क्या वैश्वीकरण अपने चरम को पार कर चुका है?

निश्चित तौर पर आपने "वैश्वीकरण" के बारे में सुना होगा। लेकिन आपका "डि-ग्लोबलाइज़ेशन (वैश्वीकरण की प्रक्रिया का विपरीत/वैश्वीकरण का खात्मा होना)" के बारे में क्या सोचना है?
आपूर्ति श्रृखंला में बाधा, बढ़ती कीमतें, माल की कमी- दैनिक जीवन की यह सारी वास्तविकताएं एक प्रक्रिया से संबंधित हैं, जिसका नाम “डिग्लोबलाइज़ेशन” है। कुछ विशेषज्ञ तो महामारी की पृष्ठभूमि में यूक्रेन युद्ध को वैश्वीकरण के खात्मे की शुरुआत होने की दिशा में बड़ा कदम मान रहे हैं। लेकिन नई दुनिया कैसा आकार लेगी?
वैश्वीकरण/भूमंडलीकरण से संक्षिप्त परिचय
विशेषज्ञ तीन तरह के वैश्वीकरण की बात करते हैं: आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक वैश्वीकरण।
आर्थिक वैश्वीकरण, दुनिया की अर्थव्यवस्था का व्यापार के मामले में एकीकरण है। निश्चित तौर पर इस प्रक्रिया की वकालत और आलोचना, दोनों ही मौजूद हैं। इसकी वकालत करने वालों का कहना है कि वैश्वीकरण लोगों को गरीब़ी से उबारता है और उनके जीवन की गुणवत्ता में सुधार करता है।
1995 से 2020 के बीच अति गरीब़ी की स्थिति में कमी आई है, लेकिन महामारी की शुरुआत के बाद गरीब़ी एक बार फिर बढ़ने लगी है। लेकिन अपनी तमाम सकारात्मक चीजों के बावजूद, वैश्वीकरण से होने वाले लाभ का समान तरीके से वितरण नहीं हुआ है।
म्यूनिक में एलएमयू में इतिहास के प्रोफ़ेसर एंड्रियाज़ वर्स्किंग कहते हैं, "वैश्विक और औद्योगिक समाजों में असमानता बढ़ी है। आर्थिक वैश्वीकरण से निश्चित तौर पर बहुत सारे विजेता उपजे हैं, लेकिन कई लोग हारे भी हैं। इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता।"
जर्मनी में बर्टेल्समान स्टिफटंग संस्थान में वरिष्ठ विशेषज्ञ और अर्थशास्त्री कोरा जंगब्लथ कहती हैं कि वैश्वीकरण के नुकसानों में सामाजिक और पर्यावरणीय दुष्परिणाम भी शामिल हैं। ज़्यादा आय वाले देशों के कर्मचारियों ने अपनी नौकरियों को कम कीमत पर काम देने वाले देशों में जाते हुए देखा। जबकि "बहुराष्ट्रीय संस्थानों ने ज़्यादा गंदे उत्पादन के कामों को विकासशील देशों में विस्थापित कर दिया, इस तरह वहां पर्यावरणीय मुद्दों के उभार में योगदान दिया।"
वैश्वीकरण के आलोचक इसके पर्यावरणीय प्रभाव और इसके चलते अमीरों और गरीब़ों में बढ़ रही खाई को लेकर चेतावनी देते हैं।
महामंदी के बाद से वैश्वीकरण वापसी की ओर है
जिस तरह वैश्वीकरण, एक-दूसरे पर बढ़ती आर्थिक निर्भरता की प्रक्रिया को दर्शाती है, उसी तरह “डि-ग्लोबलाइज़ेशन”, वैश्विक आर्थिक निर्भरता और एकजुटता से पलायन को दिखाती है। अब ऐसे संकेत भी मिल रहे हैं कि यह प्रक्रिया पिछले कुछ समय से जारी है।
वैश्वीकरण का एक अहम सूचकांक "दुनिया की कुल जीडीपी में व्यापार की हिस्सेदारी है", यह हिस्सेदारी 2008 में महामंदी की शुरुआत के वक़्त अपने चरम पर पहुंची थी।
अमेरिका में डार्टमाउथ कॉलेज में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर डगलस इरविन कहते हैं, "1990 और 2000 के दशक में कुल वैश्विक जीडीपी की तुलना में निर्यात का अनुपात बेहद तेजी से बढ़ा। लेकिन 2008 और 2009 के आर्थिक संकट के बाद से यह प्रक्रिया या तो समतल हुई है या नीचे गई है।"
इरविन और दूसरे विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि इस प्रक्रिया का संबंध, संरक्षणवादी और लोक-लुभावन आर्थिक नीतियों से भी है। लेकिन ऐसे दूसरे कारक भी हैं, जो वैश्विकरण की प्रक्रिया को रोक रहे हैं।
