विशेष: कबीर की धरती पर कबीर की तलाश

बुद्ध कबीर और गोरखनाथ आज भी मेरे आकर्षण का केन्द्र हैं क्योंकि इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि इन तीनों ने ही अपने-अपने समय में बाह्मणवाद को जबरदस्त चुनौती दी थी और इनके अधिकतर अनुयायी दलित, पिछड़े और जनजाति समाज के ही थे। कबीर के तो अत्यधिक अनुयायी पसमांदा मुस्लिम थे। गोरखपुर के बिलकुल निकट कबीर की निर्वाणस्थली मगहर है, जिसके बारे में यह कहा जाता है कि कबीर जीवन भर काशी में रहे, लेकिन अपनी मृत्यु के समय मगहर आ गए। उस समय ऐसी मान्यता थी कि काशी में अपना देह त्यागने वाला स्वर्ग जाता है और मगहर में नर्क। ऐसा कहा जाता है कि इसी धारणा को तोड़ने के लिए कबीर मगहर आ गए। मगहर के बारे में ऐसा क्यों कहा जाता है, यह भी एक शोध का विषय है। मगहर में बुनकरों की बड़ी आबादी आज भी है जो अधिकतर पसमांदा मुस्लिम हैं। पुराने समय से हमारे देश में श्रम करने वाली निम्न जातियों को नीची निगाह से देखा जाता था। संभव है कि इसी कारण से मगहर के बारे में यह लोकोक्ति मशहूर हो गई हो, कि यहां मरने वाला नर्क में जाना जाता है, इसके विपरीत काशी उस समय ब्राह्मण बौद्धिक लोगों का बड़ा केन्द्र था, इसलिए, वहां मरने वाला स्वर्ग जाएगा,ऐसी मान्यता लोकजीवन में प्रचलित कर दी गई। कबीर जाति के बुनकर थे, जिसके कारण सम्भव है कि वे यहां पहले भी आते-जाते रहे हों, यही कारण है कि कबीर जीवन भर काशी रहने के बावज़ूद देह त्यागने के लिए मगहर में आ गए। इस सम्बन्ध में उनका एक प्रचलित दोहा भी है-
क्या काशी क्या ऊसर मगहर, राम हृदय बस मोरा।
जो काशी तन तजै कबीरा, रामे कौन निहोरा॥
उनका यह विद्रोही स्वर जो रूढ़ियों और कुरीतियों के ख़िलाफ़ एक शंखनाद जैसा था, मुझे आज भी आकर्षित करता है। कबीर के बारे में एक और किंवदंती है कि उनकी मृत्यु के बाद उनके शिष्य ; जो हिन्दू-मुस्लिम दोनों थे। वे उनका अन्तिम संस्कार करने के लिए आपस में लड़ने लगे। हिन्दू-मुस्लिम दोनों ही कबीर को अपना-अपना कहने लगे और अपने धर्म के अनुसार उनका अंतिम संस्कार करना चाहते थे। इसमें बहुत समय व्यतीत हो गया। बाद में चादर हटाने पर उनके शव की जगह कुछ फूल मिले, जिसे हिन्दू-मुसलमानों ने आपस में बांटकर अपने-अपने धर्म के अनुसार उनका अंतिम संस्कार किया। आज भी मगहर में अगल-बगल कबीर का मकबरा और उनका समाधि स्थल है। महापुरुषों के बारे में आमतौर से हमारे लोकजीवन में इस तरह की किस्से-कहानियाँ प्रचलित हैं, हालांकि आमतौर से सच्चाई कुछ और ही होती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि कबीर की एक जबरदस्त मूर्तिभंजक छवि थी, यहां तक कि आधुनिक असहिष्णु समाज में संभव है कि अगर कबीर होते तो उनकी रचनाओं पर प्रतिबंध लगा दिया जाता और उन्हें जेल में डाल दिया जाता। पिछले दिनों गोरखपुर यात्रा के दौरान जब मैं मगहर गया, तो मुझे कबीर को एक नई दृष्टि से देखने और समझने का अवसर मिला।
