एक काल्पनिक अतीत के लिए हिंदुत्व की अंतहीन खोज

केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय ने हाल ही में घोषणा की है, कि 1930 में हुए जंगल सत्याग्रह की स्मृति में महाराष्ट्र के यवतमाल जिले के पुसाद में एक नया संग्रहालय बनाया जाएगा। कथित तौर पर, यह संग्रहालय डॉ केशव बलिराम हेडगेवार को समर्पित किया जाएगा, जिन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन के हिस्से के रूप में पुसाद में जंगल आंदोलन का नेतृत्व किया था।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) के पहले प्रमुख हेडगेवार और इसके कुछ संस्थापक सदस्यों ने इस सत्याग्रह में भाग लिया था, जिसकी वजह से हेडगेवार को नौ महीने की जेल हुई थी। बाद में ब्रिटिश सरकार ने उनकी इस सजा को कम कर दिया था। हालांकि, इस प्रस्तावित स्मारक को इस परिचित नैरेटिव के साथ उचित ठहराया जा रहा है कि जब कांग्रेस पार्टी सत्ता में थी, तब उसने स्वतंत्रता संग्राम के वास्तविक नायकों की उपेक्षा की थी, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र की भाजपा सरकार इन नायकों को देश की स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव के अवसर पर उनका दाय दे रही है।
लेकिन तथ्य इसके विपरीत बोलते हैं। जंगल सत्याग्रह का नेतृत्व अपने समय के वकील, स्वतंत्रता-सेनानी और नागपुर के कांग्रेस सदस्य एमवी अभ्यंकर, अमरावती के मराठी पत्रकार, नाटककार, और स्वतंत्रता सेनानी वामनराव जोशी, और कांग्रेस राष्ट्रवादी पार्टी के संस्थापक, शिक्षाविद् एवं स्वतंत्रता सेनानी एमएस 'बापूजी' अणे जैसे क्षेत्रीय नेताओं ने किया था। अणे ने गोलवलकर की अत्यधिक विवादास्पद पुस्तक 'वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड' का परिचय भी लिखा था, जिसको आरएसएस भूलना चाहेगा।
इस सत्याग्रह को आयोजित करने का औचित्य सरल था। दरअसल, ब्रिटिश सरकार ने कठोर कानूनों के खिलाफ ऐतिहासिक दांडी यात्रा के प्रति दिखाई गई एकजुटता की कार्रवाई थी, जिसने वनों और वनोपजों तक लोगों की पहुंच को सीमित कर दिया था। महाराष्ट्र राज्य गजेटियर्स (यवतमाल) में इस आंदोलन का विवरण मिलता है: “देश के अन्य हिस्सों की तरह बरार में भी वन कानून की अवहेलना की गई थी। उस कानून का विरोध करने के लिए एमवी अभ्यंकर और वामनराव जोशी को गिरफ्तार किया गया था। 10 जुलाई 1930 को बापूजी अणे ने 'वन सत्याग्रह' का उद्घाटन करने के लिए नेतृत्व संभाला था। पार्टी के स्वयंसेवकों के साथ, उन्होंने यवतमाल के पुसाद में आरक्षित वनों से घास काटी और जिसके लिए उन्हें गिरफ्तार किया गया था। उन पर धारा 379 के तहत 'चोरी' का आरोप लगाया गया और इसका उन्हें दोषी ठहराया गया... इसके बाद सत्याग्रह मध्य प्रांत और बरार में फैल गया। इसमें गोंड और अन्य आदिवासी आदिवासियों ने भी हजारों की संख्या में भाग लिया था।”
जंगल सत्याग्रह के इस इतिहास को ध्यान में रखते हुए, क्या अभयंकर, जोशी, सत्याग्रह में भाग लेने वाले हजारों आदिवासियों और अणे, जिन्होंने गांधी के नमक सत्याग्रह के साथ एकजुटता दिखाते हुए विधानसभा से इस्तीफा दे दिया था, उनको संग्रहालय समर्पित करना उचित नहीं है? इसे हेडगेवार की याद में क्यों सौंपा जाना चाहिए, जिन्होंने स्वयंसेवकों के उकसाने के बावजूद अपने स्वयं के संगठन को आंदोलन में शामिल होने के लिए आह्वान करने से परहेज किया, बल्कि उन्हें सक्रिय रूप से शामिल होने से हतोत्साहित किया?
