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सूत्र और सरकार: झूठ के इस युग में ख़बरों की सच्चाई!

आजकल सूत्रों के नाम पर ख़ूब धांधली है। पहले सरकार या पार्टी अपनी मर्ज़ी से ख़बरें चलवाते हैं और जब उसका नकारात्मक असर पड़ने की संभावना होती है तो उससे पल्ला झाड़ लेते हैं।
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प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार गूगल

 

आजकल खबरों का एक नया ट्रेंड चल पड़ा है। खबरें संवाददाताओं को संवाददाता सम्मेलन करके या प्रेस विज्ञप्ति जारी करके बताने की बजाय संवादददाताओं को अलग-अलग बताई जाती हैं। लेकिन खबर अलग-अलग नहीं होती। बल्कि एक ही होती है। आप अखबार या चैनल देखें तो आपको इसका पता आसानी से लग जाएगा। सभी खबरें सभी अखबार और चैनलों में लगभग एक जैसी ही होती हैं। उनकी प्लेसिंग ( लगाया जाने वाला स्थान ) भी लगभग एक जैसी ही होती है। इसका लाभ यह होता है कि सरकार या पार्टी उस खबर की विश्वसनीयता से परे होती है। सरकार या पार्टी जब चाहे उस खबर से अपने आप को अलग बता सकते हैं या खबर का खंडन कर सकते हैं। पिछले कुछ समय से आपको ऐसी खबरें लगातार दिख रही होंगी।

अभी सिंदूर वाली खबर आपने देखी होगी। सारे चैनल और सारे अखबारों ने खबर चलाई कि सत्ताधारी दल बीजेपी घर-घर सिंदूर बांटेगी। यह सेना के सिंदूर अभियान को भुनाकर पार्टी की वोट पाने की योजना थी। पार्टी को लगा कि जिस तरह से पुलवामा कांड के बाद बालाकोट पर हमला करके उसके बूते वोट मांगकर सरकार बना ली गई वैसा ही इस ऑपरेशन सिंदूर का लाभ उठाकर पश्चिम बंगाल नहीं तो कम से कम बिहार चुनाव तो जीता ही जा सकता है। इसीलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ऑपरेशन सिंदूर के बाद सीधे बिहार जाते हैं और फिर बाद में जहां जहां जाते हैं ऑपरेशन सिंदूर को चुनावों से जोड़ने की कोशिश करते हैं। लेकिन जल्दी ही पार्टी और सरकार को पता चल जाता है कि सिंदूर बांटने को आम परिवार अच्छा नहीं मान रहे। उनमें इसे लेकर विरोध है। उनका कहना है कि पत्नी अपने पति का दिया हुआ सिंदूर लगाती है किसी गैर आदमी के हाथ का नहीं। 

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इस मुद्दे को लेकर और ज्यादा हमलावर हो जाती हैं। नतीजा यह निकलता है कि पार्टी को अपना रुख बदलना पड़ता है। पार्टी की आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय कहते हैं कि ममता बनर्जी झूठी खबर को लेकर प्रतिक्रिया जताती हैं। 

घर-घर सिंदूर बांटने वाली खबर को देश में सबसे ज्यादा बिकने वाले अखबार दैनिक भास्कर ने छापा था। उसे अपनी खबर का खंडन छापना पड़ता है और माफी भी मांगनी पड़ती है। इसी तरह दिल्ली के प्रमुख अंग्रेजी अखबार द टाइम्स ऑफ इंडिया को भी अपनी खबर का खंडन छापना पड़ता है।

पुलवामा कांड में भी ऐसा ही हुआ

आपने पीछे भी देखा होगा कि पुलवामा कांड के बाद सेना ने पाक अधिकृत कश्मीर के बालाकोट में हमला किया था। तब सूत्रों के हवाले से सारे चैनल और अखबारों ने खबर छापी की तीन सौ आतंवादी मारे गये। न तो सरकार ने इसकी पुष्टि की और न ही सेना ने। सब कुछ सूत्रों के हवाले से चलता रहा। इस पर विपक्ष ने जब सवाल उठाया तो इसका सबूत देने की बजाय कहा गया कि वहां उस समय तीन सौ मोबाइल फोन सक्रिय थे। इसी आधार पर मान लिया गया कि वे सारे मोबाइल आतंकवादियों के थे और हमले में वे सभी मारे गये। चूंकि तब ये देश को सूट कर रहा था, जनता में इसका सकारात्मक असर हो रहा था इसलिए उस खबर से पल्ला झाड़ने या फिर खंडन करने की जरूरत महसूस नहीं हुई। अगर सिंदूर बांटने वाली खबर का भी नकारात्मक असर न होता तो इस खबर को भी यूं ही चलने दिया जाता।

