कोविड-19 : गंभीर तौर पर बीमार लोगों के लिए कुछ उम्मीद लाया है डेक्सामेथासोन

आखिरकार कुछ अच्छी खबर सुनने को मिल रही है। अब हमारे हाथ में एक ऐसी दवा है जो कोविड-19 की मारक क्षमता को कम करने में सहायक सिद्ध हो सकती है। जहाँ इस दवा ने गंभीर रूप से बीमार मरीजों में इसके घातक प्रभाव को तकरीबन एक तिहाई तक कम करके रख दिया है, लेकिन उन लोगों पर इसका असर कम देखने को मिला है जो गंभीर तौर पर बीमार नहीं थे। और सबसे अच्छी बात यह है कि यह डेक्सामेथासोन नामक यह दवा पेटेंट के दायरे से बाहर है, और व्यापक पैमाने पर इसका इस्तेमाल आम बात है और यह एक बेहद सस्ता कॉर्टिकोस्टेरॉइड है। यह फेफड़े और अन्य अंगों में दाहकता को कम करने के काम आता है, जोकि कोरोनावायरस से गंभीर रूप से बीमार लोगों की मौत की सबसे बड़ी वजहों में से एक रही है।
ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के रिकवरी परीक्षण में एनएचएस अस्पतालों के मरीजों को भारी संख्या में सूचीबद्ध किया गया है, और उनके बीच में कई दवाओं के परीक्षण के जरिये इस वायरस पर उन सभी की प्रभावोत्पादकता को परखने की कोशिशें जारी हैं। इस मामले में उन्होंने 2,104 मरीजों को बिना किसी अनुक्रम के चुना जिन्हें डेक्सामेथासोन दवा दी गई थी, और उनकी तुलना अन्य 4,321 रोगियों से की गई, जो परीक्षण के सामान्य देखभाल शाखा में रखे गये थे।
जिन मरीजों को सामान्य देखभाल वाली शाखा में रखा गया था उनमें से वेंटीलेटर पर रखे गए मरीजों में 28-दिवसीय मृत्यु दर 41% तक पाई गई थी, वहीँ यह दर 25% उन रोगियों में देखने को मिली है जिन्हें ऑक्सीजन के सहारे रखा गया था, और सबसे कम 13% उन लोगों के बीच देखने को मिली है जिन्हें बाहर से किसी भी श्वसन संबंधी सहायता की जरूरत नहीं थी। जो मरीज वेंटीलेटर के सहारे थे, उनमें डेक्सामेथासोन ने एक तिहाई और जिन मरीजों को ऑक्सीजन पर रखा गया था उनमें एक-पाँचवे हिस्से तक की मौतों में कमी देखने को मिली है। जबकि जिन मरीजों को किसी भी प्रकार की वाह्य श्वसन मशीनरी का सहारा नहीं लेना पड़ रहा था, उनके बीच इस दवा का कोई फायदा देखने को नहीं मिला।
अतिसक्रिय इम्यून सिस्टम की दाहकता को रोकने के लिए कॉर्टिकोस्टेरॉइड को आम तौर पर इस्तेमाल में लाया जाता रहा है। समस्या सिर्फ यह है कि स्टेरॉयड जहाँ दाहकता को बढने से रोकने का काम करते हैं वहीँ साथ ही साथ इसकी वजह से वायरस और उसके साथ आने वाले अन्य बैक्टीरिया के संक्रमणों से लड़ने में यह मरीजों में मौजूद शरीर की प्राकृतिक प्रतिरोधक क्षमता को कमजोर कर बैठता है। इसलिए अभी तक यह तर्क पेश किया जा रहा था की कोविड-19 के मरीजों के लिए स्टेरॉयड का इस्तेमाल नुकसानदेह साबित हो सकता है। स्टेरॉयड के इस्तेमाल में मुख्य चुनौती इस बात को लेकर बनी हुई है कि खुराक की मात्रा को इतनी मात्रा पर रखा जाए कि हम शरीर की अतिसक्रिय इम्यून सिस्टम की प्रतिक्रिया को जहाँ एक तरफ कम से कम रख पाने में कामयाब हो सकें तो इसके साथ ही उसकी मात्रा इतनी कम की जा सके कि इसकी वजह से इम्यून सिस्टम पूरी तरह से ही न बैठ जाए, वरना वायरस और बैक्टीरिया को खुलकर खेलने का मौका मिल सकता है। यदि यह संभव है तो फिर हम बिना रोगी को नुकसान पहुंचाए इम्यून सिस्टम की दाहकता को प्रभावी तौर पर नियंत्रित कर सकने में सफलता हासिल कर सकते हैं।
