 और 2018 के बीच हर साल ऐसे अपराधों में वृद्धि दर्ज की है। उत्तर प्रदेश में दलितों पर अत्याचार की सबसे अधिक संख्या दर्ज की गई है, सभी मामलों में यह करीब 25.6 प्रतिशत है। 2017 में, एजेंसी ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989 के तहत विशेष रूप से पंजीकृत मामलों का डेटा प्रकाशित किया था। ऐसे 5,775 मामले थे; उनमें से 55 प्रतिशत “दलितों को अपमानित करने के इरादे से“ जानबूझकर कर अपमान करने या धमकी देने से संबंधित हैं, अन्य मामले दलितों को सार्वजनिक जमीन के इस्तेमाल से जुड़े थे, जिसमें दलितों को सार्वजनिक स्थानों का उपयोग करने से रोकते थे और उनका आम सामाजिक बहिष्कार शामिल है।
संख्या से आगे जाति है
मीडिया से बात करते हुए उनके भाई के अनुसार, बूलगढ़ी-हाथरस में, पीड़ित परिवार गाँव के कुछ दलित परिवारों में से है और उनका ठाकुर जाति के पड़ोसी के साथ जमीन को लेकर विवाद चल रहा था। उनके दादा ने कुछ साल पहले एक हमले से खुद को बचाने की कोशिश करते हुए अपनी उंगलियों को खो दिया था, उन्होंने विस्तार से बताया कि कैसे दुकानदार उनसे लिए हुए पैसे को शुद्ध करने के लिए पानी छिड़कते हैं या उन्हें दुकान में माल को छूने की अनुमति नहीं देते है।
जाति के संदर्भ को नजरअंदाज करना और इसे केवल एक यौन अपराध के रूप में देखना व्यर्थ होगा। युवा महिला, जैसा कि कार्यकर्ताओं और स्कोलर्स ने इंगित किया है, ठाकुर पुरुषों ने समुदाय को संदेश देने के लिए हमला किया, उनपर अत्याचार किया गया: और कहा कि अपनी हद में रहो वरना अंजाम सही नहीं होगा।
खैरलांजी में भी कहानी कुछ ऐसी ही थी। भोतमांगे का घर ओबीसी-कुनबी जाति के प्रभुत्व वाले गाँव में मुट्ठी भर दलित घरों में से एक था। परिवार के लोगों पर हमला क्यों किया गया उसके बारे में कहानी यह है कि उनके पास पांच एकड़ जमीन थी जिसका सुरेखा अपने से प्रबंधन करती थी ताकि वह यह सुनिश्चित कर सके कि उसके बच्चे अच्छे से पढ़े। वह कुछ ग्रामीणों के साथ हुए एक विवाद में एक खैरलांजी पुलिसकर्मी के मामले में गवाह बनी थी। उच्च जाति के पुरुषों ने इसे प्रतिशोध के रूप में देखा। परिवार को पक्के घर बनाने की इजाजत नहीं थी, सुरेखा ने जब ऐसा किया तो उन्हे लगा कि “एक दलित महिला हमें अंगूठा दिखाने की कोशिश कर रही है” जैसा कि एक आरोपी ग्रामीण ने इस लेखक को बताया था।
सुरेखा का न केवल बलात्कार किया गया था, बल्कि उसे गांव में नंगा कर घुमाया गया था और उसके बाद पुरुषों के एक बड़े समूह ने उसका यौन उत्पीड़न किया था, जिससे उसकी खोपड़ी टूट गई थी और एक आंख फोड़ दी गई थी। उसकी बेटी को भी नंगा कर, बलात्कार किया गया था, और उसके शरीर में के निजी अंगों में “फ़ोरन ऑब्जेक्ट” पाए गए थे। उसके भाइयों को भी इसी तरह के हमले का सामना करना पड़ा। ये बेशक जातिगत अत्याचार थे। सुरेखा के पति भैयालाल भोतमांगे ने कहा कि इस जघन्यता में, "पूरा गांव शामिल था, मैं अपने खेत में था और मैं एक झाड़ी के पीछे छिप गया था।"