तब आई महामारी।
आर्थिक नज़रिए से देखें, तो महामारी आपूर्ति श्रृंखला को बाधित करने के लिए कुख्यात रही। कौन कोरोना के दौर में होने वाली चीजों की कमी, कीमतों के इज़ाफे, जमाखोरी को भूल सकता है? हार्वर्ड केनेडी स्कूल में सीनियर फैलो और अर्थशास्त्री मेघन ग्रीन कहती हैं कि इस तरह की अनियमित्ताओं ने आपूर्ति श्रृंखलाओं की डिज़ाइन में बुनियादी बदलाव किए हैं।
वे कहती हैं, "महामारी ने उत्पादन प्रक्रिया को, उत्पाद के तुरंत निर्माण के बजाए, उत्पादन का पहले से भंडारण करने की प्रवृत्ति की तरफ ढकेला है।" वे इस नए आपात तंत्र को "ग्लोबल सप्लाई चेन प्लस बैकअप प्लान" कहती हैं, ताकि जब वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला बाधित हो, तब कंपनियां अधर में ना फंसी रहें।
इस "सप्लाई चेन प्लस" मॉडल में जंगब्लथ जोड़ते हुए बताती हैं कि देश और कंपनियां अब आपूर्ति श्रृंखला को छोटा से छोटा करना चाह रही हैं। "शायद वे इसे वापस अपने यहां ही ले जाएं, मतलब जरूरी चीजों का उत्पादन और तकनीक, अपने ही क्षेत्र के उत्पादन स्थल के पास रखें।"
इससे आपूर्ति श्रृंखला में ज़्यादा मजबूती आएगी, लेकिन यह कदम वैश्वीकरण को कमज़ोर करने का काम करेगा, जो कार्यकुशलता और कीमतों की प्रभावोत्पादकता पर ज़्यादा केंद्रित रहता है।
और फिर अब हुआ यूक्रेन में युद्ध
उपभोक्ताओं को यूक्रेन पर रूस के हमले की आंच महसूस हुई। रूस पर लगाए गए प्रतिबंधों के बाद यह आंच खासतौर पर ऊर्जा और कृषि उत्पादन क्षेत्रों में ज़्यादा महसूस की गई। बर्टेल्समान स्टिफटंग में जंगल्थ के सहयोगी थीस पीटरसन कहते हैं, “हमारे यहां जरूरी ऊर्जा आयातों में कमी आई है, क्योंकि यूरोप को रूस से जीवाश्म ऊर्जा चाहिए होती है। फिर पूरी दुनिया को ही रूस और यूक्रेन से कृषि उत्पादों का आयात करना होता है।” बता दें रूस और यूक्रेन, गेहूं और सूरजमुखी के तेल के बेहद अहम निर्यातक हैं।
इरविन, युद्ध के चलते निर्यात बाधित होने और रूस पर लगाए गए प्रतिबंधों के चलते कीमतों में कुछ उछाल आने की पुष्टि करते हैं। “हमने देखा कि इस युद्ध के चलते वस्तुओं की कीमतों में कुछ इज़ाफा हुआ है: गेहूं, तेल (कम से कम शुरुआत में) की कीमतों में इज़ाफा हुआ है।” इससे उपभोक्ताओं के लिए कीमतों में बढ़ोतरी होती है, जिससे महंगाई बढ़ती है।
सिक्के के दूसरी तरफ, रूस पर लगाए गए प्रतिबंधों से एक बड़ी अर्थव्यवस्था, बाकी दुनिया से अलग हो रही है।
जब 1990 में पहला मैकडोनाल्ड रूस के मॉस्को में खुला था, तब बड़ी संख्या में रूसी वहां पहुंचे थे। आज इस अमेरिकी कंपनी के वहां सैकड़ों आउटलेट हैं।
अर्थशास्त्री यहां सिर्फ़ आपस में जुड़े बाजा़रों के अलगाव को नहीं देखते, बल्कि उन्हें यहां वैश्वीकरण के साथ आई प्रगति भी खत्म होते हुए दिख रही है।
जंगब्लथ कहती हैं कि यूक्रेन पर रूस के हमले से पैदा हुई बुनियादी चीजों की कमी सिर्फ उच्च आय वाले देशों में नहीं, बल्कि विकासशील देशों में भी महसूस होगी। ऐसे देश जो सस्ते आटे और तेल के आयात पर निर्भर थे, “वहां भुखमरी तक का सामना करना पड़ सकता है।”
वैश्वीकरण के युग का अंत
पीटरसन आखिर में कहते हैं कि महामंदी, टैरिफ के ज़रिए संरक्षणवादी नीतियों को लागू किया जाना, महामारी के चलते आपूर्ति श्रृंखला का फिर से गठन, आपस में जुड़े वस्तु बाज़ार का यूक्रेन युद्ध के चलते बिखराव, शायद अब हम भूमडंलीकरण के खात्मे की शुरुआत पर आ खड़े हुए हैं।”
