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गंगा में बहाये गये कोविड-19 पीड़ितों की लाशों से कोरोना वायरस के फैलने पर विशेषज्ञों की बंटी हुई राय

अगर कोरोनावायरस पानी के ज़रिये नहीं भी फैलता है, तब भी यह चिंता बढ़ाने वाली बात तो है ही कि कोविड पीड़ितों की सड़ी हुई लाशों से इस नदी का पानी बुरी तरह प्रदूषित होगा और जलीय जीव और मनुष्य के जीवन, दोनों पर ही इसका असर पड़ेगा।
गंगा में बहाये गये कोविड-19 पीड़ितों की लाशों से कोरोना वायरस के फैलने पर विशेषज्ञों की बंटी हुई राय
प्रतिकात्मक फ़ोटो: साभार: द इंडियन एक्सप्रेस

नई दिल्ली: गंगा, यमुना और उनकी सहायक नदियों या उप-सहायक नदियों में संदिग्ध कोविड-19 पीड़ितों की सैकड़ों लावारिस लाशों को फेंके जाने से इस घातक वायरस का संचरण नहीं हो सकता है। हालांकि, जानकारों का मानना है कि इस तरह के कार्य से नदियों के किनारे बसे कई गांवों और इलाक़ों के पीने के पानी के प्रमुख स्रोत निश्चित रूप से प्रदूषित हो गया है और इससे जलीय वनस्पतियों और जीवों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है।

विशेषज्ञों का दावा है कि आने वाले दिनों में, ख़ास तौर पर बारिश के मौसम के दौरान बैक्टीरिया के संक्रमण में ज़बरदस्त बढ़ोत्तरी हो सकती है और बाद में जब नदी के किनारे की रेत में दबी हुई लाशें रेत के कटाव के चलते फिर से सतह पर आयेंगी, तब इस तरह की स्थिति देखने को और मिलेंगी।

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) में मालवीय गंगा अनुसंधान केंद्र के अध्यक्ष, डॉ बी.डी.त्रिपाठी ने न्यूज़क्लिक को बताया, “अगर शवों को फेंकने पर सख़्ती से रोक नहीं लगायी जाती है, तो अन्य संक्रामक रोगों के संभावित प्रकोप से इंकार नहीं किया जा सकता है। चूंकि, इस समय गंगा नदी में पानी का बहाव कम है, इसलिए तैरती हुई सड़ी-गली लाशों के चलते गंगा के पानी में जैविक भार बढ़ जायेगा, जिससे कि जलीय जीवन पर असर पड़ेगा।” वह आगे बताते हैं, "इन सड़ी-गली लाशों में कई हानिकारक बैक्टीरिया और कवक होते हैं। नदीं में पलने वाले छोटे-छोटे जीवों को मांसाहारी मछलियां खा जाती हैं और इन मछलियों के ज़रिये इन्हें मनुष्यों तक पहुंचाया जा सकता है।”

ग़ौरतलब है कि उत्तर प्रदेश के ग़ाज़ीपुर से बिहार के बक्सर तक गंगा में बड़ी संख्या में शव तैरते हुए देखे जाने के बाद राज्य प्रशासन हरक़त में आया था और लाशों को बाहर निकलवाया था। कुछ के तो अंतिम संस्कार कर दिये गये थे, लेकिन बाक़ी बची लाशों को नदी के किनारे रेत में दफ़न कर दिया गया था। उत्तर प्रदेश के उन्नाव और फ़तेहपुर ज़िलों में संभवतः रेत के कटाव के चलते कई शवों को नदी में तैरते हुए फिर से देखा गया है।

