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‘बातों की बग़ावत’ से परे, ‘रौशनी के औज़ार’ के सक्रिय रचयिता जनकवि गोरख पाण्डेय

29 जनवरी के दिन गोरख पाण्डेय के स्मृति दिवस को पूरी शिद्दत के साथ याद किये जाने का सिलसिला आज भी निरंतर जारी है।
Baato ki bagawat

देश की राजधानी स्थित सदैव चर्चाओं में रहनेवाले जेएनयू कैम्पस के छात्र आन्दोलनों से लेकर देश के विभिन्न इलाकों में होनेवाले जनांदोलनों-अभियानों में ‘प्रतिरोध के भावों को मुखर’ करनेवाले कविता-अंशों एवं उद्धरणों के हस्तलिखित पोस्टर, दिखलाते हैं कि आज भी कितने जीवंत-प्रासंगिक हैं आम जन और आन्दोलनों के जनकवि गोरख पाण्डेय। 

गोरख ऐतिहासिक ’70-80 दशक के दौर में न सिर्फ एक मौलिक वामपंथी चिन्तक-साहित्यकार एवं दर्शनशास्त्र के अध्येता-जानकार रहे, बल्कि इसके साथ ही वे व्यापक वामपंथी धारा के सहज स्वीकार्य बौद्धिक-सांस्कृतिक संगठक भी रहे। जिनके लिखे जनगीत जहां व्यापक स्तर पर आन्दोलनकारी जनता में बेहद लोकप्रिय हुए, तो उनके लिखे वैचारिक-साहित्यिक लेख-रचनाओं को भी अपार जन स्वीकार्यता मिली।  

यही कारण है कि प्रत्येक वर्ष के 29 जनवरी के दिन गोरख पाण्डेय के स्मृति दिवस को पूरी शिद्दत के साथ याद किये जाने का सिलसिला आज भी निरंतर जारी है।

जाहिर है अपने प्रिय जनकवि एवं प्रखर वामपंथी चिन्तक-रचनाकार के रचनाकर्म-विचारों से प्रेरणा लेने की ज़रूरत तो उन्हें ही महसूस होती है जो तथाकथित “समझदार” नहीं हैं। जिनके बारे में बहुत पहले ही गोरख पाण्डेय ने “समझदारों का गीत” कविता लिखकर सकल समाज को आगाह करने का अहम कार्य किया था।

विडंबना है कि आज की तारीख में उक्त “समझदारों” की तादाद में न सिर्फ निरंतर इज़ाफा होता जा रहा है, बल्कि अति शुभचिंतक होने का दिखावा करते हुए वामपंथ की “ऐसी-तैसी” करने में कोई कसर नहीं छोड़ने को “रोचक शगल” बनाया जा रहा है। 

“विवेकहीन-विचारहीन” बनानेवाली मनुष्य विरोधी मुनाफ़ा लोलुप सत्ता-संस्कृति के बढ़ते हमलों के बरअक्स प्रतिवाद एवं परिवर्तन की शक्तियों को ही “ये करना चाहिए, ऐसे करना चाहिए” के सुझाव-विश्लेषणों का अम्बार खड़ा कर दिया जा रहा है। 

यकीनन ऐसे ही विचार-प्रवृतियों से आज़िज़ आकर ख्यात कवि-विचारक मुक्तिबोध ये पूछने को विवश हुए होंगे कि- “कॉमरेड तुम्हारी पॉलटिक्स क्या है”? तथा “ओ मेरे आदर्शवादी मन, अब तक क्या किया, जीवन क्या जिया”?

आगे चलकर उक्त प्रवृतियों की “बातों और हालात” परिलक्षित हो रही विडम्बनापूर्ण “वैचारिक उछल-कूद व पाला बदल” की स्थितियों को देखकर गोरख पाण्डेय को भी ये पूछना ही पड़ गया कि- क्या यही सच है कॉमरेड? कि विचार और क्रिया में/ दूरी हमेशा बनी रहती है/ कॉमरेड, कितना मुश्किल है सही होना! 

“समझदारों का गीत” काव्य-रचना से भी उन्होंने उक्त प्रवृतियों को पूरी तल्खी के साथ रेखांकित किया था- “यहाँ विरोध ही वाजिब क़दम है/ हम समझते हैं, हम क़दम-क़दम पर समझौता करते हैं/ हम समझते हैं, हम समझौते के लिए तर्क गढ़ते हैं/ हर तर्क को गोल-मटोल भाषा में पेश करते हैं/ हम समझते हैं, हम गोल-मटोल भाषा का भी तर्क समझते हैं/ हम ख़तरों से बाल-बाल क्यों बच जाते हैं, यह भी हम समझते हैं”

इन्हीं भावों को जब गोरख अपनी ग़ज़ल में कहते हैं तो यूं- “बात बे-बात बनाओ तो कोई बात बने, सीधी बातों में न आओ तो कोई बात बने। 

ये सही है कि गोरख पाण्डेय के असामयिक निधन को लेकर कई तरह के सवाल उठे थे लेकिन सबसे अधिक हो-हल्ला मचाया था “समझदारों की टोली” ने। जिन्होंने इस बहाने वामपंथ और पार्टियों को ही निशाना बनाने का “सुकर्म” किया था। 