स्थानीय पुलिस को निलंबित कर दिया गया था और मामले की जांच सी.बी.आई. ने की थी। फास्ट-ट्रैक ट्रायल कोर्ट ने आठ लोगों को हत्या का दोषी ठहराया और उनमें से छह को मृत्युदंड दिया गया। 2010 में, बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर पीठ ने अपील पर सुनवाई की और उन्हे 25 साल के कारावास की सजा सुनाई; कोर्ट ने हत्याओं को "बदले की हत्या" कहा और यह माना कि हत्याएं पहले से तय या जातिगत पूर्वाग्रहों से प्रेरित नहीं थीं। इसमें कोर्ट ने एससी और एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम की अनदेखी की और इसके लिए एक औचित्य भी ढूंढ लिया गया था।
समान रूप से चौंकाने वाली बात तो यह थी कि बलात्कार के आरोपों से उन्हे बरी कर दिया गया। मामलों को दर्ज करने में देरी और चिकित्सा परीक्षाओं का संचालन, साक्ष्य मिटाने से रोकने के लिए स्थानीय पुलिस की अनिच्छा, अभावग्रस्त अभियोग सभी इसके लिए जिम्मेदार थे। जबकि यह निर्णय इस संदर्भ की अवेहलना करता है कि प्रियंका के शरीर पर चोट के निशान कैसे आए, और आरोपी ने "अपनी यौन आँखों की संतुष्टि पाने के लिए" उसके शरीर से खिलवाड़ किया था, लेकिन अदालत ने माना कि महिला का बलात्कार नहीं हुआ था। भोतमांगे को कुछ मुआवजा मिला और उन्हे अन्य जगहों पर रहना पड़ा, वे हर 29 सितंबर को अपने घर जाते थे, एक दीपक जलाने के लिए। उनका तीन साल पहले निधन हो गया था। सुप्रीम कोर्ट में अपीलें अभी भी लंबित हैं।
हाथरस मामले में भी, पुलिस ने कथित तौर पर पीड़ित परिवार को पीड़िता को आखरी बार देखने से रोका, सभी ग्रामीणों को रोक दिया गया, और रात को लड़की के शरीर को जला दिया गया। राष्ट्रीय आक्रोश ने दबाव बनाया तो अभियुक्तों को गिरफ्तार किया गया। लेकिन किसी को भी यकीन नहीं है कि एकत्र किए गए चिकित्सा साक्ष्य से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा दबाव में स्थापित किए गए फास्ट-ट्रैक अदालत में बलात्कार के आरोप साबित होंगे।
एक सवर्ण (उच्च जाति) समूह पहले से ही आरोपियों का समर्थन करने के लिए खड़ा हो गया, लेकिन मुख्यमंत्री ने मामले की जांच का आदेश देने में और एक विशेष जांच दल गठित करने तथा प्रधान मंत्री से अनुमति के लिए दो सप्ताह का इंतज़ार किया। जैसा कि यह घोषणा की गई, उसी समय समान रूप का जघन्य मामला बलरामपुर से प्रकाश में आया- फिर से एक युवा दलित महिला जो शिक्षित होने के लिए सीमाओं को तोड़कर आगे बढ़ रही थी, कथित रूप से उसका बलात्कार और हत्या दो मुस्लिम पुरुषों द्वारा की गई है।
दलितों को बलात्कार के माध्यम से संदेश
दलितों और आदिवासियों के खिलाफ बलात्कार सहित अन्य जघन्य अपराध अचानक ही नहीं होते हैं। यह अक्सर पुराने जातिगत भेदभाव के साथ शुरू होते है, जिसमें भूमि या पानी को लेकर महीनों या वर्षों से दलितों के अपमान और हमले के प्रत्येक मामले या सार्वजनिक स्थानों पर पहुंच से एक ऐसा माहौल तैयार करते है जिसमें दलितों पर हमला किया जाता है-वह भी बिना किसी डर के। ऐसा लगता है कि इस तरह के मामूली मामले जो रिपोर्ट नहीं होते हैं, जिनके खिलाफ कार्यवाही भी नहीं होती है वे उच्च जातियां के होंसले बढ़ाती हैं क्योंकि प्रशासन "उनकी तरफ" है। राष्ट्रीय या स्थानीय मीडिया के छोटे से हिस्से ने पिछले कुछ महीनों में दलितों के खिलाफ छोटे अपराध दर्ज किए हैं; ल्र्किन हाथरस की घटना के बाद दो दिनों में एक पत्रकार ने लगभग 18 बलात्कार या सामूहिक बलात्कारों को रिपोर्ट किया है।