आज मंगलवार, 3 जून को ही अखबारों में एक खबर छपी है। वह भी सूत्रों के ही हवाले से है। खबर ये है कि पिछले छह साल में पहली बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी 7 की बैठक में नहीं जाएंगे। खबर में नीचे दिया गया है कि बैठक 15-17 जून को होने वाली है। लेकिन अभी तक कनाडा ने भारत को आमंत्रित ही नहीं किया है। अब अगर आमंत्रित भी करे तो भाग लेना मुश्किल ही होगा क्योंकि उसके लिए तैयारी करना भी होता है। ये खबर भी आज सूत्रों के हवाले से तब छपवाई गई जब सोशल मीडिया पर यह आने लगा कि कनाडा ने भारत को आमंत्रित ही नहीं किया। विश्व गुरू की ये हालत हो गई है और पिछले 11 सालों में इन्होंने देश की ये हालत कर दी है कि जब पाकिस्तान पर हमला किया तो विश्व का कोई भी देश इनके समर्थन में सामने नहीं आया और अब कनाडा ने जी 7 की बैठक में भी आमंत्रित नहीं किया।

पहले के सूत्रों और अब के सूत्रों में अंतर

सूत्रों के हवाले से पहले भी खबरें छपती थीं। लेकिन तब वो सच्ची खबरें होती थीं। उन खबरों के सच होने का प्रतिशत 99 से भी ज्यादा होता था। कई बार अखबार ये लिख भी देते थे कि पार्टी या सरकार के जिस व्यक्ति ने ये खबर दी है वो नहीं चाहता कि उसका नाम जाहिर किया जाए। इसलिए उसका नाम नहीं दिया जा रहा है। तब संवाददाता अपनी जिम्मेदारी पर उस खबर को ब्रेक करता था। खबर गलत होने या कोई विवाद होने पर वह उसकी जिम्मेदारी भी लेता था। कुछ मामलों में वह सजा भी भुगत लेता था लेकिन अपना स्रोत नहीं बताता था। लेकिन अब संवाददाता जानता है कि चूंकि सरकार के लोग ही उसे सूचना दे रहे हैं तो बात बिगड़ने पर या खबर गलत होने पर भी उसके खिलाफ कार्रवाई नहीं होगी। अधिक से अधिक खंडन छापकर ही जान बच जाएगी। ज्यादातर मामलों में तो वो भी नहीं करना पड़ता। 

हाल के वर्षों में ऐसे कई मामले हुए हैं जिनकी उन्हीं सत्ताधारी दलों और उनके नेताओं के कहने पर खबरें चलाई गईं और गलत होने पर माफी मांगने तक की भी जरूरत नहीं महसूस की गई। उसी का नतीजा है कि नोट में चिप लगाने से लेकर जाने कैसी-कैसी बेतुकी खबरें चलाई गईं। अब तो कांग्रेस के कई प्रवक्ताओं ने यहां तक कहना शुरू कर दिया है कि चैनलों और अखबारों के सूत्र पीएमओ में बैठा एक अधिकारी है। उसी के कहने पर बिना सूत्र बताए बिना गलत खबरें भी चलाई जाती हैं।

पहले इस तरह की स्थितियां कम होती थीं। यदा कदा इस तरह की खबरें प्लांट होती थीं। बाद में इसका प्रचलन बढ़ाने में भी बीजेपी का बड़ा योगदान है। जब कांग्रेस की सरकार थी तो एक वरिष्ठ पत्रकार, जिन्हें बाद में बीजेपी ने राज्य सभा में भेजा, आईएनएस पर पहुंच जाते थे और कुछ पत्रकारों को एक्सक्लूसिव के नाम पर अलग-अलग खबरें प्लांट कराते थे। लेकिन वो एक ही खबर सारे पत्रकारों को नहीं बताते थे, बल्कि सबको अलग-अलग खबरें बताया करते थे। तब आईएनएस के सामने चाय की दुकान पर ज्यादातर पत्रकार जुटते थे। शाम को जैसे ही वो पत्रकार महोदय पहुंचते थे, जानकार उन्हें देखकर मुस्कराते थे और साथी पत्रकारों से कहते थे कि अब आ गये हैं। खबरें प्लांट होंगी। पर अब तो यह आम हो गया है। संस्थागत रूप से खबरें प्लांट कराई जा रही हैं। वह भी बिना सामने आए।

