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अमेरिकी मुद्रास्फीति: भारत के लिए और अधिक आर्थिक संकट

भारत की वित्त मंत्री ने, भारत में आर्थिक बहाली के ढपोरशंखी दावे करते हुए, बड़ी बेपरवाही से अमरीका में मुद्रास्फीति में बढ़ोतरी की सच्चाई को अनदेखा ही कर दिया, जबकि उन्हें पता होना चाहिए था कि अमरीका में बढ़ी हुई मुद्रास्फीति की दर, जब तक भारत नवउदारवादी आर्थिक निजाम में फंसा हुआ है, उसकी आर्थिक बहाली की संभावनाओं को और चोट पहुंचाने जा रही है।
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दिसंबर को 11 तारीख को यानी जिस रोज भारत के वित्त मंत्रालय ने महामारी के बाद, भारतीय अर्थव्यवस्था में तंदुरुस्त आर्थिक बहाली आने का फर्जी दावा किया, ठीक उसी रोज अखबारों में अमरीका में मुद्रास्फीति की दर में तेजी की खबर आयी। अमेरिका में नवंबर 2021 में मुद्रास्फीति की दर, पिछले साल के नवंबर के ही मुकाबले 6.8 फीसद ज्यादा थी। और पिछले 40 साल में इससे पहले किसी भी महीने में मुद्रास्फीति की दर इतनी ऊंचाई पर नहीं पहुंची थी। 2021 के नवंबर के महीने में पैट्रोल की कीमतों में खासतौर पर ज्यादा, 58 फीसद की बढ़ोतरी हुई थी। 1980 के बाद से किसी भी महीने में इन कीमतों में ऐसी बढ़ोतरी नहीं हुई थी। इसके बावजूद, भारत की वित्त मंत्री ने, भारत में आर्थिक बहाली के ढपोरशंखी दावे करते हुए, बड़ी बेपरवाही से अमरीका में मुद्रास्फीति में बढ़ोतरी की सच्चाई को अनदेखा ही कर दिया, जबकि उन्हें पता होना चाहिए था कि अमरीका में बढ़ी हुई मुद्रास्फीति की दर, जब तक भारत नवउदारवादी आर्थिक निजाम में फंसा हुआ है, उसकी आर्थिक बहाली की संभावनाओं को और चोट पहुंचाने जा रही है।

अमरीका में मुद्रास्फीति में यह तेजी, जो तब आयी है जबकि उसकी अर्थव्यवस्था, महामारी के चलते पैदा हुई बड़े पैमाने पर बेरोजगारी से उबर भी नहीं पायी है, अजीब लग सकती है। याद रहे कि महामारी के दौरान, 2.1 करोड़ लोगों का रोजगार छिन गया था और उनमें से बहुत सारे अब भी बेरोजगार बने हुए हैं। इसलिए, मुद्रास्फीति में इस तेजी का कारण यह तो हो नहीं सकता है कि अमरीकी अर्थव्यवस्था अचानक ही आपूर्ति बाधित हो गयी हो। इसके बजाए, इसके पीछे कुछ खास परिघटनाओं का हाथ है, जिसमें कुछ फौरी आपूर्तिगत तंगियां पैदा होना शामिल है, जिन तंगियों के असर को एक ओर तो सट्टाबाज़ार ने और दूसरी ओर, लागत बढ़ोतरी के कारक ने, कई गुना बढ़ा दिया है। इन फौरी तंगियों से उबरने में कुछ समय लगेगा और इसके चलते यह बढ़ी हुई मुद्रास्फीति, 2022 के मध्य तक चलती रह सकती है। लेकिन, अमरीकी मुद्रास्फीति में इस बढ़ोतरी के सामने आने से, भारत की आर्थिक बहाली पर, जिसके सामने पहले ही खतरा उपस्थित है, संकट की परछाईं और बड़ी हो जाने वाली है। जैसाकि हमने पिछले हफ्ते इसी स्तंभ में बताया था भारतीय जनता के उपभोग के स्तर के लगातार नीचा बने रहने से, यह आर्थिक बहाली पहले ही खतरे में थी।