ये निरंतर और जघन्य अपराध दलित स्कॉलर और प्रोफेसर आनंद तेलतुम्बडे के अनुसार एक संदेश है, जो अब माओवादी लिंक के आरोपी हैं और जेल में कैद हैं। दलितों के खिलाफ अत्याचार में “वहशीपन और पीड़ा से यौन सुख पाने का एक अनूठा मिश्रण” है, ऐसा उन्होंने और एस आनंद ने लिखा। खैरलांजी के जघन्य हमले के 10 साल बाद, यह अत्याचार भी “पूरे दलित समुदाय को सबक सिखाने का एक तरीका है”। तेलतुम्बडे ने बताया कि किस तरह से खैरलांजी ने कई मिथकों को तोड़ दिया जो मिथक कहते थे कि आर्थिक विकास जातिवाद को दूर कर देगा या राजनीतिक या प्रशासनिक सत्ता में दलित समुदाय को न्याय दिलाने में प्रशासन को उन्मुख करेगा।
उत्तर प्रदेश के कुछ दलित विधायक अभी भी इस अपमान या अत्याचार से हिले नहीं हैं। 2017 में विधानसभा में लगभग 45 प्रतिशत उच्च जाति के विधायक शामिल हैं, पिछली विधानसभा के मुक़ाबले यह 12 प्रतिशत अधिक है। नरेंद्र मोदी की कैबिनेट में मंत्री जिन्होंने निर्भया मामले से राजनीतिक फायदा उठाया था कुछ नहीं बोली हैं, यहां तक कि खुद मोदी ने भी घटनाओं को लेकर सांत्वना या निंदा नहीं की है। पूर्व केंद्रीय महिला और बाल विकास मंत्री मेनका गांधी और वर्तमान में स्मृति ईरानी उत्तर प्रदेश से चुनी गईं हैं, लेकिन अन्यथा इन मुखर महिलाओं ने एक शब्द भी नहीं कहा है। इस तथ्य से सब वाकिफ है कि भाजपा अपनी चुनावी रणनीतियों और राजनीतिक पूंजी के मामले में सवर्णों, ब्राह्मणों, ठाकुरों और बनियों की पक्षधर है, इसलिए "सबका साथ" के बारे में ध्यान न दें तो बेहतर होगा।
अपनी विश्लेषणात्मक पुस्तक में, खैरलांजी:ए स्ट्रेंज एंड बिटर क्रॉप ”,में तेलतुम्बडे ने लिखा कि दलितों, विशेषकर महिलाओं पर अत्यधिक क्रूरता के ऐसे मामले“ अलग-थलग करने वाली घटनाएँ ”या“ सिर्फ कुछ अनियंत्रित बर्बर राक्षसों के कुकृत्य” नहीं हैं। दलितों के खिलाफ हिंसा, विशेष रूप से बलात्कार, सामाजिक व्यवस्था को लागू करने का एक कार्यात्मक और व्यवस्थित तरीका है, यही कारण है कि इसे “सामूहिक रूप से एक सार्वजनिक तमाशे के रूप में प्रदर्शन किया जाता है… बलात्कार एक निजी मामला नहीं है, यह एक उत्सव या तमाशा बन जाता है। अत्याचार में जटिल और कुटिल नियोजन शामिल हैं ताकि वे पूरे दलित समुदाय को 'सबक' सीखा सकें।''
यही कारण है कि "बलात्कारियों को फांसी दो" जैसी फालतू प्रतिक्रियाएं हाथरस के मामले में गति पकड़ रही हैं, निर्भया के बलात्कारियों को फांसी, पुलिस मुठभेड़ों में अभियुक्तों को मारना, जैसा कि हैदराबाद में हुआ वह दलितों पर जारी और बढ़ते हमलों के मुख्य मुद्दे को संबोधित नहीं करता है। ये कार्रवाइयाँ किसी भी तरह से अंतर्निहित जाति के मुद्दों को संबोधित नहीं करती हैं और नाराज़ जनता में बदले मकसद को पूरा करती हैं। इसीलिए, अपनी पुस्तक में, तेलतुम्बडे ने चेतावनी देते हुए कहा, "भारत का प्रत्येक गाँव एक संभावित खैरलांजी है"।
लेखक मुंबई की वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं, जो राजनीति, शहरों, मीडिया और लिंग आधारित मुद्दों पर लिखती हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।
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From Khairlanji to Hathras, Rape Story Repeats Itself for Dalit Women
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