अतिवादी हिंदुत्व के समर्थकों द्वारा लिखी गई हेडगेवार की आत्मकथाएं जंगल सत्याग्रह में उनकी भूमिका एवं स्थिति की पुष्टि करती हैं, यह रिकॉर्ड करते हुए कि हेडेगेवार ने "सूचना भेजी कि संघ सत्याग्रह में भाग नहीं लेगा"। यह तथ्य सीपी भिशिकर द्वारा लिखित 'संघ वृक्ष के बीज: डॉ केशव बलिराम हेडगेवार' किताब में है, जिसे सुरुचि प्रकाशन द्वारा 1994 में प्रकाशित की गई है। यह पुस्तक हेडगेवार की आधिकारिक जीवनी मानी जाती है। इसमें इस बात का विवरण है कि संगठन का चिंतन तब किस दिशा में सोच रहा था। सीपी लिखते हैं, ''महात्मा गांधी ने लोगों से सरकार के विभिन्न कानूनों को तोड़ने का आह्वान किया था। गांधी ने स्वयं विरोध में नमक सत्याग्रह की शुरुआत दांडी यात्रा से की थी। डॉ साहब [हेडगेवार] ने हर जगह सूचना भेजी कि संघ सत्याग्रह में भाग नहीं लेगा। हालांकि, इसमें व्यक्तिगत रूप से भाग लेने के इच्छुक लोगों को प्रतिबंधित नहीं किया गया था। इसका मतलब था कि संघ का कोई भी जिम्मेदार कार्यकर्ता सत्याग्रह में भाग नहीं ले सकता था।”
खुद हेडगेवार भी इस जंगल सत्याग्रह में आरएसएस के एक नेता के रूप में नहीं बल्कि व्यक्तिगत रूप से शामिल हुए थे। इसके पीछे विचार था कि यह"उन्हें कई स्थानों से देशभक्त युवाओं से परिचित होने का अवसर दे सकता है...जो भविष्य में संघ की गतिविधियों का विस्तार करने में बहुत मदद करेगा।" ये वाक्य एचवी शेषाद्री द्वारा संपादित और साहित्य सिंधु प्रकाशन द्वारा 2021 में प्रकाशित,कि किताब 'हेडगेवार: द एपोच मेकर' के पृष्ठ 111 पर दर्ज हैं।
एनएच पालकर ने हेडगेवार की जीवनी मराठी में लिखी थी और इसकी प्रस्तावना संघ के दूसरे सुप्रीमो एम एस गोलवलकर ने लिखी थी। इस जीवनी में पालकर ने इस बात पर रोशनी डाली है कि सत्याग्रह में शामिल होने के इच्छुक स्वयंसेवकों को हेडगेवार ने तब क्या कहा था। इसके मुताबिक हेडगेवार पूछते हैं,"अगर आपको दो साल की सजा मिलती है, तो क्या आप इसके लिए तैयार हैं? 'जब इन युवकों ने इस सजा को भुगतने के लिए तत्परता दिखाई, तब डॉक्टर [हेडगेवार] कहते थे, 'तो संघ के काम के लिए इतना समय क्यों नहीं दिया जाता है, यह मानते हुए कि आपको अंग्रेजों द्वारा दंडित किया गया है?'”