अमरीकी फैडरल रिजर्व बोर्ड, जोकि उसके केंद्रीय बैंक के समकक्ष है, पिछले कुछ अर्से से उदार धन नीति पर चलता आ रहा था। इसके तहत वह अर्थव्यवस्था में जो अतिरिक्त पैसा डाल रहा था, उसके बदले में बाजार से बांड खरीदता आ रहा था और अर्थव्यवस्था में अल्पावधि तथा दीर्घावधि, सभी ऋणों के लिए ब्याज की दरें बहुत ही नीची, वास्तव में करीब-करीब शून्य के स्तर पर रखता आ रहा था। मुद्रास्फीति में तेजी के हालात में, उसके इस तरह के बांडों की खरीद, पहले की अपनी योजना से भी कहीं तेजी से घटाने की ही उम्मीद की जाती है और इससे ब्याज की दरों में बढ़ोतरी भी हो जाने वाली है। 

बहरहाल, अमरीका में ब्याज की दरें कम रहने का एक नतीजा यह हो रहा था कि अमरीका से वित्त का प्रवाह भारत जैसे देशों की ओर हो रहा था, जहां ब्याज की तुलनीय रूप से कहीं बेहतर दरों का लाभ मिल रहा था। और यह इन देशों के लिए अपने भुगतान संतुलन के चालू भुगतान घाटों के लिए वित्त जुटाना काफी आसान बना देता था। भारतीय अर्थव्यवस्था में इस तरह से आ रहे वित्त का प्रवाह इतना ज्यादा बना रहा था कि भारत अपने चालू खाता घाटे की भरपाई के बाद, अपने विदेशी मुद्रा भंडार में इजाफा भी करता आ रहा था।

लेकिन, अब जबकि अमरीका में मुद्रास्फीतिविरोधी कदम के रूप में ब्याज की दरों का बढ़ाया जाना तय है, क्योंकि मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने के सीधे-सीधे कीमतों को नियंत्रित करने या आपूर्ति प्रबंधन जैसे दूसरे कदमों से विकसित पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाएं आम तौर पर परहेज ही करती हैं, इन हालात में भारत जैसे देशों की ब्याज की पहले वाली दरों के बने रहते हुए, उनकी ओर वित्त का यह प्रवाह सूख रहा होगा। इतना ही नहीं, इन देशों से अमरीका की ओर वित्त का उलट प्रवाह भी हो सकता है।

इससे भारत के लिए अपने चालू खाता घाटे के लिए वित्त व्यवस्था करना और मुश्किल हो जाएगा और इसके चलते उसकी विनिमय दर गिर जाएगी। बेशक, रुपए की विनियम दर को संभालने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक अपने विदेशी मुद्रा संचित कोष में डुबकी लगा सकती है, लेकिन चूंकि विदेशी मुद्रा संचित कोष में इस तरह की कमी रुपए की विनिमय दर में गिरावट की अटकलों को उत्प्रेरित करेगी ही, विनियम दर को इस तरह सहारा देकर संभाले रखना, न तो मुकम्मल हो सकता है और न कोई स्थायी उपाय हो सकता है। दूसरे शब्दों में, अगर अमरीका की ब्याज की दरें बढ़ती हैं तो, रुपए की विनिमय दर में गिरावट होना अपरिहार्य है।

रुपए की विनिमय दर में इस प्रकार का हरेक अवमूल्यन, आयातित मालों के रुपया मूल्य में बढ़ोतरी कर देगा। यह सबसे बढक़र तेल के मामले में लागू होगा और उसके रुपया मूल्य में बढ़ोतरी का बोझ सरकार तेल तथा पैट्रोलियम उत्पादों की बढ़ी हुई कीमतों के रूप में उपभोक्ताओं पर डाल देगी। इन बढ़ी हुई कीमतों का असर, समूची अर्थव्यवस्था में लागतों में बढ़ोतरी के रूप मे देखने को मिलेगा और इससे भारत में मुद्रास्फीति की दर बढ़ जाएगी।

