लाखों बच्चों को सज़ा दे रही है महामारी

कोरोना वायरस की रोकथाम के लिए लगाया गया यह बेहद लंबा लॉकडाउन महीनों खिंचता चला जा रहा है। वायरस लगातार पूरी दुनिया में फैल रहा है और बीमारी से जान गंवाने वाले लोगों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। हम यह भी नहीं जानते कि बीमारी अपने संक्रमण के सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंच चुकी है या नहीं। हम लॉकडाउन के जल्दी या देर से खत्म होने के बारे में भी कुछ नहीं जानते।
ब्राजील, भारत और अमेरिका जैसे देशों में गैर जिम्मेदार और अक्षम सरकारें आर्थिक गतिविधियों को शुरू करने के लिए चीजों को खोलने की जल्दी कर रही हैं। अब उनमें संक्रमण की चेन तोड़ने के लिए कोई खास मंशा नहीं बची है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने टेस्टिंग को धीमा करने की मंशा जताई थी। यह एक ख़तरनाक वक्तव्य था, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के सुझावों के उलट जाता है। जिस तरह से फिलहाल अर्थव्यवस्था को खोला जा रहा है- लोगों में संक्रमण जारी है और महामारी का अब भी खात्मा नहीं हो पाया है- ऐसे में लॉकडाउन को खत्म करने का कोई मतलब नहीं है।
इस लॉकडाउन से बहुत नुकसान हुआ है। दुनिया की आधी आब़ादी की आमदनी खत्म हो चुकी है। भुखमरी की दर तेजी से बढ़ रही है। लेकिन इसके अलावा दूसरे नुकसान भी हैं, जिनपर कम ध्यान जाता है।
डिजिटल विभाजन
दुनियाभर के माता-पिता स्कूलों के बंद होने से ऊहापोह की स्थिति में हैं। उनके बच्चे घर पर हैं। वह घर पर ही अलग-अलग तरह की स्कूलिंग पर हाथ आजमा रहे हैं। 191 देशों में स्कूल बंद हो चुके हैं। जिनमें करीब़ 1।5 बिलियन छात्र पढ़ाई करते हैं। 6 करोड़ 30 लाख प्रायमरी और सेकंडरी शिक्षक क्लासरूम के बाहर हो चुके हैं। जहां बड़े स्तर पर इंटरनेट सुविधाएं उपलब्ध हैं, वहां बच्चे वेब आधारित प्लेटफॉर्म पर बच्चे स्कूलिंग कर रहे हैं, हालांकि इसमें वे क्या सीख रहे हैं, इस पर अभी संशय बरकरार है। बच्चों का ध्यान केंद्रित नहीं है और शैक्षिक अनुभव भी काफ़ी उथला हो चुका है।
जहां इंटरनेट उपलब्ध नहीं है, बच्चे वहां अपनी पढ़ाई जारी रखने में नाकामयाब हैं। 2017 में हुए यूनिसेफ के एक अध्ययन से पता चलता है कि 29 फ़ीसदी युवा दुनिया में ऑनलाइन नहीं हैं। अफ्रीका महाद्वीप पर 60 फ़ीसदी बच्चों के पास ऑनलाइन सुविधाएं नहीं है, वहीं यूरोप में यह आंकड़ा चार फ़ीसदी है।
इनमें से कई बच्चे एक मोबाइल फोन और महंगे सेलुलर डेटा के ज़रिए ऑनलाइन आ सकते हैं लेकिन उनके पास कंप्यूटर या वायरलैस इंटरनेट कनेक्शन मौजूद नहीं है। UNESCO के एक अध्ययन में पाया गया कि क्लासरूम से दूर हो चुके बच्चों (83 करोड़ बच्चे) में आधे से ज़्यादा के पास कंप्यूटर तक पहुंच नहीं है। 40 फ़ीसदी से ज्यादा बच्चों के पास घर पर इंटरनेट नहीं है। सहारा के इलाकों में 90 फ़ीसदी छात्रों के परिवार में कंप्यूटर नहीं हैं, वहीं 82 फ़ीसदी बच्चे ब्रॉडबैन्ड के ज़रिए ऑनलाइन नहीं जा सकते। दरअसल यह डिजिटल विभाजन हमारे वक़्त की सच्चाई है, इस महामारी के दौर में भी यह बच्चों के शैक्षिक मौकों को नुकसान पहुंचा रहा है।
इस पर चीजें साफ़ नहीं है कि यह बच्चे जल्द ही स्कूल वापस पहुंच सकेंगे। शिक्षा पहुंचाने के लिए टेलीविज़न चैनलों और सामुदायिक रेडिया जैसे सृजनात्मक तरीकों का अध्ययन चल रहा है। लेकिन निजी टेलीविजन चैनलों या रेडियो स्टेशन पर शैक्षिक कार्यक्रमों का संचालन अनिवार्य करने की कोई इच्छा शक्ति दिखाई नहीं देती।
हिंसा
जून में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दूसरे यूएन एजेंसियों के साथ मिलकर, “Global Status Report on Preventing Violence Against Children 2020'' नाम का एक अहम अध्ययन को प्रकाशित किया। लेकिन मौजूदा दौर में बच्चों की स्थिति बताने वाले इस अध्ययन को ख़बरों में ख़ास तवज्जों नहीं दी गई।