खबरों के अलावा और भी तरह की गलत सूचनाएं दी जा रही हैं। करीब तीन साल पहले मेरे एक मित्र ने मुझसे पूछा, तुम्हें कितनी पेंशन मिलती है ? मैंने कहा, “कुछ भी नहीं, एक पैसा भी नहीं”। तो तुम फॉर्म क्यों नहीं भरते ? मोदी जी ने पत्रकारों के लिए 20 हजार पेंशन की व्यवस्था की है। फॉर्म भरो और लाभ उठाओ। मेरी आंखें चमक उठीं। अगर बुढ़ापे में 20 हजार रुपया मिलने लगे तो बेटे, रिश्तेदार या किसी परिचित के सामने हाथ नहीं फैलाना पड़ेगा। मैंने उनसे पूछा कि फॉर्म कहां मिलेगा ? उन्होंने जवाब दिया - केंद्र सरकार की साइट पर देख लेना। उनकी बात सुनकर मुझे अच्छा लगा लेकिन थोड़ा संदेह भी हुआ। मेरे जितने पुराने जानकार हैं सभी को पेंशन मिलती है। किसी को 12 सौ, किसी को 18 सौ, अधिक से अधिक 32 सौ की पेंशन मैंने सुनी है। मैंने अपनी शंका उनसे जाहिर की। नाम ले लेकर सबकी पेंशन के बारे में उन्हें बताया तो उन्होंने कहा कि उन्हें मालूम नहीं होगा। वरना वो भी फॉर्म भरते तो उन्हें भी बीस हजार रुपये की पेंशन मिलती। तुम मेरे करीबी हो, इसलिए तुम्हें मैंने बता दिया। उनके जवाब से मेरा संदेह और बढ़ गया। क्योंकि जिन लोगों की मैं बात कर रहा था वे अपनी कम पेंशन को लेकर चिंतित रहते थे और जब भी बात होती थी कहते थे सरकार को कम से कम इतनी व्यवस्था तो करनी चाहिए जिससे वृद्धावस्था ठीक-ठाक कट जाए। 

जो मुझे बीस हजार पेंशन की सलाह दे रहे थे वे खुद पत्रकारिता की नौकरी से रिटायर हुए थे। मैंने उनसे पूछा, आपको कितनी पेंशन मिलती है ? उन्होंने कहा, मेरी बात छोड़ो। आपने फॉर्म नहीं भरा ? मैंने पूछा। जवाब दिया- नहीं। आपको जरूरत नहीं है? नहीं। शक काफी बढ़ गया। बाद में मैंने उनके कथन की जांच की। पता चला ऐसा कहीं कुछ नहीं है। किसी ने बताया कि कुछ लोग मोदी सरकार के समर्थन में यूं ही झूठ फैला रहे हैं। लोगों को बता रहे हैं कि मोदी सरकार ने तो आम लोगों के लिए बहुत कुछ कर दिया है। अब अगर लोग ही जागरूक न हों तो उसमें सरकार क्या करे। आप अगर मिल रही सहूलियत भी नहीं ले सकते तो इसमें मोदी सरकार क्या कसूर ?

