हिंदुत्व की बहस के बीच बेरोज़गारी और महंगाई की मार झेलती ग़रीब जनता

हिंदू धर्म और हिंदुत्व के नशे में चूर लोगों से पूछना चाहिए कि क्या हिंदू धर्म में बढ़ती हुई बेरोजगारी से लड़ना गलत बात है? ढंग की मजदूरी और ढंग का मेहनताना मांगने के लिए सरकार से सवाल जवाब करना गलत बात है? महंगी शिक्षा और महंगी इलाज देने वाली सरकार को खारिज कर देना गलत बात है? बैंकों में रखे हुए पैसे पर रत्ती भर ब्याज देने वाली सरकार को पूंजीपतियों की सरकार कहना गलत बात है? अगर यह सब गलत बात नहीं है तो क्यों न यह कहा जाए कि हिंदू धर्म और हिंदुत्व की राजनीति करने वाले हिंदू धर्म और हिंदुत्व का इस्तेमाल सांप्रदायिकता के लिए करते हैं और गरीबों की पेट पर लात मारकर खुद का मुनाफा कमाने की राजनीति करते हैं।
बनारस में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मजदूरों के साथ बैठकर खाना खाने की फोटो बहुत अधिक वायरल हो रही है। जो लोग केवल सत्ता की होड़ में लगे रहते हैं, वे इस फोटो को देखकर वाह-आह कर रहे है। लेकिन वहीं पर एक खबर शहरी बेरोजगारी को लेकर आई है। जिस पर कोई चर्चा नहीं है। जिसकी सबसे अधिक मार उसी कुनबे के लोग कह रहे हैं, जिस कुनबे के लोग प्रधानमंत्री के साथ खाना खाते दिखाए गए हैं।
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी के मुताबिक शहरी बेरोजगारी दर दहाई के अंक यानी 10.09% पर पहुंच गई है। अगर ट्रेंड के तौर पर देखें तो कोरोना से पहले शहरी बेरोजगारी दर 8% के आसपास थी। कोरोना की वजह से स्थिति खराब हुई और सुधरी। लेकिन अब भी शहरी बेरोजगारी दर कोरोना से पहले की स्थिति से बदतर है। इसका मतलब यह है कि शहरों में काम की तलाश में निकले लोगों में से तकरीबन 10% लोगों को काम नहीं मिल रहा है।
अगर इसी आंकड़े को तोड़कर समझें तो यह कि भारत के 93% लोग असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। जिनमें से तकरीबन 80% लोगों की महीने की आमदनी 10 हजार के आसपास है। यानी शहरों में काम की तलाश में निकले 10% लोगों को 10 हजार की नौकरी भी नहीं मिल पा रही है। अब सोच कर देखिए कि एक व्यक्ति के पीछे खड़े पांच लोगों का परिवार ऐसे हालात में कैसे जीता होगा? अगर ऐसी गंभीर परेशानियों को कूड़े के ढेर में डालकर भारतीय जनता पार्टी के नेता हिंदू धर्म और हिंदुत्व की बात करते हैं तो बताइए क्या उन्हें हिंदू धर्म का अनुयाई कहा जा सकता है? उन्हें हिंदुत्व का पैरोकार कहा जा सकता है? क्या कोई भी धर्म यह कहता है कि उसे मनाने वाले लोगों को अपने परिवार का खर्चा चलाने के लिए काम ना मिले?
बेरोजगारी की वजह से कमाई का इंतजाम नहीं हो पा रहा है, ऊपर से महंगाई ऐसी है कि अगर किसी बेरोजगार को हिंदू धर्म और हिंदुत्व की बातें सुना दी जाए तो वह दुनिया की सबसे झूठी बातें लगेंगी।
दो दिनों के भीतर थोक महंगाई दर और खुदरा महंगाई दर के आंकड़े आए हैं। सितंबर महीने में थोक महंगाई दर 10% के आसपास थी। अक्टूबर महीने में यह बढ़कर 12% हो गई और नवंबर महीने में यह 14% के दर पर पहुंच चुकी है। यानी थोक महंगाई दर घटने की बजाए बढ़ी हैं। इसी तरह से खुदरा महंगाई दर भी 4. 91 प्रतिशत पर पहुंच गई है। जो अक्टूबर महीने में 4.84% पर थी। थोक महंगाई दर पिछले 12 सालों में सबसे ऊंचे स्तर पर मौजूद है। यह उस देश में है जहां पर कभी भी महंगाई दर के हिसाब से असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे तकरीबन 90% लोगों की आमदनी नहीं बढ़ाई जाती है। महंगाई दर के आंकड़े बढ़े हुए हैं। लेकिन फिर भी कई विशेषज्ञ कहते हैं कि महंगाई दर निकालने का फार्मूला आम लोगों के जेब पर पड़ने वाले असर से इतना अधिक कटा हुआ है कि ये बढ़े हुए आंकड़े भी उस मार दर्ज नहीं कर पाते हैं जो आम आदमी बढ़ती महंगाई की वजह से सहता है। यानी इन आंकड़ों से भी ज्यादा बड़ी मार आम लोग सहते हैं, जिसकी असली पहचान आंकड़ों के जरिए सामने नहीं आ पाती है।
उदाहरण के तौर पर आप इसे ऐसे समझ सकते हैं कि बेरोजगारों की फौज के साथ रोजगार करने वालों में सबसे बड़ी फौज उनकी है, जो महीने में ₹10 हजार कमाते हैं। पेट्रोल और डीजल का दाम रॉकेट की रफ्तार से बढ़ा है। स्कूल और कॉलेज की फीस इतनी महंगी है कि पढ़ाई-लिखाई कईयों के बस की बात नहीं। दवा और इलाज इतना महंगा है कि कई लोग बीमारी जानते हुए भी बीमारी का इलाज नहीं कराना चाहते। ढंग का खाना महंगा है। कपड़ा और जूता महंगा है। अगर बड़े शहर में रह रहे हैं तो इतने कम आमदनी के लोगों को रहने के लिए ढंग का कमरा नहीं मिल सकता। इस तरह के तमाम उदाहरणों को दिमाग में रखकर महंगाई के असर के बारे में सोचेंगे तो पता चलेगा कि हिंदू धर्म या हिंदुत्व या किसी भी धर्म से जुड़े सारे वेद, पुराण इस चिंता का जवाब नहीं दे पाएंगे कि ठीक-ठाक कमाई के अभाव में जिंदगी की गाड़ी कैसे चलेगी?
