खुदरा महंगाई दर में रिकॉर्ड उछाल से आम लोगों पर महंगाई की मार पिछले 6 महीने में सबसे ज़्यादा

साल 2021 के दिसंबर महीने के खुदरा महंगाई के आंकड़े जारी हुए हैं। नेशनल स्टैटिसटिकल ऑफिस के द्वारा जारी किए गए आंकड़ों के मुताबिक पिछले महीने की खुदरा महंगाई दर 5.59% पर थी। यह पिछले छह महीनों में खुदरा महंगाई दर का सबसे ऊंचा स्तर था। खुदरा महंगाई दर का यह आंकड़ा इतना ऊंचा है कि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया द्वारा निर्धारित 6% की महंगाई की सहनशील सीमा को छू रहा है।
सरल शब्दों में समझें तो यह कि अगर खुदरा महंगाई दर 6% को पार कर जाती है तो इसका मतलब है कि पानी सर से ऊपर निकल गया है। महंगाई मालिक को मुनाफा देने की बजाय मालिक को घाटा देने की तरफ बढ़ती जा रही है। अर्थव्यवस्था के लिए नुकसानदेह साबित होती जा रही है।
यह तो खुदरा महंगाई दर को लेकर के तकनीकी बातचीत हुई अब थोड़ा इस तकनीकी बात को तोड़कर समझते हैं कि यह बात भी समझ में आए कि इस आंकड़ें का हमारे और आपके जैसे आम लोगों के लिए क्या मतलब है?
खुदरा महंगाई दर उन सामानों और सेवाओं की कीमत के आधार पर निकाली जाती है जिसे ग्राहक सीधे खरीदता है। कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स का इस्तेमाल किया जाता है। सरकार कुछ सामानों और सेवाओं के समूह के कीमतों का लगातार आकलन कर खुदरा महंगाई दर निकालती है। सरकार ने इसके लिए फार्मूला फिक्स किया है। जिसके अंतर्गत तकरीबन 45% भार भोजन और पेय पदार्थों को दिया है और करीबन 28 फ़ीसदी भार सेवाओं को दिया है। यानी खुदरा महंगाई दर का आकलन करने के लिए सरकार जिस समूह की कीमतों पर निगरानी रखती है उस समूह में 45% हिस्सा खाद्य पदार्थों का है, 28 फ़ीसदी हिस्सा सेवाओं का है। यह दोनों मिल कर के बड़ा हिस्सा बनाते हैं। बाकी हिस्से में कपड़ा जूता चप्पल घर इंधन बिजली जैसे कई तरह के सामानों की कीमतें आती है।।
अब यहां समझने वाली बात यह है कि भारत के सभी लोगों के जीवन में खाद्य पदार्थों पर अपनी आमदनी का केवल 45% हिस्सा खर्च नहीं किया जाता है। साथ में शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी सेवाओं पर अपनी आय का केवल 28% हिस्सा नहीं खर्च किया जाता है। जो सबसे अधिक अमीर हैं जिनकी आमदनी करोड़ों में है, वे अपनी कुल आमदनी का जितना खाद्य पदार्थों पर खर्च करते हैं वह उनके कुल आमदनी का रत्ती बराबर हिस्सा होता है।
लेकिन भारत में 80% कामगारों की आमदनी महीने की ₹10,000 से भी कम है। इनके घर में खाद्य पदार्थों पर कुल आय का 45% से अधिक हिस्सा खर्च होता है। इनके घर में बच्चों के पढ़ाई लिखाई और दवाई के इलाज पर 28% से अधिक हिस्सा खर्च होता है। तकरीबन 80 से 90% हिस्सा दो वक्त की रोटी और अपने बच्चे की सरकारी स्कूल में पढ़ाई पर ही खर्च हो जाता होगा।
मतलब यह है कि खुदरा महंगाई भले 6 महीने के सबसे ऊंचे स्तर 5.59 फ़ीसदी पर पहुंच गई है। तकनीकी तौर पर कीमतें 2020 के दिसंबर के मुकाबले 2021 के दिसंबर महीने में 5.59% अधिक दर्ज की जाती होंगी। लेकिन इसका असर भारत में काम में लगी आबादी के 80% हिस्से पर बहुत ज्यादा पड़ रही होगी। उनके लिए घर चलाना बहुत अधिक मुश्किल हो गया होगा। अपने बच्चों को पढ़ाना लिखाना और बीमारी पर इलाज कराना बहुत ज्यादा कठिन हो गया होगा।