इस सन्दर्भ में गोरख पाण्डेय के आन्दोलनकारी साथी रहे किसान आन्दोलन एक्टिविस्ट पुरुषोत्तम शर्मा का कथन, जो 3 फ़रवरी 1989 के दिन गोरख पाण्डेय की अंत्येष्टि से लौटकर बेहद शोकाकुल स्थिति में लिखा था। वे लिखते हैं- “ तुम्हारे जीते जी भी/ जिन लोगों ने तुम्हारे गीतों में पाया/अपने जीवन को/ उनके लिए तुम अभी भी नहीं मरे हो मेरे कवि/ तुम अब भी तो उनके साथ हो/ खेतों खलिहानों और कारखानों में तुम्हारी मौत/ कुछ के लिए हो सकती है सवाल/ और कुछ के लिए/ अपनी कलम को रगड़ने और धूर्तता छुपाने का अवसर/ जिसका वे साहस न कर सके तुम्हारे जीते जी/ क्योंकि तब तुम खुद जवाब थे/ उनके मुंह पर तमाचे की तरह जो पिछले छः सालों में तुमसे मिल तक न सके/ आज पुरानी यादों को भुना रहें हैं/ अपनी क्षुद्र राजनीतिक आकांक्षाओं के लिए/ गोरखवा! मूर्ख! पागल! और भी कुछ भद्दा कहते फिरते थे/ जो खिसक गए थे तुम्हारे नेतृत्व के सवाल पर/ उन होठों से भी सुना तुम्हारे लिए ‘लाल सलाम’ का नारा।” 

बहरहाल, बातें और भी कई हो सकतीं हैं लेकिन सबसे अहम् है कि जिन भयावह ख़तरों और चुनौतियों के प्रति गोरख पाण्डेय ने अपनी कविताओं-रचनाओं और संबोधनों के माध्यम से बहुत पहले ही पूरी गंभीरता के साथ आगाह किया था, “साम्प्रदायिकता और उसका बढ़ता उभार”!। मौजूदा के भयावह चुनौतीपूर्ण हालात, जो न सिर्फ हमारी आँखों में ऊँगली घुसेड़कर देखने-सुनने को विवश बने रहे हैं, बल्कि कई “समझदारों” के लिए “यक्ष प्रश्न और फक़त अँधेरे का समय” बन गया है। जबकि गोरख पाण्डेय ने उसी दौर से रचना में स्पष्ट शब्दों में कह दिया था- सोचो तो/ सिर्फ़ सोचने से कुछ होने-जाने का नहीं/ जबकि करने को पड़े हैं/ उलटी चीज़ों को उलट देने जैसे ज़रूरी/ और ढेर सारे काम…

अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए ध्यान दिलाते हैं कि- हे भले आदमियों!/ कब जागोगे/ और हत्यारों को बेमतलब बना दोगे/ हे भले आदमियों!? सपने भी सुखी और आज़ाद होना चाहते हैं। 

एक बौद्धिक-संस्कृति संगठक होने के नाते जब उन्होंने अपने व्यवहारिक अनुभव में पाया कि अधिकाँश लेखक-कवि-रचनाकारों में ये विचार गहरे स्तर पर उन्हें ग्रसित किये हुए है कि- संगठन में शामिल/सक्रिय होने से उनकी “रचनाशीलता” बाधित हो जायेगी अथवा उन्हें किसी “विचारधारा विशेष का अनुपालक’ बनना पड़ जाएगा और लेखकीय स्वतंत्रता कुंद हो जायेगी। तब वे स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि- इस दौर में कुछ लोगों ने आधुनिकता के नाम पर कविता को आम समाज से काट दिया है तो कविता को फिर से समाज की कविता बनाना होगा। इसी लिए कवि को ‘मानव आत्मा का इंजीनियर’ कहा गया है। जब वह एक मनुष्य होने के नाते खुद ही “असंगठित” रहेगा तो उसकी लिखी रचना कैसे लोगों को बेहतर मानव समाज रचना के लिए लोगों (पाठकों) को संगठित होने की प्रेरणा दे सकेगी? हमें यह समझना ही होगा कि अधिकाँश लेखक-रचनाकार मध्य वर्ग तक ही सीमित हैं और उनके पास आम जनता (जीवन-संघर्ष) से जुड़ने की कोई योजना नहीं है। ऐसे कटे हुए रचनाकार अंततोगत्वा अपने अस्तित्व और फायदे के लिए शासक वर्ग से ऊर्जा ग्रहण करते हैं। जिसके लिए तरह तरह के “छद्म ओढ़” बैठते हैं। इसीलिए हमें सतर्क रहना है कि “कहीं हम वैचारिक विघटन के दौर से तो नहीं गुजर रहे हैं?”

आगे गोरख यह भी कहते हैं कि- कई लोगों ने/ सोचने की दिशा बदल दी/ कईयों ने पीछे लौटना ही/ वाजिब समझा.... लेकिन आनेवाली पीढ़ीयां/ लड़ेंगी/ ज़रूर लड़ेंगी/ मौजूदा लड़ाई को/ टाला नहीं जा सकता... आओ मिलजुल कर आदमी की तरह/ बेड़ियाँ काटें… बात बात पर “बात की बग़ावत”/ उफ़, हमें क्या हो गया है? 

गोरख पाण्डेय के सहपाठी एवं प्रिय मित्र रहे नेपाल के चर्चित जनकवि मोदनाथ प्रश्रित ने अपने साथी के असामयिक निधन पर कहा था- भारतीय जनता के प्यारे संस्कृति योद्धा गोरख पाण्डेय को देश और जनता के लिए उनके काम, जन सांस्कृतिक आन्दोलन में उनकी भूमिका और जनता के प्रति समर्पित उनके साहित्यिक सृजन को अमर रहे- बोलना होगा!        

(लेखक एक संस्कृतिकर्मी और राजनीतिक कार्यकर्ता हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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