अर्थशास्त्री ग्रीन कहती हैं कि वैश्वीकरण को मापने का कोई पैमाना या सूचकांक ही नहीं है। वे महामारी की शुरुआत के साथ प्रसारित किए जाने वाले विमर्श (वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला का क्षेत्रीयकरण, उत्पादन के केंद्रों को अपनी सीमा या अपने पास रखना) को चुनौती देती हैं। इस विमर्श के आधार में सर्वे आंकड़ों के जसा कोई पैमाना ही नहीं है।
ग्रीन आगे कहती हैं, “शंघाई चेंबर ऑफ़ कॉमर्स द्वारा हाल में करवाए गए सर्वे में एक भी अमेरिकी कंपनी ने नहीं कहा कि वे अपने क्रियाकलापों को वापस अपने देश में स्थापित करेंगी, मतलब चीन से बाहर जाएंगी।”
वैश्वीकरण के चलते चीन दुनिया की उत्पादन फैक्ट्री में तब्दील हुआ और कंपनियां वहां से निकलने की जल्दबाजी में भी नहीं हैं।
ग्रीन कहती हैं कि हालांकि चीन में लंबे वक़्त का निवेश भले ही जारी हो, लेकिन रूस के यूक्रेन पर चढ़ाई करने के बाद अल्पकालिक निवेश बाहर जाना शुरू हो गए, यह बदलाव का एक संकेत हो सकता है। लेकिन आगे ग्रीन यह भी कहती हैं, “भले ही वैश्वीकरण का उच्चतम स्तर हमारे पीछे रह गया हो, लेकिन मैं कहूंगी कि पहले की तुलना में हम वैश्वीकरण की धीमी प्रगति को देख रहे हैं। लेकिन हम अब तक भूमंडलीकरण के खात्मे (डिग्लोबलाइज़ेशन) की स्थिति में नहीं आएं हैं।”
नई खेमेबंदी
जंगब्लथ का मानना है कि रूस के खिलाफ़ पश्चिमी प्रतिबंध और चीन से निवेश का बाहर जाना एक व्यापक प्रक्रिया की तरफ इशारा करता है। “हाल के सालों में कई देश, दूसरे देशों पर अत्याधिक निर्भरता कम करने की कोशिश कर रहे हैं, इससे भी भूमंडलीकरण के खात्मे की प्रक्रिया को बल मिलता है।”
इरविन यहां शीत युद्ध के दौर से तुलना करते हैं, “जब कुछ राजनीतिक तौर पर एक-दूसरे से जुड़े देश, आर्थिक तौर पर भी एक-दूसरे से बेहद नज़दीकी ढंग से जुड़ गए। लेकिन वे बाकी के दूसरे देशों से नहीं जु़ड़े।”
जंगब्लथ, पीटरसन और दूसरे अर्थशास्त्रियों का मानना है कि दुनिया फिलहाल दो भूराजनीतिक आर्थिक खेमे बनाने की ओर बढ़ रही है। एक तरफ़ लोकतांत्रिक, बाज़ार संचालित अर्थव्यवस्थाएं (अमेरिका, यूरोपीय संघ, जापान, दक्षिण कोरिया और दक्षिण अमेरिका) है, तो दूसरी तरफ तानाशाह राज्यों (चीन और रूस, व उनके अहम व्यापारिक साझेदार देश) का खेमा है।
जंगब्लथ कहती हैं कि “अब हम भूराजनीतिक को वापस आते हुए देख रहे हैं, और इन प्रवृत्तियों के चलते भूमंडलीकरण अपने खात्मे की तरफ भी बढ़ेगा- मतलब देश, अब अपनी तरह ना सोचने वाले देशों पर आर्थिक निर्भरता कम करने की कोशिश करेंगे।”
जब से रूस ने यूक्रेन पर हमला किया है, तबसे चीन में सिर्फ़ “तात्कालिक निवेश/पैसा या अल्पकालीन निवेश” ही बाहर गया है। तो क्या हम अब एक नए युग की शुरुआत पर खड़े हैं? इतिहासकार एंड्रियाज़ वर्स्किंग अंत में इसे लोगों के बीच का एक चर्चित विमर्श बताते हुए अपनी बात खत्म करते हैं।
वे कहते हैं, “आप इन दोनों घटनाओं को एकसाथ सोच सकते हैं: 2020 की महामारी, और अब 2022 में यह युद्ध। आसपास रहने वालों के तौर पर हमें आभास हो रहा है कि कुछ तो बुनियादी बदलाव हो रहा है। लेकिन इन अलग-अलग तत्वों को कैसे एकसाथ देखा जा सकेगा, वह तो बाद में ही साफ़ हो पाएगा।”
संपादन : स्टेफनी बर्नेट, एंड्रियास इल्मर
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