पहले मगहर में आमी नदी के निकट कबीर की निर्वाण स्थली पर बहुत पुराना उनका मकबरा और समाधि थी। नदी के किनारे खेतों के बीच बने ये स्थल प्राकृतिक, आकर्षक एवं शान्ति प्रदान करने वाले थे, लेकिन अब सम्पूर्ण परिदृश्य बदल गया है। केन्द्र सरकार और राज्य सरकार इसे एक बड़े पर्यटन स्थल के रूप में विकसित कर रही है। करीब-करीब 80-90 करोड़ की परियोजनाएं यहां विकसित की गई हैं। जिसके तहत उनका समाधि स्थल और मकबरा बहुत ही भव्य बनाया गया है। एक बहुत विशाल सभागार, पुस्तकालय, कबीर शोध संस्थान और संग्रहालय निर्मित किया गया है, इसके अतिरिक्त शोधार्थियों के पठन-पाठन एवं आवास के लिए एक हाॅस्टल और गेस्ट हाउस निर्मित किया गया है। यहां पर कबीर के जीवन और रचनाओं से संबंधित लाइट एंड साउंड शो की भी शुरुआत होने वाली है। चारों ओर भव्यता ज़रूर बिखरी है, लेकिन लगता है कि जैसे कबीर की वो विद्रोही छवि ; इसमें कहीं गुम हो गई है, जिसमें वे कहते हैं कि-
कबीरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ।
जो घर फूंके आपनौ,चले हमारे साथ।
इसी छवि के आकर्षण में मैं युवावस्था में अक्सर मगहर जाता था और आमी नदी के तट पर उसका अहसास भी करता था। भले ही मगहर में सब कुछ बदल गया है, लेकिन कुछ चीजें अभी अपने मूल रूप में हैं, जैसे मकर संक्रांति के अवसर पर सदियों से लगने वाला कबीर मेला; जो एक माह तक चलता है। इसके बारे में मैंने एक वृद्ध व्यक्ति से पूछा कि,"यह मेला कब से लग रहा है?" उन्होंने बताया कि,"जब से मैंने होश संभाला,तब से हर साल इसे देख रहा हूं।" हालांकि इसी मेले में मगहर महोत्सव के नाम से एक सरकारी आयोजन भी होता है,जो सांसद, विधायक तथा सरकारी अधिकारियों की उपस्थिति के बावजूद जनजीवन से कभी नहीं जुड़ पाया। कबीर मेला वास्तव में एक ग्रामीण मेला है, जिसमें ग्रामीण संस्कृति है, गांव के बाज़ार की झलक है, संगीत, नृत्य,गायन और बाज़ीगरी आदि सभी ग्रामीण संस्कृति के हैं। देश भर से आए कबीरपंथी गायकों द्वारा गाए कबीर के भजन और सबद मेले में निरन्तर गूंजते रहते हैं। रात में तो यह दृश्य बहुत ही मनमोहक दिखता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि आज इसमें आधुनिकता का प्रवेश ज़रूर हो रहा है, लेकिन अभी भी इसकी मूल संस्कृति बची हुई है।
एक बड़ी रोचक बात इस मेले के साथ जुड़ी है:-कबीर के मकबरे और समाधि पर खिचड़ी चढ़ाने की प्रथा ; जिसमें दूर-दूर से न केवल कबीरपंथी बल्कि अन्य सामान्य ग्रामीण जिसमें हिन्दू-मुस्लिम दोनों हैं, मकर संक्रांति से लेकर एक माह तक यहां पर खिचड़ी चढ़ाने आते हैं, लेकिन सबसे दिलचस्प बात यह है कि यहां से करीब 20 किमी० दूर गोरखपुर के गोरखनाथ मंदिर में भी एक माह का मेला लगता है तथा वहां भी खिचड़ी चढ़ाई जाती है। मैंने मगहर में यह जानने की कोशिश की,कि क्या गोरखपंथ और कबीरपंथ में आपस में कोई गहरा संबंध है? इस विषय पर लोगों की अलग-अलग राय है। कुछ लोगों का यह मानना है, संभव है कि बहुत से लोग जो गोरखनाथ में खिचड़ी नहीं चढ़ा पाते थे, वे यहां पर खिचड़ी चढ़ा देते हों, बाद में यह एक प्रथा के रूप में प्रचलित हो गई, लेकिन यहीं के वरिष्ठ कबीरपंथी परिचयदास कहते हैं कि कबीरपंथ में लोगों को भोजन कराने या लंगर की प्रथा बहुत पुरानी है। लोगों को भोजन कराना बहुत बड़ा पुण्य माना जाता रहा है।