सामान्यत: इसी तरीके से इन दिनों मुद्रास्फीति को विकसित पूंजीवादी दुनिया से, तीसरी दुनिया के देशों की ओर भेजा जाता है और मुद्रास्फीति के हस्तांतरण की यह व्यवस्था, जो वित्तीय प्रवाहों के आधार पर काम करती है, इसकी पहले वाली व्यवस्थाओं के मुकाबले बहुत तेजी से अपना असर दिखाती है। पहले वाली व्यवस्था में तो सामान्यत: देशों द्वारा अपनी सीमाओं के आर-पार पूंजी की आवाजाही पर अंकुश लगाने का ही सहारा लिया जाता था। सच तो यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था पर अमरीकी मुद्रास्फीति का प्रभाव पडऩे के पूर्वानुमान से ही, अमरीका में ब्याज की दरों में वास्तव में बढ़ोतरी होने तथा भारत के चालू खाता घाटे के लिए वित्त व्यवस्था में कोई कठिनाई आना शुरू होने से पहले ही, रुपए के विनिमय मूल्य में 16 पैसे की गिरावट हो गयी, जो कि पिछले कई महीने में हुई सबसे बड़ी गिरावट थी।

वास्तव में, अमरीका की मुद्रास्फीति की दर के बढ़ोतरी के आंकड़े आने के साथ ही, रुपए में यह गिरावट आ चुकी थी। इन हालात में, पर्याप्त मात्रा में वित्तीय प्रवाहों को आकर्षित करने के जरिए, अपने भुगतान संतुलन को संभालने के लिए, जिससे कि रुपए के मूल्य में गिरावट को रोका जा सके और अर्थव्यवस्था में सकल मांग के स्तर को घटाने के जरिए मुद्रास्फीति पर भी अंकुश लगाने के लिए, भारतीय अधिकारियों को अपनी अर्थव्यवस्था में ब्याज की दरें बढ़ाने का ही सहारा लेना होगा क्योंकि नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के दायरे में उनके पास मुख्यत: यही नीतिगत उपाय उपलब्ध होगा। लेकिन, इससे तो महामारी से जुड़ी आर्थिक मंदी से किसी भी तरह की बहाली और भी मुश्किल ही हो जाएगी।

सच्चाई यह है कि हमारी सरकार को चाहे यह पसंद हो या नहीं हो, नवउदारवादी अर्थव्यवस्था में, अमरीका के अपनी ब्याज की दरें बढ़ाने के बाद, उसके पास भी ब्याज की दरें बढ़ाने के सिवा और कोई चारा ही नहीं रहेगा। और जब तक भारत में ब्याज की दरों में बढ़ोतरी नहीं की जाती है, पूंजी के बहिप्र्रवाह जारी रहेंगे और यह रुपए के अवमूल्यन को बढ़ाता रहेगा और इस तरह मुद्रास्फीति को और बढ़ाएगा। इसलिए, वित्त मंत्री की तंदुरुस्त आर्थिक बहाली के दावे की हवाबाजी दो कारणों से पूरी तरह से निराधार है। पहला कारण तो वही है, जिस पर हमने पिछले हफ्ते इसी स्तंभ में चर्चा की थी यानी जनता के हाथों में क्रय शक्ति की कमी के चलते, उसका उपभोग नीचा बना हुआ है। और दूसरा कारण है, अमरीका की मुद्रास्फीति की दर बढऩे के चलते, हमारी अर्थव्यवस्था पर पडऩे वाला दबाव, जो हमारी हमारी सरकार को और ज्यादा संकुचनकारी मौद्रिक तथा राजकोषीय रुख अपनाने की ओर ही धकेल रहा होगा।

यह समूचा परिदृश्य जो हमारे सामने खुल रहा है, बड़ी स्पष्टïता के साथ नवउदारवादी वैश्विक व्यवस्था की कार्यप्रणाली को हमारे सामने ले आता है। पहले हमारे यहां जो नियंत्रणात्मक व्यवस्था रही थी उसमें, अमरीकी अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति के बढऩे का अपने आप से भारतीय अर्थव्यवस्था पर कोई असर नहीं पड़ा होता या बहुत ही मामूली असर पड़ा होता। और अमरीका में इसके चलते जो संकुचनकारी मुद्रा तथा राजकोषीय नीति अपनायी गयी होती, उसका जो भी असर पड़ता, भारत के निर्यातों पर ही पड़ता क्योंकि इस सब के चलते भारतीय मालों का अमरीकी बाजार घट गया होता।