शरीर के अचानक से बड़ी तेजी से इम्यून सिस्टम की ओर से प्रतिक्रिया के चलते गंभीर दाहकता को ही साइटोकिन तूफान का नाम दिया गया है, जोकि आगे चलकर खुद मौत की एक बड़ी वजह साबित हो सकती है। 1918 में आई फ्लू महामारी के दौरान भी मौतों की मुख्य वजह साइटोकिन तूफान ही था। कोविड-19 के मरीजों में भी यह मौत की एक मुख्य वजह बनी हुई है।
शरीर में मौजूद इम्यून सिस्टम में संक्रमण से लड़ने के लिए कई प्रतिक्रियाएं मौजूद हैं। एक कॉर्टिकोस्टेरॉइड इन सभी प्रतिक्रियाओं को कम करके शरीर के इम्यून सिस्टम को शांत रखने का काम करता है; या जैसा कि आईआईएसईआर पुणे के प्रोफेसर सत्यजीत रथ ने न्यूज़क्लिक को इस बारे में विस्तार से बताया है कि किस प्रकार से यह एक हथौड़े की तरह काम करता है। हमारे पास एक और दवा जीनटेक का टोसीलिज़ुमाब है जिससे कुछ आशा जगती है, जो कि एक इम्यून सिस्टम अवरोधक के तौर पर काम करने की क्षमता रखता है।
यह मुख्यतौर पर एक प्रमुख मार्ग को अवरुद्ध रखता है- इंटरल्यूकिन मार्ग को- लेकिन इसमें बाकी के रास्ते खुले रहते हैं। फ्रांस में इसके बेहद छोटे गैर-अनुक्रमिक परीक्षण के दौरान आशातीत सफलता भी देखने को मिली है। इसमें यह सुविधा है की चुनिन्दा तौर पर इम्यून सिस्टम के मार्ग को अवरुद्ध किया जा सकता है, जबकि इम्यून सिस्टम के बाकी के हिस्से संक्रमण पर हमले के लिए आजाद रहते हैं। टोसीलिज़ुमाब के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि यह एक मोनोक्लोनल एंटीबॉडी है और भले ही आप रोच की इकाई जीनटेक के पेटेंट के एकाधिकार की लागत को यदि इसमें नहीं जोड़ते हैं, लेकिन इस सबके बावजूद भी इसके उत्पादन में जो लागत आएगी, वह इस विकल्प को बेहद महँगा बना देती है। भारत में इसकी लागत 40,000 रूपये प्रति खुराक के हिसाब से बैठती है और किसी मरीज को इसकी कम से कम 2 खुराक दिए जाने की आवश्यकता होती है। वहीँ यदि इसकी तुलना डेक्सामेथासोन से करें तो इसके 20 गोलियों के पत्ते की कीमत चंद रूपये ही बैठती है।
जहाँ ज्यादा गंभीर मामलों में रोगी के फेफड़ों एवं अन्य अंगों पर इम्यून सिस्टम द्वारा हमले को रोकने की जरूरत पड़ती है, क्या ऐसी दवाएं भी हैं जो वायरस के विकास पर भी हमलावर हो सकें? विभिन्न क्लिनिकल परीक्षणों से अब यह पूरे तौर पर स्पष्ट हो चुका है कि हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन दवा इस बीमारी के लिए असरकारक नहीं है और इसके इस्तेमाल के अपने गंभीर दुष्परिणाम हैं। गिलियड के रेम्डेसिविर से कुछ सकारात्मक प्रभाव नजर आते हैं, बशर्ते कि इसे रोग की शुरुआत में ही मरीजों को मुहैय्या करा दिया जाए जो गंभीर रूप से बीमारी की हालत में न हों। रैंडमाइज्ड डबल ब्लाइंड परीक्षण (जिसमें शोधकर्ता और मरीज दोनों ही परिणाम को लकर अँधेरे में होते हैं) में गिलियड ने एक प्रेस विज्ञप्ति में सूचित किया है कि इसके सेवन से कोरोनावायरस मरीजों के अस्पताल में रहने के दिनों में 4 दिन की कमी देखी गई है।
अब यह भी स्पष्ट हो चुका है कि रेम्डेसिविर और दूसरे अन्य एंटी-वायरल दवाओं के परीक्षण के दौर से गुजरना तभी फायदेमंद हो सकता है अगर रोग के शुरुआती चरण में ही इसकी डोज ले ली गई हो, लेकिन जो मरीज गंभीर हालत में हैं उनपर इसका बेहद मामूली या ना के बराबर असर पड़ता है। कुछ अन्य एंटी-वायरल दवाओं के विपरीत रेमेड्सवियर एक छोटे मॉलिक्यूल दवा के तौर पर भी मौजूद है, जिसका अर्थ है यह है कि यदि पेटेंट के नाम पर मामूली फीस देनी पड़े तो इसे काफी सस्ती कीमत पर तैयार किया जा सकता है। लेकिन यहीं पर एक पेंच भी है: क्या गिलियड अपनी पेटेंट रॉयल्टी को कम करने के लिए सहमत होगा?
