बिहार के बजट में आंकड़ों की बाजीगरी : सिक्की

जिस तरह से केंद्र के बजट पर चर्चा होती है, उस तरह से राज्यों के बजट पर चर्चा नहीं होती है। राज्य में भी बिहार का तो और बुरा हाल रहता है। लेकिन इस बार बिहार के एक संगठन 'सोशलिस्ट चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री' (सिक्की) ने बिहार बजट पर विस्तृत चर्चा का आयोजन किया। जिस चर्चा में बिहार के नागरिक समाज के जाने-माने प्रबुद्ध लोगों ने हिस्सा लिया और बजट पर अपनी राय रखी।
उपभोक्ताओं के लिए विकल्प खोजा जाए - ज़फ़र इक़बाल
चर्चा की शुरुआत में 'सोशलिस्ट चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज' के अध्यक्ष ज़फ़र इक़बाल ने इस संगठन का परिचय देते हुए बताया " अब तक देश में केवल बड़े उद्योगपतियों के ही चैंबर हैं, जो उनके हितों की रक्षा करते हैं और उनकी आवाज को उठाते हैं, लेकिन छोटे उद्यमियों जिनको जीएसटी और नोटबंटी करके भारी नुकसान पहुँचाया गया, उनकी कोई संगठित आवाज़ नहीं है। यह प्लेटफॉर्म कोशिश करेगा कि उन छोटे उद्यमियों को एक साथ लाकर उनकी आवाज़ को बुलंद किया जाए। शिक्षित बेरोज़गार युवाओं को भी इसके साथ जोड़ा जाए। किसान आंदोलन ने अंबानी-अडानी के उत्पादों के बहिष्कार की घोषणा की। लेकिन इसके साथ यह भी ज़रूरी है कि उपभोक्ता के सामने सामान और सेवाओं की खरीददारी के लिए विकल्प भी हो और यह संभव है। कृषि आधारित छोटे उद्यम और श्रम आधारित उत्पाद जो कारीगर और छोटे उद्यमी बनाते हैं, उनको बाजार मुहैया कराने में भी चैंबर अपनी भूमिका निभाएगी।"
खेती में इकहरेपन और मशीनीकरण को बढ़ावा दिया गया है- इश्तियाक़ अहमद
सामाजिक कार्यकर्ता इश्तियाक़ अहमद ने बिहार बजट पर अपनी बात रखते हुए कहा " किसी पॉलिटिकल फॉर्मेशन के नीयत व नजरिया उसके बजट से ही पता चलता है। अब बिहार में खेती महिलाएँ सम्भाल रही हैं, जिसमें बच्चे उनकी सहायता कर रहे हैं। लेकिन जमीन मर्दों के नाम पर है और जिनमें से ज्यादातर बाहर चले गए हैं। लेकिन बजट में उन महिलाओं की कोई भागीदारी नहीं है। कहा जाता है कि लोन पर सब्सिडी है। कर्ज लेने की बात है लेकिन बाजार कहाँ है? मान लें हम लोन लें, उत्पादन कर लें परन्तु बाजार का पता नहीं है। पब्लिक मनी को गलत दिशा में लगाया जा रहा है। बजट में खर्च बहुत कम होता है। बिहार बजट सरप्लस बजट होता है, जबकि जहाँ भी विकास हुआ है वो डेफिसिट बजट होता है। जो बिहार विकास के मानकों पर इतना पीछे है, उसमें सरप्लस बजट आना विचित्र लगता है। पूरे बजट में पर्यावरण से जो परेशानी आई है, उससे बचाने का कोई उपाय नहीं है। मौसम की मार से बचना है तो जितनी डायवर्सिटी रहेगी उतना अच्छा है। एक खेत में एक साथ कई किस्म की फ़सल लगाई जाए तो कुछ फसल नष्ट होने पर भी कुछ बच जाएगा। बिहार सरकार बजट में जिस किस्म की खेती को आगे बढ़ा रही है वो एक ही फसल इकहरी खेती को ध्यान में रखकर बनाई गई है। दूसरी बात कृषि को तकनीक आधारित ज्यादा किया जा रहा है। हमारी खेती ज्यादा पेट्रोल व ऊर्जा पर अधिक केंद्रित है। इस बजट की एक स्पष्ट दिशा है। बिहार में शराबबंदी हुई तो महुआ के पेड़ काट डाले गए जबकि महुआ पांरपरिक रूप से लाभदायक माना जाता रहा है। जैवविविधता जितनी अधिक होगी उतना बेहतर होगा। ड्रिप इरिगेशन सहित ऐसी बातों पर सब्सिडी है, जिसपर आपका नियंत्रण बहुत कम है। खेती पर एकमुश्त राशि तय की गई है 3335 करोड़ रुपया। लेकिन यह नहीं बताया गया है कि किस मद में कितना खर्च किया गया है। जबकि खेती, सिंचाई, मत्स्य व गन्ना विभाग अलग-अलग है। बजट में इस तरह छुपाया गया है कि आप उसका कोई विश्लेषण न कर सकें। यदि कोई सरकार सूचना के अधिकार में छुपा रही है तो मामला कुछ गड़बड़ जरूर है।"