कबीर मेले में प्रतिदिन हज़ारों लोगों को भोजन कराया जाता है, यही कारण है कि यहां पर खिचड़ी का दान किया जाता है। सिक्खों में भी लंगर की प्रथा गोरखपंथ से गई है। यह बात इसलिए भी सच लगती है क्योंकि सिक्ख धर्म पर गोरखपंथ का काफी प्रभाव है। गुरुग्रंथ साहिब में भी ढेरों कबीर के पद संकलित हैं। गोरखपंथ पर भी इसका प्रभाव है,क्योंकि दोनों ही पंथ सनातन धर्म की जातिवादी वर्णव्यवस्था से विद्रोह करके निकले थे। दोनों में ही बड़े पैमाने पर दलित, पिछड़े तथा जनजाति समाज के लोग; जिसमें हिन्दू-मुस्लिम दोनों थे, जुड़े थे। मुझे याद आता है कि बचपन में गोरखनाथ में मकर संक्रांति के मेले में ढेरों गोरखपंथी फ़कीर दिखते थे, जिसमें अधिकांश मुस्लिम होते थे। वे एक वाद्ययंत्र बजाते हुए गोरखवाणी के साथ-साथ कबीर के सबद भी गाते थे। आज जब गोरखपुर में गोरखनाथपीठ हिन्दू साम्प्रदायिक तत्वों के हाथ में चला गया है, तब से ये फ़कीर अब नहीं दिखते हैं।
कबीरपंथ का प्रभाव आज भी राजस्थान, मध्यप्रदेश और गुजरात में हैं। ज्यादातर घुमंतू जनजातियां कबीरपंथी हैं। मगहर में कबीर मेले में ऐसे ढेरों कबीरपंथी मिले,जो देश के सुदूर इलाकों से यहाँ पर आते हैं, विशेष रूप से गुजरात के कच्छ इलाके से। ऐसा भी माना जाता है कि केन्द्र की मोदी सरकार ने गुजरात के कबीरपंथियों से चुनाव में लाभ लेने के लिए मगहर का विकास किया। इस कबीर मेले की मुझे सबसे बड़ी बात यह लगती है,कि इसमें धार्मिकता का पुट बहुत ही कम है। कोई भी विद्रोही कवि या लेखक किसी तरह आम जनजीवन या लोकजीवन में रच-बस जाता है, इसका सबसे बड़ा उदाहरण मुझे यह मेला लगता है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के अत्यंत पिछड़े ग्रामीण इलाकों में भी गरीब अनपढ़ किसान कबीरदास के एक दो पद या चौपाई ज़रूर गाता है। यह बात मुझे इन इलाकों में घूमते हुए निरन्तर महसूस होती है। यही कारण है कि कबीर मेला मुझे बहुत अनोखा लगता है और शायद भारत में इस तरह का अकेला।
कबीर जयंती 4 जून को कबीरचौरा वाराणसी में भी भव्य आयोजन होते हैं। मैं वहां भी कई बार गया, जिसमें बड़ी संख्या में बुद्धिजीवी,लेखक और कलाकार भी भाग लेते हैं,परन्तु यह समारोह मगहर में होने वाले कबीर मेले की तरह लोकजीवन से कभी नहीं जुड़ पाया। मुझे इसका कारण यह लगता है कि मगहर हमेशा काशी के विपरीत श्रमजीवियों की बस्ती रही है तथा कबीर उनके अपने थे, बुनकर थे और श्रम के गीत गाते थे। आज के दौर में कबीर की कितनी प्रासंगिकता बढ़ गई है यह समझाने की आवश्यकता नहीं है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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