लेकिन, निर्यातों में इस तरह की गिरावट से, भुगतान संतुलन पर जो नकारात्मक असर पड़ता, उसे देश में आयात नियंत्रणों को कड़ा करने के जरिए सम्भाला जा सकता था और इस तरह निर्यातों में गिरावट के साथ-साथ, आयातों में भी गिरावट हो रही होती। रही बात निर्यातों में कटौती के चलते आर्थिक गतिविधियों के स्तर में गिरावट की, तो जिस हद तक आयातों पर अंकुश ने इस गिरावट को खुद ब खुद निष्प्रभावी नहीं बनाया होता, उसकी भी भरपाई सरकार के खर्चे में बढ़ोतरी से की जा सकती थी।

दूसरे शब्दों में, नियंत्रणात्मक अर्थव्यवस्थाओं के जमाने में हरेक अर्थव्यवस्था, अपने आप में एक स्वतंत्र सत्ता हुआ करती थी और ऐसी किसी सत्ता के स्तर पर मुद्रास्फीति में तेजी का, किसी दूसरी सत्ता पर जो असर पड़ता, उसे मुद्रास्फीति का अपने यहां आयात किए बिना ही संभाला जा सकता था और गतिविधियों को अपने ही देश की सीमाओं में बांधा जा सकता था। तीसरी दुनिया के दायरे में विभिन्न नीतिगत उपायों से उपयुक्त बदलावों के जरिए ही, विकसित दुनिया में मुद्रास्फीति में तेजी तथा उससे पैदा होने वाली मंदी के दुष्प्रभावों को, आसानी से संभाल जा सकता था।

लेकिन, वर्तमान नवउदारवादी व्यवस्था में, वित्त की पूरी दुनिया में मुक्त आवाजाही होती है और दूसरी ओर मालों व सेवाओं के आयातों पर अंकुश लगाए जाने को बुरा माना जाता है। इसलिए, किसी भी देश का सापेक्ष अलगाव खत्म हो जाता है और अपने यहां आर्थिक गतिविधि का एक निश्चित सकल स्तर बनाए रखने की उसकी सापेक्ष स्वायत्तता खत्म हो जाती है। इसकी जगह पर, किसी भी विकसित अर्थव्यवस्था में जो कुछ होता है, उसका असर तीसरी दुनिया की सभी अर्थव्यवस्थाओं पर बहुत दूर तक पड़ता है और यह भारत के संबंध में भी सच है। और नवउदारवादी व्यवस्था ऐसा स्वत:स्फूर्त तरीके से करती है और वह ऐसा करती है, कुछ खास नीतियां अपनाने के लिए सरकारों पर दबाव डालने के जरिए, सरकार चाहे या नहीं चाहे।

और इस तरह का दबाव भी असाधारण तेजी से पड़ता है। देशों की सीमाओं के आर-पार वित्त की (और मालों व सेवाओं की भी) आवाजाही की स्वतंत्रता, मंदी तथा मुद्रास्फीति की प्रवृत्तियों का देशों के आर-पार प्रसार, कहीं आसान तथा त्वरित बना देती है। इसलिए, भारत जैसा कोई देश अपने आंतरिक घटना विकास के चलते ही नहीं बल्कि अमरीका जैसे किसी विकसित पूंजीवादी देश में जो कुछ हो रहा है, उसके चलते भी बेरोजगारी के बोझ के नीचे दब सकता है। इसलिए मोदी सरकार, जो आंख मूंदकर नवउदारवाद से चिपकी हुई है, आने वाले दिनों में भारतीय जनता पर और ज्यादा आर्थिक आफत ढहाने वाली है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित इस लेख को पढ़ने के लिए क्लिक करें:

US Inflation: More Economic Distress in Store for India

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