पूंजीपतियों को छूट वाली जानकारी बजट से छुपाई गई है- अनिंद्यो बनर्जी
'प्रेक्सिस' संस्था के अनिंद्यो बनर्जी ने बजट पर राय प्रकट करते हुए कहा " बजट सिर्फ वित्तीय दस्तावेज नहीं है बल्कि इससे यह भी पता चलता है कि शासक वर्ग की प्रतिबद्धताएँ क्या हैं। राज्य का बजट देश के रुझानों को भी परिलक्षित करता है। राज्य की जो अवधारणा रही है, उससे हम थोड़े दूर जाते दिख रहे हैं। छठी पंचवर्षीय योजना से ये बात रही है कि अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजातियों के लिए भी बजटीय प्रावधान रखना चाहिए। लेकिन वर्तमान केंद्र सरकार ने तीन-चार साल पहले उसे समाप्त कर दिया। इस कारण अब ट्राइबल सबप्लान नहीं रहता है। बिहार बजट में साल 2008-09 से दलित व आदिवासियों के लिए अलग से प्रावधान होता आया है, लेकिन अब वह भी खत्म किया जा रहा है। अनुसूचित जाति-जनजाति के लिए अलग-अलग प्रावधान रखने की परिपाटी खत्म हो गई है। केंद्र सरकार ने पूंजीपतियों को दिए जाने वाले छूट की जानकारी देनी भी खत्म कर दिया।
बिहार के बजट में एक सुनियोजित व्यवस्था रही है, जिसमें जेंडर बजट, चाइल्ड रिस्पांसिव बजट अलग से बताया जाता रहा है। इस सब को खत्म किया जा रहा है। ऑनलाइन आँकड़ा में बजट को इस तरह इनक्रिप्टेड किया जा रहा है कि आप उसे कॉपी-पेस्ट नहीं कर सकते। इससे बजट को विश्लेषित करने में काफी दिक्कत हो रही है। पब्लिक पॉलिसी को ध्वस्त किया जा रहा है। सरकार सार्वजनिक उपक्रमों को समाप्त कर रही है और निजी शक्तियों को आगे बढ़ा रही है। इसका नुकसान सामाजिक क्षेत्रों को हो रहा है। बच्चों-किशोरों के लिए निर्धारित योजनाओं को खत्म किया जा रहा है। आई.सी.डी.एस के बजट में 19 प्रतिशत की गिरावट आई है। कई रुझान चिंताजनक है, बिहार में हर 10 में 4 बच्ची की शादी कम उम्र में हो जा रही है। 40 प्रतिशत से अधिक लड़कियों की विवाह कम उम्र में हो जा रही है। बिहार के सेकेंड्री एजुकेशन में भीषण कमी आई है। प्राथमिक शिक्षा के आवंटन अधिक दिखता है लेकिन यह महज आंकड़ों की चालाकी के सिवाय और कुछ भी नहीं। बजट को सार्वजनिक विमर्श का विषय बनाया जाना चाहिए।"
बिहार में स्वास्थ्य का आउट ऑफ पॉकेट एक्सपेंडीचर देश में सबसे ज्यादा : डॉ. शकील
चर्चित चिकित्सक और इंडियन डॉक्टर्स फॉर पीस एंड डेवलपमेंट के राष्ट्रीय महासचिव डॉ. शक़ील ने बजट को गुमराह करने वाला बताते हुए कहा " स्वास्थ्य मंत्री ने कहा था एक अरब 35 करोड़ की आबादी में लगभग 11 लाख डॉक्टर हैं। उन्होंने यह भी कहा कि यूनानी, आयुर्वेदिक आदि को जोड़ दिया जाए तो 1 हजार से भी कम पड़ेगा। बिहार में भी ऐसा ही बोला गया। अब तो सरकारें, सरकार का मुखिया झूठ बोल रहे हैं। हमने शराबबंदी के ख़िलाफ़ एक मेल भी किया था । 40 डॉक्टरों ने मेल किया था लेकिन ये लोग बुलाये ही नहीं गए। उस वक्त मैंने एन. एफ़. एच. एस का डाटा दिया था कि बिहार में 33 प्रतिशत लोग शराब पीते हैं। 