रेलवे को लेकर भ्रामक ख़बरें

यह बात सिर्फ पेंशन तक ही सीमित नहीं है। बुजुर्गों को कोरोना से पहले रेल यात्रा में पचास फीसदी की छूट मिलती थी। कोरोना खतम हो गया। बुजुर्गों की सुविधाएं रेलवे ने वापस नहीं कीं। लेकिन अगर आप गूगल पर जाएं तो आपको ढेरों खबरें मिलेंगी।  “बुजुर्गों के लिए खुशी की बात। रेलवे ने की शानदार घोषणाएं।“ लेकिन जब आप खबर पढ़ेंगे तो उसमें आपको कुछ भी नहीं मिलेगा। आप अपने आप पर खीझेंगे कि नाहक इतना समय खबर पढ़ने में बर्बाद किया। अभी फिर खबरें चल रही हैं कि 15 जून से बुजुर्गों को रेलवे रियायतें देने जा रहा है। मैंने लालच में आकर ये जानते हुए भी कि इस तरह की खबरों में कुछ नहीं होता, फिर भी खबर पढ़ गया। पता चला कि साधारण और स्लीपर क्लास में बुजुर्गों को तीस प्रतिशत छूट मिलेगी। वह भी 15 जून से। अभी इसकी भी परीक्षा 15 जून के बाद ही होगी। मिलने लगे तब मानिये। वैसे जो पचास प्रतिशत की छूट थी वह 30 प्रतिशत कर दी गई। पहले यह छूट बुजुर्गों को हर श्रेणी में मिलती थी। एसी में भी। लेकिन अब वह छूट सिर्फ जनरल और स्लीपर क्लास तक ही सीमित कर दी गई है। मेरा खुद का अनुभव है कि जो लोग कल तक स्लीपर क्लास में चल रहे थे आज वो एसी 3 में चलने लगे हैं। उसकी वजह ये नहीं कि उनकी आमदनी बढ़ गई है बल्कि ये है कि वे जैसे पहले असुविधाओं के चलते जनरल टिकट लेकर चलने की स्थिति में नहीं थे उसी तरह अब स्लीपर क्लास में चलने की स्थिति में नहीं हैं। पहले जितनी भीड़ स्लीपर क्लास में होती थी अब उतनी ही भीड़ एसी 3 में होती है। स्लीपर क्लास तो जनरल जैसा हो गया है। उसमें चढ़ना, बैठना, यात्रा करना नौजवानों के बस की बात नहीं, बुजुर्ग क्या करेंगे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अभी हाल ही में बिहार गये थे। उन्होंने वहां अपने भाषण में कहा कि बिहार तेजी से तरक्की कर रहा है। चौड़ी-चौड़ी सड़कें बनाई जा रही हैं। ट्रेनों के ट्रैक बिछाये जा रहे हैं। आप बिहार के किसी जिले के बस स्टैंड या रेलवे स्टेशन पर खड़े होकर वहां के हालात देखें और उसी समय मोदी जी का भाषण सुनें तो आपको असलियत और कही गई बातों का अंतर साफ-साफ दिखेगा। सड़कों पर सरकारी बसों की संख्या बेहद कम है। लोग या तो प्राइवेट बसों की मदद ले रहे हैं या घंटों इंतजार कर रहे हैं। ट्रेनें भी ठूंस-ठूंस कर भरी हैं। लोग चढ़ने-उतरने के गेटों से लेकर बाथरूम के दरवाजे तक भरे पड़े हैं।

आयुष्मान कार्ड की सच्चाई

ये बातें सिर्फ पेंशन या यात्रा के संदर्भ में नहीं हैं, बल्कि जीवन के हर जरूरी क्षेत्र में लागू हैं। स्वास्थ्य एक ऐसा ही क्षेत्र है जिसके बारे में सरकार खूब प्रचार कर रही है। सरकार यह कहने से नहीं चूकती कि पांच लाख तक के इलाज की व्यवस्था कर दी गई है। अब किसी को ये सोचने की जरूरत नहीं है कि पैसे के बिना उसका इलाज कैसे होगा? आयुष्मान कार्ड सबका बना दिया गया है। लेकिन सच्चाई क्या है ? आयुष्मान कार्ड की अपनी बहुत सारी शर्तें हैं। वह आधार ऐसा बना दिया गया है कि उसी में अस्सी प्रतिशत लोग छंट जाते हैं। बाकी जो बचते हैं उनमें भी दस प्रतिशत लोगों का भी आयुष्मान कार्ड नहीं बना है। अगर कार्ड बन भी गया है तो बहुत से अस्पताल उसे स्वीकार ही नहीं करते हैं। सरकारी अस्पतालों की हालत ये है कि वहां मरीजों को देखने के लिए पर्याप्त डॉक्टर नहीं हैं। विशेषज्ञ डॉक्टरों का तो घोर अभाव है। सरकार जितना वेतन दे रही है उस वेतन पर आने के लिए नए विशेषज्ञ डॉक्टर तैयार ही नहीं हैं। शायद ही कोई अस्पताल हो जहां शत प्रतिशत डॉक्टरों के पद भरे हों। मरीजों के परीक्षण की या तो मशीनें नहीं हैं या अगर हैं तो उन्हें चलाने वाले योग्य कर्मी नहीं हैं। सरकारी अस्पतालों में दवा भी सिर्फ खांसी-जुकाम की ही मिलती है। डॉक्टर मरीज से खुद पूछ लेते हैं कि अगर बाहर से दवा खरीद सकते हो तो कहो लिख दें क्योंकि यहां ये दवा नहीं है। मरीज क्या कहेगा। बाहर से दवा लेने के लिए हामी भर देता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

 

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