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विमर्श: बंगाल चुनाव के बाद संघीय राजनीति का भविष्य क्या होगा?

संघवाद की परिभाषा ही है राजनीतिक शक्तियों का संतुलन और केंद्र व राज्य सरकारों के बीच संसाधनों का बांटा जाना। इस संदर्भ में, संघीय राजनीति अखिल-भारतीय पार्टियों और क्षेत्रीय दलों के बीच गठबंधन के स्वरूप से कहीं आगे जाती है। बल्कि उसे संघीय पुनर्संरचना और संघीय सुधार के कार्यक्रम पर आधारित होना चाहिये।

Bangal
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार: The Federal

 

पश्चिम बंगाल चुनाव में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को राजद के नेता तेजस्वी यादव और समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव का समर्थन मिलने से संकेत मिल रहा है कि इस राज्य के चुनाव का देशव्यापी राजनीतिक प्रभाव होगा। यदि ममता जीतती हैंतो ‘‘संघीय मोर्चे’’ (federal front)  की सुषुप्त धारणा को प्रोत्साहन मिलेगा और इस स्थिति में विपक्षी राजनीति में कांग्रेस की सापेक्षिक स्थिति कमजोर होगी। यदिएक सुदूर संभावता के बतौर हम मानें कि तृणमूल बहुमत हासिल करने से कुछ सीटें पीछे रह जाती हैऔर उसे सरकार बनाने के लिएयहां तक कि गठबंधन सरकार बनाने के लिएकांग्रेस पर निर्भर होना पड़ता हैतो वर्तमान समय के लंबवत विभाजित (vertically divided) और ध्रुवीकृत विपक्षी राजनीति में पुनर्संयोजन होगा। तब विपक्षी खेमे में नेतृत्वकारी भूमिका के लिए कांग्रेस द्वारा उतनी प्रतिस्पर्धा नहीं होगी।

 

तथाकथित फेडरल फ्रंट’ दैशीयता की राजनीति पर आधारित क्षेत्रीय दलों का केवल एक ढीलाढाला चुनावी गठबंधन था। अब तक ऐसी विपक्षीय एकता की पहलकदमियां कोई ठोस संघीय एजेंडा पेश न कर सकीं। संघवाद की परिभाषा ही है राजनीतिक शक्तियों का संतुलन और केंद्र व राज्य सरकारों के बीच संसाधनों का बांटा जाना। इस संदर्भ मेंसंघीय राजनीति अखिल-भारतीय पार्टियों और क्षेत्रीय दलों के बीच गठबंधन के स्वरूप से कहीं आगे जाती है। बल्कि उसे संघीय पुनर्संरचना और संघीय सुधार के कार्यक्रम पर आधारित होना चाहिये।

 

महामारी के दौर के हाल के विकासक्रम ने बेहतर ढंग से साबित कर दिया है कि मोदी का सहकारी संघवाद’ का नारा ढकोसला मात्र है और इससे विपक्षीय राजनीति के लिए एक ठोस संघीय एजेंडा के उभार को प्रोत्साहन मिल रहा है। तीन विवादास्पद सवाल हैं- राज्यों को जीएसटी क्षतिपूर्ति (compensation) देने के वायदे पर केंद्र का मुकर जानाराज्यों को बजटीय संसाधन स्थानान्तरित (resource transfer) करने के मामले में भारी कमी और अक्टूबर 2020 में जारी की गई 15वीं वित्तीय आयोग (Finance Commission) रिपोर्ट में राज्यों के साथ सौतेला व्यवहार होना। संघीय राजनीति में राजकोषीय संघवाद या फिस्कल फेडरिलज्म संघीय व्यवस्था का केंद्रीय पहलू है। और राजकोषीय संघवाद के मुद्दे के केंद्रीय पहलू हैं- कर या टैक्स लगाने की क्षमतासंसाधन एकत्र करना और संसाधनों का स्थानांतरण व हस्तांतरण। पर राजकोषीय संघवाद (fiscal federalism) ऐसा मामला नहीं है जिसे हमेशा के लिए हल कर लिया जा सकता है। बल्कि राजकोषीय परिदृष्य साल-दर-साल अलग होता है और उनके द्वारा सामने लाए जा रहे राजकोषीय संघवाद के प्रश्न भी बहुत पृथक हो सकते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो राष्ट्रीय एजेंडे पर आ रहे प्रत्येक मुद्देमसलन महामारीप्रवासी संकटराष्ट्रीय आपदामंदीवैक्सीन वितरणयहां तक कि सीमा पर टकराव की वजह से संसाधनों में कमीसहित राष्ट्रीय सुरक्षा को चुनौती आदिहर बार संसाधनों के संघीय बंटवारे के मुद्दे को नए सिरे से पेश करते हैं।