इस लॉकडाउन के पहले बच्चों के साथ होने वाली हिंसा के आंकड़े हिला देने वाले थे। 2 से 17 साल के बीच के हर बच्चे को हर साल किसी न किसी तरह की हिंसा का सामना करना पड़ता है। पिछले महीने तीन में से हर एक बच्चे को उसके साथी बच्चों की तरफ से किसी तरह की दबंगई का शिकार होना पड़ा। जबकि 12 करोड़ लड़कियों को 20 साल की उम्र के पहले जबरदस्ती शारीरिक संबंध बनाने पड़े। यहां यह गौर करने वाली बात है कि लड़कों के साथ होने वाली यौन हिंसा के कोई वैश्विक आंकड़े मौजूद नहीं है। इस रिपोर्ट के ज़रिए दुनिया में पहली बार 18 साल की कम उम्र के बच्चों की हत्या के वैश्विक आंकड़े जारी किए गए। 2017 में 40,000 बच्चों की हत्या की गई। 88 फ़ीसदी देशों में इस तरह के अपराधों को रोकने के लिए कानून मौजूद हैं, लेकिन बहुत कम अपराधों को रिपोर्ट किया जाता है। करीब़ 47 फ़ीसदी देशों में कानून के पालन करवाने की स्थिति बहुत दयनीय है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन का अध्ययन कहता है कि बच्चों के खिलाफ़ हिंसा की दर महामारी के दौर में और बढ़ गई और इस तरह की हिंसा से ''लंबे वक़्त तक बने रहने वाले नकारात्मक प्रभाव'' सामने आएंगे। अमेरिका जैसे कई देशों में बच्चों पर होने वाले अत्याचार के मामलों की शिकायत होना कम हो रहा है। इस अध्ययन के मुताबिक़ ऐसा इसलिए है, क्योंकि ''समुदाय में प्रथम श्रेणी के सेवादाता, शिक्षक, सामाजिक कार्यकर्ता, नर्स, डॉक्टर, जो सामान्य स्थितियों में बच्चों के सीधा संपर्क में आते, अब उनका बच्चों से संपर्क नहीं बचा है। इसलिए कई मामलों में इस तरह की हिंसा सामने नहीं आ रही है।'' ब्रिटेन में बच्चों की हिंसा से निपटने वाली ''नेशनल सोसायटी फॉर द प्रिवेंशन ऑफ क्रूएल्टी टू चिल्ड्रन'' के पास शिकायतों में बीस फ़ीसदी का उछाल आया है।
रिपोर्ट में बताया गया, ''आवाजाही पर रोक, बेरोज़गारी, आइसोलेशन, जरूरत से ज़्यादा भीड़ और दूसरी वजहों से बच्चों, माता-पिता और सेवादाताओं में तनाव और चिंता का स्तर बढ़ गया है।'' ऐसे परिवार जहां पारिवारिक हिंसा पहले से ही समस्या है, अब महामारी के दौर में तो वहां स्थिति बदतर हो चुकी है। अटलांटिक मैगजीन में लिखते हुए एशली फेटर्स और ओल्गा खज़ान कहती हैं, ''घर पर रहने वाले उपायों की वजह से परिवारों और लोगों के लिए दोस्तों, रिश्तेदारों या पेशेवरों की तरफ से मिलने वाला सहयोग खत्म हो गया है। इससे संकट और रोजना की जिंदगी के नए रुटीन से सफलता के साथ निपटने की उनकी क्षमता और कमज़ोर हो गई है। यह पारिवारिक हिंसा के लिए सबसे बद्तर स्थिति है।''
समाधान
जब तक यह लॉकडाउन चलता है, तब तक डिजिटल विभाजन या घरेलू हिंसा का कोई अच्छा समाधान नहीं निकल सकता। मुफ़्त और सार्वजनिक इंटरनेट पहुंच में जबरदस्त निवेश करने वाले एक तेजतर्रार सार्वजनिक क्षेत्र जो हर बच्चे तक कंप्यूटर पहुंचाए, उसके बिना डिजिटल विभाजन में बहुत बड़ा काम किया जाना मुमकिन नहीं है।
इसी तरह जब तक सरकार अपने सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचे और सामाजिक कार्यकर्ता कार्यक्रमों में बदलाव लाकर उन्हें परिवारों से नियमित संपर्क स्थापित करने के लिए मजबूर नहीं करती, तब तक बच्चों से हो रही हिंसा की पहचान और उससे बच्चों की सुरक्षा के क्षेत्र में बहुत कुछ करना संभव नहीं है।
डिजिटल विभाजन या बच्चों के खिलाफ़ हिंसा को निजीकरण या कितने ही बड़े दान से खत्म नहीं किया जा सकता। दरअसल यहां हमें राज्य के तेजतर्रार विकेंद्रीकृत कार्यक्रमों की जरूरत है, जिनमें अच्छा निवेश किया गया हो, साथ में मुफ़्त वाईफाई और आसपड़ोस में सार्वजनिक स्वास्थ्य और सामाजिक कार्य कार्यालय खोले जाने की जरूरत है। कोरोना के बाद की दुनिया में इस तरह की मांगे लोगों की जुबान पर होनी चाहिए। केवल इसी तरीके से हम बच्चों को सुरक्षा देने में कामयाब हो पाएँगे।
विजय प्रसाद एक भारतीय इतिहासकार, संपादक और पत्रकार हैं। वे इंडिपेंडेंट मीडिया इंस्टीट्यूट के प्रोजेक्ट Globetrotter पर राइटिंग फेलो और मुख्य संवाददाता हैं। वे लेफ्टवर्ड बुक्स के मुख्य संपादक हैं और ट्राईकांटिनेंटल: इंस्टीट्यूट फॉर सोशल रिसर्च के निदेशक हैं।
इस लेख को इंडिपेंडेंट मीडिया इंस्टीट्यूट के प्रोजेक्ट Globetrotter ने उत्पादित किया है।
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