यदि वह सहमत नहीं होता तो क्या सरकारें, जिसमें भारतीय सरकार भी शामिल है वैसा कुछ करने की हिम्मत दिखा सकती है, जैसा कि बांग्लादेश ने कर दिखाया है- किसी भी कंपनी को गिलियड के पेटेंट को तोड़ने की अनुमति देकर? भारतीय कानून और 2001 के डब्ल्यूटीओ के दोहा घोषणा के तहत किसी भी देश को स्वास्थ्य आपातकाल या महामारी के हालात में अनिवार्य लाइसेंस जारी करने का अधिकार हासिल है। कोई भी यदि सही सोच के साथ इस पर विचार करे तो इस बात से असहमति नहीं रख सकता कि कोविड-19 इन दोनों का ही प्रतिनिधित्व करता है। एकमात्र प्रश्न यही बना रह जाता है कि क्या ऐसा करने के लिए आवश्यक राजनीतिक इच्छाशक्ति मौजूद है या नहीं, जिससे कि प्रत्येक संक्रमित व्यक्ति को इसे सस्ते दरों पर उपलब्ध कराया जा सके।
कोई यह प्रश्न कर सकता है कि चार दिनों की कमी लाकर हमें क्या फायदा होने जा रहा है जिसके चलते किसी पेटेंट को तोडना जायज है। इसका जो जवाब प्रोफेसर रथ ने दिया था वो ये है कि यदि इससे संक्रमण 4 दिनों तक के लिए भी कम किया जा सके तो इससे मरीज के संक्रमण में रहने की अवधि में अंतर लाया जा सकता है, और इसकी वजह से वायरस के संचरण में कमी हो जाती है। यदि वायरस का संचरण कम हुआ तो इसका साफ़ मतलब हुआ कि महामारी के प्रसार को कम करने में सफलता प्राप्त कर ली गई है, जिसे सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा के लिहाज से महत्वपूर्ण कदम माना जाना चाहिए।
इसलिए दवा के मोर्चे पर अभी भी कुछ उम्मीद बनी हुई है, जिसमें गंभीर रूप से बीमार लोगों के लिए डेक्सामेथासोन और जो लोग कम बीमार हैं उनके लिए रेमेडिसविर दवा से उपचार का विकल्प खुल गया है। दोनों ही छोटे मॉलिक्यूल हैं और जीवविज्ञान से इनका संबंध न होने की वजह से इनके उत्पादन को तेजी से बढाया जा सकता है। डेक्सामेथासोन पेटेंट के दायरे से बाहर है और इसलिए उसके निर्माण में कोई दिक्कत नहीं है। रेमेडिसविर के लिए हमें यह लड़ाई हाथ में लेनी होगी ताकि इसे व्यापक तौर पर सर्वसुलभ कराया जा सके।
हमें इस बात को अभी देखना होगा कि वैक्सीन के मोर्चे पर कितनी प्रगति हो पाई है। अपनेआप में यह अगली लड़ाई है जिसमें ट्रम्प पहले से ही इस बात के संकेत दिए जा रहे हैं कि ‘अमेरिका को एक बार फिर से महान बनाने’ के लिए वैक्सीन उनका नया हथियार साबित होने जा रहा है। आज मुख्य मुद्दा यह सुनिश्चित करने को लेकर है कि कोरोनावायरस की दवा को लेकर चल रही लड़ाई का हश्र कहीं एड्स की दवा को लेकर चली मारपीट के दोहराव के तौर पर ही न बनकर रह जाए। इसके लिए बिग फार्मा कम्पनियों और उनकी संरक्षक सरकारों से संजीदा व्यवहार अमल में लाने की दरकार है।
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