 

2020 के विशिष्ट वर्ष ने इस संकटपूर्ण समय में राजकोषीय सहभागिता (co-operative federalism) का मुद्दा सामने ला दिया। संघीय राजनीति मेंखासकर तब जब महामारी जैसा राष्ट्रीय संकट होस्वाभाविक है कि केंद्र और राज्यों को महामारी और उसके चलते आई मंदी का मुकाबला मिलकर ही करना होगा। पर केंद्र की मोदी सरकार ने राज्यों पर जरूरत से ज्यादा भार थोप दिया है।

 

केंद्र ने अपनी प्रतिबद्धता के साथ विश्वाघात किया कि वह राज्यों को राजस्व घाटे की भरपाई करेगाऔर इसकी अभिव्यक्ति यूं हुई कि राज्यों को जीएसटी शासन के लिए जबरन राजी करवाया गया।

 

जीएसटी कम्पेंसेशन की राजनीति

टैक्स सुधारखासकर गुड्स ऐण्ड सर्विसेज़ टैक्स (GST) सर्वप्रथम एक संघीय मुद्दा रहा। टैक्जेशन राजकोषीय संघवाद की तह में है क्योंकि वह निर्धारित करता है कि कितने संसाधानों की उगाही की गई और राज्यों व केंद्र के बीच बांटी कैसे गईं। जब जीएसटी लागू किया गयायोजित मूल्य कर या वैल्यू ऐडेड टैक्स तथा राज्यों द्वारा लागू किये जा रहे अन्य बिक्री कर जीएसटी के अंदर समाहित कर दिये गए। तो राज्यों का यह अधिकार छिन गया कि वे इन करों को लागू कर केंद्रीय उत्पाद शुल्क के अपने हिस्से के साथ-साथ इनके माध्यम से संसाधनों की उगाही कर सकें। इसकी जगह उन्हें जीएसटी में अपना हिस्सा मिलाजो आपसी सहमति के फार्मूले के तहत केंद्र द्वारा एकत्र और वितरित किया गया।

 

शुरू में कई आर्थिक रूप से विकसित राज्यों ने जीएसटी शासन को मानने से इन्कार कियाक्योंकि केंद्र से जीएसटी का जो हिस्सा उन्हें मिलना था वह उनके द्वारा हासिल किये जा रहे वैट/बिक्री कर (VAT/Sales tax)  से काफी कम थाइसलिए जीएसटी के मायने था उनका घाटा। वे जीएसटी शासन के लिए तब तैयार हुए जब केंद्र ने आश्वासन दिया कि राज्यों की जो भी राजस्व हानि जुलाई 2017 से लेकर जून 2022 तक होगीउसका मुआवजा या कम्पेंसेशन उन्हें मिलेगा। गुड्स ऐण्ड सर्विसेज़ एक्ट 2017 (Goods and Services Act 2017) के तहत केंद्र द्वारा 5 साल के फुल कम्पेंसेशन’(full compensation)  की गारण्टी थी।

 