यह पूछे जाने पर कि क्या संदिग्ध कोविड-19 पीड़ितों के इन शवों से बीमारी और फैल सकती है और क्या वायरस पानी के ज़रिये फैल सकता है, डॉ त्रिपाठी ने बताया कि इसके जवाब के लिए गहन शोध की ज़रूरत है, जो अभी तक उपलब्ध नहीं है। उन्होंने बताया, “इस निष्कर्ष के लिए बहुत ज़्यादा शोध की ज़रूरत है कि क्या कोई शव कोविड-19 के लिए संक्रामक है या नहीं। अब तक तो ऐसा कोई सबूत नहीं मिला है, जिससे यह पता चलता हो कि पानी से यह वायरस फैलता है। हवा इसके संक्रमण का मुख्य ज़रिया है। निकट संपर्क में सांस में मौजूद छोटी-छोटी बूंदें और एरोसोल लोगों को संक्रमित कर सकते हैं।”  वह इस बात पर ज़ोर देते हैं कि तैरती हुई लाशें निस्संदेह नदी को प्रदूषित करेंगी, जिससे सेहत से जुड़ी दूसरे ख़तरे  पैदा हो सकते हैं।

उत्तर प्रदेश, मत्स्य पालन विभाग के पूर्व निदेशक, डॉ अरविंद मिश्रा भी पानी के ज़रिये संचरण की संभावना को यह तर्क देते हुए दूर की कौड़ी बताते हैं कि जैव-रासायनिक प्रक्रिया, जो वायरस के विकास और गुणन के लिए ज़रूरी है, एक संक्रमित व्यक्ति की मौत के बाद वह प्रक्रिया रुक जाती है। उन्होंने कहा कि किसी भी पशुजन्य बीमारी के फैलने का कोई ख़तरा इसलिए नहीं है, क्योंकि इस राज्य में आम तौर पर मांसाहारी मछलियां नहीं खायी जाती हैं।

उनका कहना है,  “इस इलाक़े के लोगों को रोहू (Labeo Rohita), कतला (Labeo Catla) और अन्य छोटी-छोटी मछलियां पसंद हैं। ये मछलियां अपने भोजन के लिए इस शवों पर नहीं, बल्कि मुख्य रूप से ज़ोप्लांकटन (छोटे और अविकसित जीवों) पर निर्भर होती हैं। हिमालय की नदियों में पाये जाने वाली बड़ी-बड़ी मांसाहारी मछलियां जो अपने भोजन के लिए लाशों पर निर्भर होती हैं, वे हैं-गूंच और बगरियस बैगेरियस, लेकिन इनके शिकार पर रोक है। ये बड़ी-बड़ी मछलियां क्रमशः 125 किग्रा और 70 किग्रा तक की होती हैं।"  

लेकिन, उनका भी मानना है कि इतनी बड़ी संख्या में शवों को फेंके जाने से निश्चित रूप से गंगा प्रदूषित तो होगी और इसका "पवित्र जल" नहाने और पीने के क़ाबिल नहीं रह जायेगा।

वाराणसी के संकट मोचन मंदिर के मुख्य पुजारी और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान-बीएचयू में पढ़ाने वाले शिक्षक, विश्वंभर नाथ मिश्रा ने कहा कि गंगा में सड़ी हुई और फूली हुई लाशों का मिलना "गंभीर चिंता" की बात है और इससे भारत के ग्रामीण इलाक़ों में कोविड-19 की तबाही की "सच्चाई की पोल खुल" जाती है।

अगर समय रहते इस पर रोक नहीं लगायी गयी, तो एक और मानवीय त्रासदी होगी, ऐसा कहते हुए उन्होंने न्यूज़क्लिक को बताया, "तैरती हुई लाशें वास्तव में इस पवित्र नदी और उसके जलीय जीवन को प्रदूषित कर रही हैं।" उन्होंने कहा, "नदी के पानी पर जैविक भार इस हद तक बढ़ गया है कि इसका प्रभावी शोधन भी नहीं हो सकता है।"  वह आगे बताते हैं, "मनुष्य के जीवन पर इसके प्रभाव पर किसी भी तरह की टिप्पणी करने से पहले इस पर शोध किये जाने की ज़रूरत है।"

बीएचयू के आयुर्विज्ञान संस्थान के कार्डियोलॉजी विभाग के सहायक प्रोफ़ेसर, डॉ ओम शंकर का मानना है कि पानी के ज़रिये मनुष्यों में इस बीमारी के फैलने की संभावना को पूरी तरह ख़ारिज नहीं किया जा सकता है।