2019 का यह आंकड़ा है। जबकि शराबबंदी 2016 में ही आ गया था। पहले सेक्टोरल मीटिंग किया करते थे जिसमें नॉन स्टेट प्लेयर्स को बुलाते थे, लेकिन अब बिहार में मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन बैठकर बजट बनाता है। सरकारी अस्पतालों में प्रसव का खर्च 2300 रु हो गया है। आउट ऑफ पॉकेट एक्सपेंडीचर 62 प्रतिशत है, जबकि बिहार में आउट ऑफ पॉकेट एक्सपेंडीचर 82 प्रतिशत है। इस का अधिकतर हिस्सा दवाओं और जांच पर खर्च होता है। यहां प्रति व्यक्ति सरकार एक आदमी ( पर कैपिटा एक्सपेंडीचर ) पर 14 रुपया खर्च करती है।
बिहार में आउट ऑफ पॉकेट एक्सपेंडीचर के कारण 8 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे जा गए हैं। सरकार स्वास्थ्य क्षेत्र में स्ट्रैटजी पर्चेंजिग प्राइवेट सेक्टर से करेगी। इसका उद्देश्य यह है कि पब्लिक हेल्थ को पैसा और डॉक्टर मत दो, फंड की इतनी कमी कर दो कि लोग ही कहें कि प्राइवेट ही बेहतर है।
बिहार के स्वास्थ्य क्षेत्र में इतनी अधिक कमजोरियां हैं कि इसे केवल एक बजट से ठीक नहीं किया जा सकता। स्वास्थ्य क्षेत्र से जुड़े जरूरी कर्मचारियों का मात्र 30 प्रतिशत हिस्सा ही अभी पूरा हुआ। 70 प्रतिशत हिस्सा खाली पड़ा है। बिहार सरकार ने सांख्यिकी के आंकड़ों में जो बाजीगरी की है,इसके लिए उन्हें यूं ही छोड़ा नहीं जा सकता।"
बिहार में शिक्षा का बजट: सरकार के अनुसार 21 प्रतिशत असल में 16-17 प्रतिशत - अनिल कुमार राय
शिक्षाविद अनिल राय ने बजट में शिक्षा के बारे में चर्चा करते हुए कहा " बजट को हर वर्ष लोगों की आवश्यकताओं के अनुसार होना चाहिए। बजट जो पेश किया जाता है, उसे संशोधित किया जाता है। कई बार मूल बजट का एक करोड़ रुपया संशोधित बजट में 1 रुपया ही कर दिया जा सकता है। इन कारणों से इस बजट की प्रस्तुति को झांसा देना कहता हूं। राज्य के सारे आय स्रोत का अपहरण अब केंद्र ने कर लिया है। राज्य का बजट हमेशा कर्जे में रहा करता है। केंद्र कहता है कि उधार लेकर काम चलाओ।
शिक्षा के बजट में पिछले वर्षों की अपेक्षा राज्य के बजट में कमी आई है। राज्य भले कहे कि वह 21 प्रतिशत खर्च कर ही है लेकिन वो दरअसल 16 या 17 प्रतिशत से अधिक नहीं होता है इसबार तो यह 15 प्रतिशत से ज्यादा न होगा। पिछले साल के बजट में माध्यमिक शिक्षा का बजट 110 करोड़ रुपया था।
इस बार उसमें चौंकाने वाली कमी कर दी गई है। मात्र एक करोड़ रुपया।
अभी देश भर में बेटी बचाओ, बिहार पढ़ाओ चल रहा है । नई शिक्षा नीति में है कि बच्चों को दो बार भोजन दिया जाना है लेकिन अब सरकार कहती है कि खाने में गुड़ चना मिलेगा। मध्याह्न भोजन का बजट बारह हजार करोड़ से कम कर दिया गया है।
मुख्यमंत्री नीति आयोग में कह आये हैं कि मिड डे मिल को बंद कर देना चाहिए।इसी दिशा में पूरी व्यवस्था चल रही है। यहां बालिकाएं 15-18 वर्ष की 40 प्रतिशत लड़कियां पढ़ाई छोड़ देती है। यहां 1573 विद्यालयों को बंद कर दिया गया। 8 हजार विद्यालयों को बंद करने के सिफारिश की गई है। अब शिक्षा मंत्री कह रहे हैं कि हर ब्लॉक में एक मॉडल स्कूल होना चाहिए, जिसमें आंगनबाड़ी से हाई स्कूल तक रहेगा । पहले बात थी कि एक किलोमीटर के दायरे में स्कूल होना चाहिए लेकिन अब उसे और अधिक दूर किया जा रहा है।
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