पर इस कम्पेंसेशन की गणना कैसे की गईजीएसटी लागू होने से तीन साल पूर्व के वैट और राज्यों के अन्य कर राजस्व का औसत निकाला गया और मान लिया गया कि 2015-16 को आधार वर्ष लेकर वह 14 प्रतिशत प्रति वर्ष के दर पर बढ़ रहा था। इस राशि और राज्य को देय जीएसटी में जो अंतर होगा वह राज्यों का घाटा होगाऔर केंद्र को इसी राशि की भरपाई करनी थीभले ही यह कम या अधिक हो और उतार-चढ़ाव के जो भी कारण हों। इस मुआवजे की राशि की उगाही करने के लिए केंद्र ने लग्ज़री (luxury) उपभोक्ता वस्तुओं पर सेस लगा दिया। 2019-20 मेंलॉकडाउन प्रारंभ होने से पूर्वकेंद्र ने राज्यों को 1.65 लाख करोड़ जीएसटी कम्पेंसेशन अदा किया। इसमें से केवल लग्ज़री सामग्रियों से 95,444 करोड़ रुपये आ गए थे।

 

पर महामारी के वर्ष मेंलॉकडाउन के कारणआवश्यक सेवाओं को छोड़कर अर्थव्यवस्था लगभग ठप्प हो गईजीएसटी और सेस सामान्य से बहुत कम एकत्र हो सके। फिर भीकेंद्र तो कर्तव्य से बाध्य था कि राज्यों को समझौतानुसार कम्पेंसेशन दे। पर मोदी सरकार ने उद्धत ढंग से अपने वायदे को तोड़ दिया और कानून के विरुद्ध काम किया। यह बहाना बनाकर कि जीएसटी संग्रहण बहुत कम थाऔर व्यापारियों को जीएसटी भरने की तारीख बढ़ाई गई थीकेंद्र ने राज्यों को मई 2020 से जीएसटी का द्विमासिक हिस्सा देना बंद कर दिया। फिरजीएसटी के मासिक संग्रहण (collection) का डाटा प्रकाशित करना भी बंद कर दिया गया।

 

जीएसटी कम्पेंसेशन की आशा में राज्यों ने व्यय पर अतिरिक्त प्रतिबद्धता कर ली। अब वे अपने वायदे के खिलाफ नहीं जा सकते थे। महामारी के कारण भी उनके व्यय का बोझ बढ़ गया था। पर केंद्र से राज्यों को जो 2 लाख करोड़ का जीएसटी कम्पेसेशन मिलना था वह आया ही नहीं। राज्यों को दूनी चपत लग गई। केंद्र ने राज्यों से कहा कि वे बाज़ार से कर्ज ले लें- केवल 97,000 करोड़ के मिसिंग कम्पेंसेशन’(missing compensation) के बराबर ही नहींबल्कि संपूर्ण घाटे की राशियानी जीएसटी के सामान्यतः मिलने वाले हिस्से में जो कमी आई थी वह भी। यह जोड़कर 2.35 लाख करोड़ की राशि बनती थी।

 

पर केंद्र ने इस राशि का ब्याज तक देने से इन्कार कर दियायानी राज्यों को ही ब्याज वहन करना होगा। सेस संग्रहण के साथ कर्ज की अदायगी 2022 के बाद करनी थी। यह राज्यों के अधिकारों का निर्लज्जतापूर्ण हनन था। राज्य भी असमंजस में थे क्योंकि इस मनमाने व एकतरफा निर्णय को कोर्ट (court) में चुनौती देने के मायने होता समय लगनाऔर उन्हें तत्काल पैसों की सख़्त जरूरत थी। विपक्षी शासन वाले प्रान्तों ने प्रतिरोध कियापर इससे कुछ नहीं हुआक्योंकि 21 भाजपा-शासित प्रदेशों और तमिलनाडु ने स्वीकृति दे दी। फिर भीराज्यों व आरबीआई (RBI) के दबाव के चलते केंद्र राजी हुआ कि वह आरबीआई से विशेष लोन व्यवस्था के जरिये कर्ज लेकर यह राशि राज्यों को किश्तों में स्थानांतरित करेगा। 1 मार्च 2021 को 4000 करोड़ की 18वीं किश्त दी गईऔर इसके साथ ही 1.10 लाख करोड़ (करीब 94 प्रतिशत) में से 1.04 लाख करोड़ अक्टूबर 2020 से अब तक राज्यों को दिया गया है।