“यह तो पहले से ही वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हो चुका है कि यह वायरस अलग-अलग सतहों पर अलग-अलग समय तक बना रहता है। अगर लाशें संक्रमित हैं, तो उनमें वायरस तो है,  जो कि पानी में मरने वाला भी नहीं है। इसमें कोई शक नहीं कि यह नदी के वनस्पतियों और जीवों को इसलिए प्रभावित करेगा, क्योंकि यह भी एक सिद्ध तथ्य है कि कई जानवर भी वायरस से संक्रमित हुए हैं।

उनका कहना है कि "थोड़ी देर के लिए भूल जाइये कि पानी के ज़रिये वायरस फैलता है",  लेकिन यह देखते हुए कि उस नदी में शवों के अपघटन से मानव जीवन पर विनाशकारी प्रभाव डालने वाला है, जो कि कई लोगों के लिए पीने के पानी का स्रोत है। उन्होंने कहा,  "पानी का यह प्रदूषण आने वाले दिनों में कई बैक्टीरिया और कवक से होने वाले संक्रमण को जन्म देगा।"

हालांकि, आईआईटी-कानपुर के प्रोफ़ेसर, सतीश तारे ज़ोर देकर कहते हैं कि नदियों में शवों के फेंकने से संचरण पर महत्वपूर्ण प्रभाव तो नहीं पड़ेगा, लेकिन वह इस बात को स्वीकार करते हैं कि इससे नदियां प्रदूषित होंगी।

पर्यावरण इंजीनियरिंग, पानी की गुणवत्ता और अपशिष्ट जल उपचार पढ़ाने वाले और राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन से जुड़े तारे कहते हैं, “पानी बहने के दौरान पानी में बहुत सारी चीज़ें घुलती रहती हैं। इसलिए,  पानी में फेंके गये कोविड-19 पीड़ितों के शव वायरस नहीं फैलायेंगे। पानी के सामान्य शोधन के समय इसका ध्यान रखा जायेगा।”

हालांकि, केंद्र सरकार का दावा है कि लाशों के बहा देने के चलते गंगा के पानी की गुणवत्ता में बहुत ज़्यादा फ़र्क नहीं देखा गया है,  सरकार कथित तौर पर केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के पूरी देखरेख में पानी के नमूनों में नोवल कोरोना वायरस की मौजूदगी के परीक्षण की ज़िम्मेदारी लेकर राष्ट्रीय रासायनिक प्रयोगशाला और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी,  पुणे जैसे विशेष संस्थानों को सौंपने पर विचार कर रही है।

इससे जुड़ा हुआ घटनाक्रम यह है कि संजय गांधी स्नातकोत्तर आयुर्विज्ञान संस्थान (SGPGI) के सूक्ष्म जीव विज्ञान विभाग ने लखनऊ के तीन स्थानों से गंदे पानी के नमूने एकत्र किये हैं और आरटी-पीसीआर परीक्षण के बाद लिये गये इन नमूनों में से एक नमूने में नोवल कोरोना वायरस की मौजूदगी पायी गयी है।

हालांकि, एसजीपीजीआई का कहना है कि चिंता की कोई बात नहीं है, क्योंकि पानी से यह वायरस नहीं फैलता है। एसजीपीजीआई के निदेशक, डॉ आरके धीमान का कहना है, “कोई शख़्स सिर्फ़ सांस से निकली छोटी-छोटी बूंदों और एरोसोल को सांस के भीतर लेने से ही इस वायरस को अपने भीतर ग्रहण करता है। कभी-कभी,  यह वायरस आंत में चला जाता है और शरीर के मल के ज़रिये बाहर निकल जाता है। इसलिए, अगर गंदे पानी का परीक्षण किया भी जाता है, तो यह एक टूटे हुए भाग (स्पाइक प्रोटीन) की मौजूदगी के चलते पोज़िटिव नतीजा देगा। लेकिन,  यह तो एक मरा हुआ वायरस है और इसलिए पानी से नहीं फैल सकता है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Experts Divided over Whether Bodies of COVID-19 Victims Dumped in Ganga Can Spread Coronavirus

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