ज्ञानवापी विवाद: पूजा स्थल अधिनियम-1991 का अब क्या मतलब रह गया!

अयोध्या में 22 जनवरी को राम मंदिर के उद्घाटन और प्राण प्रतिष्ठा के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में कहा- अब आगे क्या?
हालांकि उन्होंने अपने भाषण में अच्छी-अच्छी बातें कहीं। देश को आगे ले जाने की बातें कीं। युवाओं से विकसित भारत बनाने के लिए काम करने को कहा लेकिन उनके समर्थकों ने शायद उसे उसी अर्थ में लिया जो उन्हें पहले से पढ़ाया और समझाया गया है। यानी अब आगे— ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा ईदगाह।
मंदिर कार्यक्रम के बाद देश के कई राज्यों में जगह-जगह हिंसा और तनाव की स्थिति देखने को मिली। एक चर्च पर भी भगवा लहराने का वीडियो सामने आया, यह सब शायद इसी ‘आगे क्या’ की एक कड़ी हैं।
बनारस का काशी विश्वनाथ मंदिर-ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि-शाही ईदगाह का विवाद हालांकि पहले से ही छेड़ा जा चुका था। लेकिन इस बीच इसमें रणनीतिक तौर पर कभी तेज़ी तो कभी शिथिलता बरती गई लेकिन राम मंदिर में मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा के तुरंत बाद ज्ञानवापी को लेकर मुहिम तेज़ कर दी गई है।
पूजा स्थल अधिनियम (प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट), 1991: 1991 में लागू किया गया यह प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट कहता है कि 15 अगस्त 1947 से पहले अस्तित्व में आए किसी भी धर्म के पूजा स्थल को किसी दूसरे धर्म के पूजा स्थल में नहीं बदला जा सकता।
इतना ही नहीं इसमें यह तक कहा गया कि कोई भी व्यक्ति किसी भी धार्मिक संप्रदाय या उसके किसी खंड के पूजा स्थल को उसी धार्मिक संप्रदाय के किसी अलग खंड के पूजा स्थल में भी परिवर्तित नहीं करेगा।
यदि कोई इस एक्ट का उल्लंघन करने का प्रयास करता है तो उसे जुर्माना और तीन साल तक की जेल भी हो सकती है।
यह कानून कांग्रेस के नेतृत्व वाली तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव सरकार 1991 में लेकर आई थी। यह कानून तब आया जब बाबरी मस्जिद और अयोध्या का मुद्दा बेहद गर्म था।
शायद यही वजह थी कि राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद को अपवाद स्वरूप इससे अलग रखा गया। यानी उसे इस एक्ट से छूट दे गई। इस छूट के कारण ही इस कानून के लागू होने के बाद भी अयोध्या मामले की सुनवाई चलती रही।
लेकिन अब राम मंदिर विवाद के हल के बाद भी विवाद ख़त्म नहीं हुए हैं। और इस क़ानून की खुलेआम धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। पिछले कुछ सालों में तो इसी क़ानून को ही कोर्ट में चुनौती दी जा चुकी है।
इस क़ानून के उपबंधों और अपवादों का फ़ायदा उठाकर ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा ईदगाह को लेकर मुकदमों की सुनवाई लगातार चल रही है।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 14 दिसंबर, 2023 को कृष्ण जन्मभूमि-शाही ईदगाह मामले में कोर्ट की निगरानी में सर्वे कराने की मांग स्वीकार भी कर ली। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने 16 जनवरी, 2024 को इस आदेश पर रोक लगा दी है। लेकिन बात अभी ख़त्म नहीं हुई है।
ज्ञानवापी मामले में तो ASI का सर्वे भी हो चुका है और उसकी रिपोर्ट दोनों पक्षों को भी सौंप दी गई है जिसके बाद हिंदू पक्ष ने उसे सार्वजनिक भी कर दिया है और जिसके बाद मीडिया में यह नैरेशन बना दिया गया है कि ज्ञानवापी मस्जिद एक पुराना मंदिर है यानी मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई।
वज़ू-ख़ाना के फव्वारे को शिवलिंग बताकर इस विवाद को नये सिरे से शुरू किया गया। हालांकि सुप्रीम कोर्ट की रोक की वजह से फव्वारे और शिवलिंग विवाद में तो एएसआई का सर्वे नहीं हो सका है। लेकिन इसकी पूरी कोशिश की जा रही है, बार-बार अपील डाली जा रही है।
बनारस की अदालत ने 21 अक्टूबर, 2023 को हिंदू पक्ष की इस दलील को ख़ारिज कर दिया था कि कथित शिवलिंग को छोड़कर वजूखाना का सर्वेक्षण कराया जाए। कोर्ट ने ये भी कहा कि एएसआई को उस क्षेत्र का सर्वेक्षण करने का निर्देश देना उचित नहीं है क्योंकि इससे सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन होगा। सुप्रीम कोर्ट ने इस इलाके को संरक्षित घोषित किया है।