 

जब जीएसटी परिषद में केंद्र और राज्यों के बीच जीएसटी पर समझौता हुआ थामोदी सरकार ने इसे सहकारी संघवाद’ का शीर्ष कहा। एक मॉडल राजनीतिक अनुबंध के रूप में उसकी काफी प्रशंसा भी हुई। पर संकट के शुरू होते ही सहकारी संघवाद’ का जुमला हवा में उड़़़ गया। अनुबंध कानून के तहत कोई व्यावयायिक अनुबंध फोर्स मैज्योर’ प्रावधान के तहत तोड़ा जा सकता हैपर राज्यों और केंद्र के बीच राजनीतिक समझौते को तोड़ना तो राजनीतिक धोखा है। बात यहीं खत्म नहीं हुई। अगली गाज जो राज्यों पर गिरी वह थी राज्यों के राजकोषीय हिस्से को कम कर देना।

 

बजट में राज्यों के नाम संघीय राजकोषीय हस्तांतरण को लगा धक्का

जब संपूर्ण संसाधनों का बंटवारा केंद्र से राज्यों को होता हैउसमें राज्यों के हिस्से का कर राजस्व भी होता है। इसके अलावा वित्त आयोग द्वारा राज्यों के नाम तय किये गए अनुदान होते हैं। फिर केंद्र द्वारा प्रायोजित योजनाएं-जैसे नेशनल सोशल ऐसिस्टैंस प्रोग्राम या एनएसएपी (National Social Assistance Programme or NSAP)और मनरेगा-के माध्यम से फन्ड्स ट्रांसफर भी इसी श्रेणी में आते हैं। संपूर्ण कर राजस्व में राज्यों का हिस्सा ही सकल संसाधन स्थानांतरण का प्रमुख हिस्सा होता है। 2020 मेंमहामारी के दौर में इनकी क्या स्थिति रही हैदेखें।

 

2020-21 के बजट अनुमान में यह 13,90,666 करोड़ रुपये था और संशोधित अनुमान में यह 13,13,940 करोड़ रुपये थातो राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के लिए 76,726 करोड़ रुपये की कमी रह गई। यह महामारी के कारण हुआ हो ऐसा हो सकता हैपर पूरी तरह उसकी वजह से ही हुआयह सच नहीं है। यह आंकड़ा और भी अधिक होता यदि प्रवासी संकट की वजह से मनरेगा के लिए आवंटन में तेजी से बढ़तप्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत गरीबों को अन्न और एनएसएपी के तहत छह महीने तक 2000 रुपये प्रति माह की दर से गरीब महिलाओं को अनुदान न मिलता। इसका मतलब है कि अन्य केंद्रीय योजनाओं के तहत राज्यों को अनुदान में निर्मम व समान रूप से कटौती की गई।

 

राज्यों को जो कुल संसाधन स्थानांतरित किये गएउनमें से बजट अनुमान में संपूर्ण कर राजस्व 7,84,181 करोड़ रुपये थेऔर संशोधित अनुमान में 5,49,959 करोड़ रुपये थे। यानी टार्गेट से यदि तुलना करें तो 2020-21 में राज्यों को न्यागत राजस्व का घाटा 2,34,222 करोड़ रुपये था। क्या यह केवल महामारी की वजह से संभव हैकतई नहीं।

 

2021-22 के केंद्रीय बजट के अनुसार 2020 में केंद्र का कुल राजस्व घाटा 7.5 प्रतिशत था। पर राज्यों को केंद्र से जो कुल कर राजस्व मिलना था उसमें करीब 30 प्रतिशत की कटौती हुई। इसका मतलब है कि केंद्र को जो घाटा लगा उसकी 4 गुना कटौती राज्यों के हिस्से से की गई। इससे ही समझा जा सकता है कि केंद्र का कैसा संघ-विरोधी पूर्वाग्रह है। यही दृष्टिकोण हमें 15वीं वित्त आयोग की सिफारिशों में भी दिखाई पड़ता है।