बैंकिंग सिस्टम का हाल देख लीजिए। अर्थव्यवस्था में पैसे का परिसंचरण तंत्र किसी हिंदू धर्म और हिंदुत्व पर निर्भर नहीं करता है बल्कि बैंकिंग तंत्र पर निर्भर करता है। अगर बैंकों में लगा हुआ पैसा सही जगह पर निवेश नहीं किया जा रहा है तो इसका मतलब है कि ना तो उद्योग धंधों का विकास होगा। ना रोजगार मिलेगा। रोजगार न मिलेगा तो जेब में पैसा नहीं होगा और जेब में पैसा नहीं होगा तो अर्थव्यवस्था नहीं चलेगी। मार्च 2021 में खत्म खत्म हुए वित्त वर्ष साल 2020-21 की बैंकिंग तंत्र के कामकाज का हाल यह है कि बैंकों ने तकरीबन दो लाख करोड़ रुपए का कर्ज रिटेन ऑफ कर दिया है। यानी वैसा कर्ज बना दिया है, जिसके वापस आने की कोई संभावना नहीं है। अगर किसानों को एमएसपी की लीगल गारंटी दी जाती तो खर्चा ज्यादा से ज्यादा 2 लाख करोड़ से अधिक का नहीं होता। लेकिन सरकार की नीतियों ने चुना है कि भले बैंकों का पैसा पूंजीपति लेकर डकार जाएं लेकिन वह पैसा किसानों के हाथ में नहीं जाएगा।
इंडियन एक्सप्रेस द्वारा दाखिल आरटीआई के जवाब में यह आंकड़ा निकल कर सामने आया है कि पिछले 10 सालों में भारत के बैंकिंग तंत्र से तकरीबन 11 लाख 68 हजार करोड़ रुपए का कर्ज माफ कर दिया गया है। जिसमें से 10 लाख 72 हजार करोड़ रुपए की कर्ज माफी साल 2014 -15 के बाद उस सरकार के कार्यकाल में हुई है, जो हर तरह से खुद को हिंदू धर्म और हिंदुत्व का रहनुमा प्रस्तुत करने का काम करती है। इस कर्ज माफी में तकरीबन 75% कर्ज माफी पब्लिक सेक्टर बैंक ने की है। जहां पर आम लोगों की मेहनत की बचत जमा होती है। इसी वजह से जिस दौर में शेयर मार्केट में पैसा लगाकर अमीर पैसे पर पैसे कमाते हैं, वहां पर बैंकों ने बचत खाते पर आम लोगों को रत्ती बराबर ब्याज दिया है. यह ब्याज की राशि इतनी कम होती है जो बढ़ती हुई महंगाई को भी पूरा नहीं कर पाती है।
कुल मिला जुला कर पूरा तंत्र ऐसा है जहां पर बेरोजगारी है, महंगाई है और बैंकों की लूट है और चंद लोगों की कमाई है। हाल इतना बुरा है लेकिन फिर भी सारा जोर हिंदू धर्म और हिंदुत्व के उत्थान पर लगाया गया है। इन झूठी बहसों में कुछ नहीं रखा है। संस्कृतियों की मोहक माया तभी किसी के जीवन का आकर्षण बनती है जब उसके जेब में पैसा होता है। अफसोस की बात यह है कि भारत के बहुतेरे लोगों के पास आर्थिक तौर पर ढेर सारा बोझ लादा गया है, उस बोझ को हटाने की बजाय सारा जोर हिंदू धर्म और हिंदुत्व पर लगाया जा रहा है।
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