महंगाई की मार लगातार पड़ते आ रही है। लेकिन फिर भी यह चर्चा के केंद्र में इसलिए नहीं उभरता क्योंकि महंगाई की मार वह वर्ग नहीं सहन करता जो टीवी पर नियंत्रण रखता है। टीवी और अखबार के बहस में हिस्सा लेता है। महंगाई की मार आमदनी के पायदान पर सबसे नीचे मौजूद लोगों पर पड़ती है। उनके घरों में खर्चे की डायरी के पन्ने बार-बार पलटे जाते हैं। दूध अंडा हरी सब्जी की उपभोग पर कटौती की जाती है। कॉपी किताब कलम पेंसिल पर कम से कम खर्च करने की सलाह दी जाती है। प्रार्थना की जाती है कि घर में कोई बीमार ना पड़े। महंगाई का डर नीचे मौजूद लोगों को सताता है। वह इस डर के भीतर ही जीते हैं।
इस डर के ऊपर करोना की तीसरी लहर तो कहर बनकर टूट गई होगी। भीषण बेरोजगारी और बेकारी लगातार बढ़ते जा रही है।
बेरोजगारी भी बढ़ रही है, कंपनियों की उत्पादन क्षमता भी कम हो रही है और महंगाई भी अधिक बढ़ रही है।यह अर्थव्यवस्था के कुचक्र का सबसे नायाब उदाहरण है। यह बताता है कि सरकार अपने कामकाज में पूरी तरह से फेल हुई है।
इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन का कहना है कि दुनिया का औसत लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट 57% का है। लेकिन भारत का औसत लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट 40% के आसपास टिका है। उत्तर प्रदेश का तो 32% पर पहुंच गया है। इसका मतलब यह है कि ढेर सारे लोग जीवन की सबसे बुरी बीमारी बेरोजगारी का सामना कर रहे हैं। ढेर सारे लोग बेकारी की परेशानी से इतना निराश है की नौकरी की तलाश करना ही बंद कर दिया है। उन पर सोचिए कि महंगाई की कितनी बड़ी मार पड़ती होगी?
सरकार को लगता है कि वह लोगों की जेब में चंद पैसा डाल कर और चंद सुविधाएं पहुंचा कर वोट हासिल कर लेगी। लेकिन यही चालबाजी अर्थव्यवस्था पर लागू नहीं होती है। जीवन स्तर को बढ़ाने पर लागू नहीं होती। अगर कायदे से देखा जाए तो नरेंद्र मोदी सरकार अर्थव्यवस्था के हर पहलू पर फेल हुई है। भारतीय अर्थव्यवस्था आज अजीब हालत में पहुंच गई है। मांग की कमी है। रोजगार नहीं है। लेकिन महंगाई बढ़ रही है।
अर्थव्यवस्था के यह सारे कलपुर्जे मीडिया को पैसा खिलाकर अपने लिए प्रोपेगेंडा फैलाने से ठीक नहीं होते हैं। इनके लिए गहरे तौर पर काम करना होता है। लंबा सोच कर काम करना होता है। भारत से मनरेगा जैसी योजना हटा दी जाए तो बेरोजगारी का आलम इतना खतरनाक है कि बढ़ती हुई महंगाई कईयों किस जिंदगी को लील ले। सरकार को लग रहा है कि वह सब कुछ मैनेज कर लेगी लेकिन अर्थव्यवस्था का कुचक्र इतना गहरा होता जा रहा है कि हर वक्त आम लोगों पर वह कहर बनकर टूटता है। खुदरा महंगाई दर इसका एक उदाहरण भर है। थोक महंगाई दर पिछले कई महीनों से दहाई अंक के ऊपर बनी हुई है, यानी महंगाई की मार आने वाले वक्त में कम नहीं होने वाली।
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