 

15वें वित्त आयोग का राज्यों के प्रति पूर्वाग्रह

14वें वित्त आयोग ने बड़े पैमाने पर संघीय न्याय की हित-सेवा की थीउसने केंद्र द्वारा एकत्र किया गया कुल विभाज्य टैक्स पूल में राज्यों के हिस्से को 32 प्रतिशत से 42 प्रतिशत तक बढ़ाया था। पर 15वें वित्त आयोग ने इसे घटाकर 41 प्रतिशत कर दिया। देखने में यह मात्र 1 प्रतिशत का फर्क हैपर ठोस रूप् से राज्यों के लिए 20,858 करोड़ रुपये का घाटा है।

 

पहले से ही राज्यों के पास टैक्स लागू करने की शक्ति कम थी क्योंकि भारतीय संविधान के तहत संघीय व्यवस्था सीधी-सरल नहीं थी। फिरजो थोड़े बहुत अधिकार मिले थेवे जीएसटी ने ले लिए। पर संविधान ने राज्यों पर भारी जिम्मेदारियां डाल रखी हैं-कई क्षेत्रों में-जैसे सार्वजनिक स्वास्थ्य और स्वच्छताकृषि और सिंचाईअवसंरचना विकास और लोक निर्माण तथा बुनियादी कल्याण व मानव विकास। राज्य केंद्र द्वारा संसाधन स्थानान्तरण पर बहुत अधिक निर्भर हैं। पहले तो वित्त आयोग केंद्र से अनुदान तय कर देता था ताकि राज्यों के राजस्व घाटों को पूरा किया जा सकेपर अब यह व्यवस्था समाप्त है। और तो औरफिस्कल रिस्पांसिबिलिटी एण्ड बजट मैनेजमेंट एक्ट (Fiscal Responsibility and  Budget Management Act) राज्यों को अपने राजस्व से अधिक उधार नहीं लेने देता। यदि राज्यों को कभी उधार लेना भी पड़े तो उन्हें केंद्र से अनुमति लेनी पड़ती है। राज्यों को केंद्र के रहमो-करम पर रखना सहकारी संघवाद’ के नाम से जाना जा रहा है!

 

15वें वित्त आयोग ने केंद्र द्वारा प्रत्येक राज्य को अनुदान के आवंटन के लिए जनसंख्या को नया आधार बनाया। इसकी वजह से दक्षिणी प्रान्तों को आवंटन 1.96 प्रतिशत गिर गया और उत्तरी प्रान्तों के लिए आवंटन 1.84 प्रतिशत बढ़ गया। जबकि 14वें वित्त आयोग के जरिये केंद्र के द्वारा बिहार राज्य को सकल हस्तांतरण 4.06 प्रतिशत था, 15वें आयोग में यह बढ़कर 4.13 प्रतिशत हो गया। मध्य प्रदेश का हिस्सा इसी तरह 3.17 प्रतिशत से बढ़कर 2.23 प्रतिशत हो गयाझारखण्ड का हिस्सा 1.32 प्रतिशत से बढ़कर 1.36 प्रतिशत हो गयाराजस्थान का हिस्सा 2.31 प्रतिशत से बढ़कर 2.45 प्रतिशत हो गया और छत्तीसगढ़ का हिस्सा भी 1.29 प्रतिशत से बढ़कर 1.40 प्रतिशत हो गया। परंतु कर्नाटक का हिस्सा 1.98 प्रतिशत से घटकर 1.49 प्रतिशत हो गया और आंध्र प्रदेश का हिस्सा 1.81 प्रतिशत से घटकर  1.69 प्रतिशत हो गया। केरल का हिस्सा भी 1.05 प्रतिशत से घटकर 0.8 प्रतिशत हुआ और तेलंगाना का हिस्सा 1.02 प्रतिशत से घटकर 0.87 प्रतिशत हो गया।

 