1974 में भारतीय विचार साधना, नागपुर द्वारा हिंदी में प्रकाशित 'श्रीगुरुजी समग्र दर्शन-एमएस गोलवलकर के संकलित कार्य' के चौथे खंड के पृष्ठ 39 और 40 पर आरएसएस की एक ऐसी ही घटना का वर्णन किया गया है, जिसमें हेडगेवार के नेतृत्व में संघ को जानबूझकर स्वतंत्रता आंदोलन से दूर रखा गया था। ये सभी ब्योरे न केवल जंगल सत्याग्रह के दौरान बल्कि इसके बाद में भी संघ नेतृत्व के समझौतावादी रवैये को प्रदर्शित करते हैं।
हेडगेवार विश्व इतिहास के एक अनूठे दौर में जी रहे थे, जब पुराना सामंती उपनिवेशवाद चरमरा रहा था और एक नई दुनिया का उदय हो रहा था। फिर भी वह 'हिंदू धर्म की गौरवशाली परंपराओं' पर आधारित एक हिंदू राष्ट्र के निर्माण के लिए लालायित हो रहे थे, जिसमें मुसलमानों को ब्रिटिश उपनिवेशवादियों की तुलना में बड़े विरोधी के रूप में देखा गया था। वे इतिहास की नब्ज को समझने में असफल रहे थे। उनकी हठ ने बढ़ते उपनिवेश-विरोधी संघर्ष से आरएसएस को अलग रखा। न ही उन्होंने अपने संगठन के लिए कोई सकारात्मक कार्यक्रम तैयार किया। इसकी बजाय, उन्होंने उभरती हुई हिंदू-मुस्लिम एकता को तोड़ने में अपना जीवन खपा दिया।
जंगल सत्याग्रह में हेडगेवार की भागीदारी अंग्रेजों का विरोध करने के महान उद्देश्य के लिए नहीं थी, और न ही औपनिवेशिक शासन के खिलाफ अपना गुस्सा व्यक्त करने के लिए थी। यह क्षेत्र के युवाओं के साथ संपर्क स्थापित करने और "उन्हें आरएसएस के पाले में लाने" की गरज से की गई थी।
अब आरएसएस परिवार के समर्थक चाहे जो भी दावा करें, हेडगेवार एक नए रूप में उभरने से इनकार करते हैं। उन्हें जंगल सत्याग्रह का नेता घोषित करना न्याय का उपहास होगा, जिन्हें देश की आजादी के लिए लड़ने के लिए जेल में बंद देशभक्तों का मजाक उड़ाने में कोई गुरेज नहीं था। 'हेडगेवार: द एपोच मेकर' के अनुसार उनका कहना था,“आज जेल जाना देशभक्ति की निशानी माना जाता है...जब तक कि इस प्रकार की क्षणभंगुर भावना भक्ति और निरंतर प्रयासों की सकारात्मक और स्थायी भावनाओं को जगह नहीं देती है, देश की मुक्ति नहीं हो सकती।”
हमें इन सभी तथ्यों को जनता के सामने रखना चाहिए; वे सार्वजनिक डोमेन में आसानी से उपलब्ध हैं और ये स्पष्ट करते हैं कि प्रस्तावित संग्रहालय एक काल्पनिक विचार को समर्पित है। इस तरह का गढ़ा गया अतीत इतिहास को फिर से जीवंत तो नहीं कर पाएगा बल्कि आंदोलन के असली नेताओं को खामोश कर देगा और उन्हें प्रभावी ढंग से गायब कर देगा। देश के जागरूक नागरिकों को सरकार को बताना चाहिए कि अगर हेडगेवार के नाम पर संग्रहालय बनाना ही है तो यह सरकारी खजाने की कीमत पर नहीं बनना चाहिए।
जो लोग भारत को एक हिंदू राष्ट्र में बदलना चाहते हैं, वे अपने संस्थापकों को महान नायकों के रूप में पवित्र करना चाहते हैं। उनके प्रयास हमें यह याद दिलाते हैं कि आरएसएस के तीसरे सुप्रीमो बालासाहेब देवरस ने कथित तौर पर क्या कहा था: 'हम बस [आजादी के करीब पहुंचने] से चूक गए', जैसा कि 28 जून 2003 को जनसत्ता अखबार में एक प्रसिद्ध लेखक-पत्रकार द्वारा उद्धृत किया गया था। अखबार के अनुसार, देवरस इस बात को स्वीकार करने में काफी मुखर थे कि आरएसएस, हालांकि देश में उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष के दौर में स्थापित हुआ था, वह इसको भांपने में चूक गया कि आजादी बहुत करीब है, वह "घटनाओं से अभिभूत" था।
शायद हिंदुत्व के समर्थकों को यह स्वीकार करना होगा कि उनकी बस छूट गई, जिसने उन्हें इतिहास के गलत मोड़ पर छोड़ दिया। अब फिर, स्वतंत्रता संग्राम के उपयुक्त प्रतीकों, कुछ नेताओं को धुला कर पवित्र करने और दूसरों को गढ़ने के उनके उग्र प्रयास भी विफल हो जाएंगे।
(लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। आलेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं।)
अंग्रेजी में मूल रूप से लिखे गए लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें
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