इसके बाद इस आदेश को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई है। इसमें अपडेट यह भी है कि उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति मनीष कुमार निगम ने 24 जनवरी को इस मामले की सुनवाई से खुद को अलग कर लिया।
वरिष्ठ पत्रकार विजय विनीत की रिपोर्ट के अनुसार इसी दिन यानी 24 जनवरी को बनारस के जिला न्यायाधीश डॉ. एके विश्वेश की अदालत ने ASI सर्वे रिपोर्ट की सत्यापित प्रतिलिपि दोनों पक्षों को देने का निर्देश दिया, लेकिन इस रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किए जाने के बाबत किसी भी पक्ष से हलफ़नामा नहीं मांगा गया।
अब 25 जनवरी, 2024 को क़रीब 1600 पन्नों की सर्वे रिपोर्ट को डिस्ट्रिक कोर्ट में खोला गया। जिसकी सत्यापित प्रतिलिपि के लिए कुल 11 लोगों ने कोर्ट में अर्जी दी। हिंदू पक्ष की ओर से पांच याचिकाकर्ताओं के अलावा अंजुमन इंतेजामिया मसाजिद कमेटी, सेंट्रल वक्फ बोर्ड, काशी विश्वनाथ ट्रस्ट, राज्य सरकार, मुख्य सचिव, गृह सचिव और वाराणसी जिला मजिस्ट्रेट का प्रतिनिधित्व करने वाले अधिवक्ताओं ने सर्वेक्षण रिपोर्ट की प्रति के लिए आवेदन किया।
इस सर्वे रिपोर्ट पर किसी तरह की आपत्ति होने पर दोनों पक्षों को 6 फरवरी 2024 तक इसे कोर्ट में दर्ज कराने का समय दिया गया।
लेकिन अब कोई क्या आपत्ति करे, कब आपत्ति करे, सर्वे रिपोर्ट मिलने के कुछ ही समय बाद ही टीवी चैनलों पर फ्लैश चलने लगा कि ज्ञानवापी मस्जिद हिंदू मंदिर को तोड़कर बनाई गई है और एएसआई के सर्वे में मंदिर के अवशेष मिले हैं। जबकि एएसआई ने अपना कोई अंतिम निष्कर्ष नहीं दिया है।
सवाल यही है कि अब आगे क्या?
प्रधानमंत्री मोदी कहते हैं कि राम आग नहीं, ऊर्जा हैं, विवाद नहीं समाधान हैं। लेकिन राम के नाम पर कितनी आग लगाई गई, सब जानते हैं। तो क्या अब शिव और कृष्ण के नाम पर भी यही खेल खेला जाएगा। इसी सबसे देश को बचाने और आगे बढ़ाने के लिए ही तो पूजा स्थल अधिनियम लाया गया था।
सार्वजनिक पूजा स्थलों के चरित्र को संरक्षित करने को लेकर यह क़ानून लाते समय संसद ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि इतिहास और उसकी गलतियों को वर्तमान और भविष्य के परिप्रेक्ष्य में बदलाव नहीं किये जा सकते। सुप्रीम कोर्ट ने 2019 के अयोध्या फ़ैसले के दौरान भी पांच न्यायाधीशों ने एक स्वर में यही कहा था।
इसलिए इस अधिनियम को पढ़ना और समझना ज़रूरी है।
पूजा स्थल अधिनियम (प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट) 1991 की धारा- 2
यह धारा कहती है कि 15 अगस्त 1947 में मौजूद किसी धार्मिक स्थल में बदलाव के विषय में यदि कोई याचिका कोर्ट में पेंडिंग है तो उसे बंद कर दिया जाएगा।
धारा- 3
इस धारा के अनुसार किसी भी धार्मिक स्थल को पूरी तरह या आंशिक रूप से किसी दूसरे धर्म में बदलने की अनुमति नहीं है। इसके साथ ही यह धारा यह सुनिश्चित करती है कि एक धर्म के पूजा स्थल को दूसरे धर्म के रूप में न बदला जाए या फिर एक ही धर्म के अलग खंड में भी न बदला जाए।
धारा- 4 (1)
इस कानून की धारा 4(1) कहती है कि 15 अगस्त 1947 को एक पूजा स्थल का चरित्र जैसा था उसे वैसा ही बरकरार रखा जाएगा।
धारा- 4 (2)
धारा- 4 (2) के अनुसार यह उन मुकदमों और कानूनी कार्यवाहियों को रोकने की बात करता है जो प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट के लागू होने की तारीख पर पेंडिंग थे।
धारा- 5
प्रावधान है कि यह एक्ट रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मामले और इससे संबंधित किसी भी मुकदमे, अपील या कार्यवाही पर लागू नहीं करेगा।
अयोध्या विवाद के अलावा इस अधिनियम में इन्हें भी छूट दी गई है:
कोई भी पूजा स्थल जो एक प्राचीन और ऐतिहासिक स्मारक है, या एक पुरातात्त्विक स्थल है जो प्राचीन स्मारक और पुरातत्त्व स्थल एवं अवशेष अधिनियम, 1958 द्वारा संरक्षित है।
एक ऐसा वाद जो अंतत: निपटा दिया गया हो
कोई भी विवाद जो पक्षों द्वारा सुलझाया गया हो या किसी स्थान का स्थानांतरण जो अधिनियम के शुरू होने से पहले सहमति से हुआ हो।
धारा 6
अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन करने पर जुर्माने के साथ अधिकतम तीन वर्ष के कारावास की सज़ा का प्रावधान करती है।
लेकिन आज फिर नया विवाद सामने है। नया ख़तरा सामने है। इससे बचना है तो फिर पूजा स्थल अधिनियम को सख़्ती से लागू करना होगा। मगर अफ़सोस कि जिन्हें इसे लागू करना है वे ही इन विवादों को आगे बढ़ाना चाहते हैं।
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