संघीय सुधारों की आवश्यकता

भारत लगातार आर्थिक सुधार बढ़ाने की ओर अग्रसर हैपर इनके समकक्ष संघीय सुधार और अधिक विकेंद्रीकरण नहीं दिखताअलबत्ते राज्य शासन के मामले में अधिक परिपक्व हैं और अधिक संसाधन जुटा सकते हैंतथा स्वयं निवेश भी कर सकते हैं। यह तालमेल का अभाव अधिक समय तक वहनीय नहीं है। भारतीय राजनीति में बहुध्रुवीकरण (multipolarisation) और बहुकेंद्रीयता (polycentrism) उभर रहे हैं। 2014 और 2019 में मोदी की भारी विजय ने भले ही अस्थायी तौर पर तथाकथित गठबंधन की राजनीति के युग’ को पीछे ढकेल दिया था। पर अधिक संघीय दबाव बनाने वाली वे आधारभूत शक्तियां अभी भी कार्यरत हैं। केंद्र अभी भी विशाल क्षेत्रों में अपना विवेकाधिकार रखता हैमस्लन किसी केंद्रीय पीएसयू प्रॉजेक्ट को कहां लगाया जाएगाऔर केंद्रीय सार्वजनिक निवेशों के न्यायसंगत वितरण का कोई वस्तुगत आधार इसे संचालित नहीं करतायहां तक कि केंद्रीय सिंचाई परियोजनाओं के लाभों का वितरण भी नहीं।

वर्टिकल या लम्ब वित्तीय विषमता के अलावा राज्यों के बीच क्षैतिज (horizontal) वित्तीय विषमता भी है। जबकि राज्यों के बीच क्षेत्रीय विषमताएं होती हैं और पिछड़ापन भी होता हैउनके मध्य कई कारणों से क्षैतिज विषमताएं होती हैं। यदि वित्त आयोग विकसित राज्यों पर पिछड़े राज्यों का बोझ डाल देंइससे तमिल व मल्यालम के क्षेत्रीय मीडिया में बड़ी हड़कम्प मचता है। वे कहने लगते हैं कि जो राज्य जनसंख्या नियंत्रणभूमि सुधारऔद्योगिकरणभ्रष्टाचार उन्मूलन और शासन में सुधार के प्रति गंभीर नहीं हैं, ‘भीख के कटोरे’ वाली राजनीति करते हैंऔर केंद्र से और भी अधिक तरजीही फंड (discretionary fund) की मांग करते हैं तथा विशेष श्रेणी के राज्य का दर्ज़ा मांगते हैं। इस किस्म की भावनाएं संघीय राजनीति के स्वास्थ्य के लिए अहितकर हैं।

 

सरकारिया आयोगजिसने अपनी रिपोर्ट 1988 में दी थी के बादसंघीय पुनर्गठन के मसले को देखने के मामले में कोई पहल नहीं थी। जस्टिस सरकारिया ने भी मुख्यतः राजनीतिक पहलुओं पर गौर कियाजैसे राज्यपालों की भूमिका आदिऔर 23 चैप्टरों में से केवल एक संघीय वित्त पर केंद्रित था। क्रमशः सत्ता में आने वाली सरकारों ने उसके 247 में से 67 सिफारिशों को नजरंदाज़ कर दियाजिसमें कई महत्वपूर्ण थे। 2007 की जस्टिस पुन्छी आयोग की भी जातीय व साम्प्रदायिक उफान के दौर में केंद्र की भूमिका पर सीमित संदर्भ की शर्तें रहीं।

 

यदि पश्चिम बंगाल का चुनाव संघीय मोर्चे की राजनीति को पुनर्जीवित करता हैहाल के वर्षों में मोदी सरकार के सहकारी संघवाद का घृणित रिकॉर्ड फेडरल रिफॉर्म और रीस्ट्रक्चरिंग (federal reforms and restructuring) के एजेंडे को प्रोत्साहन देगाजिससे अधिक विकेंद्रीकरण होगा। इस अर्थ में पश्चिम बंगाल चुनावों के परिणामों का दूरगामी अखिल-भारतीय प्रभाव होगा।

(लेखक श्रम और आर्थिक मामलों के जानकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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