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असम चुनाव: राज्य के चाय बागानों में उबलता असंतोष

हमारे प्रधानमंत्री ने भी भारतीय चाय को बदनाम करने की साज़िश के बारे में बात की और उनके संबोधन का एक बड़ा हिस्सा राज्य के चाय श्रमिकों को समर्पित था, लेकिन प्रधानमंत्री ने भी उनके मुख्य मुद्दों और मांगों से बचने के लिए चुप्पी का ही सहारा लिया।
असम

रविवार को असम के ढेकियाजुली में एक रैली में बोलते हुए प्रधानमंत्री, नरेंद्र मोदी ने उस समय विवाद को हवा दे दी, जब उन्होंने दावा किया कि भारतीय चाय की छवि को धूमिल करने के लिए एक विदेशी साज़िश रची गयी थी।

हालांकि प्रधानमंत्री ने भारतीय चाय को बदनाम करने की इस कथित साज़िश के पीछे साज़िश करने वालों का न नाम तो नहीं लिया न ही उन्हें चिह्नित किया, लेकिन उनकी यह टिप्पणी साफ़ तौर पर पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग की तरफ़ से साझा किये गये ‘टूलकिट’(वह दस्तावेज़, जिसमें किसी अभियान को लेकर 'एक्शन पॉइंट्स' को दर्ज किया गया है) के सिलसिले में था। सवाल उठने के बाद उस टूलकिट को थनबर्ग ने हटा लिया था, मगर बाद में उसकी जगह उन्होंने एक संशोधित टूलकिट पोस्ट कर दिया था। जिस टूलकिट के साथ उन्होंने पहली पोस्ट की थी, जिसे थनबर्ग ने बाद में हटा लिया था, उसमें कथित तौर पर एक बिंदु ऐसा भी थी जिसमें लिखा था "आम तौर पर भारत के योग और चाय की छवि को धूमिल करें”।

प्रधानमंत्री, मोदी ने रविवार की रैली में कहा था “दस्तावेज़ों से पता चलता है कि भारतीय चाय को बदनाम करने को लेकर देश के बाहर एक साजिश रची गयी है। मुझे यक़ीन है कि असम के चाय श्रमिक इसका माकूल जवाब देंगे। असम में कोई भी चाय बाग़ान कार्यकर्ता इस हमले को बर्दाश्त नहीं कर सकता है और मुझे भरोसा है कि वे इन षड्यंत्रकारियों के ख़िलाफ़ इस लड़ाई को इसलिए जीतेंगे, क्योंकि वे निहित स्वार्थ वाले इन ताक़तों से कहीं ज़्यादा मज़बूत हैं। ”

मोदी की इस टिप्पणी को महज़ थनबर्ग और रियाना जैसी हस्तियों पर एक कथित ताने के तौर पर देखना इस मामले को लेकर बनने वाली समझ को कमतर करना होगा, क्योंकि इन्होंने भारत में किसानों के विरोध के साथ एकजुटता दिखायी थी। हक़ीक़त है कि प्रधानमंत्री ने असम में भारतीय चाय को लेकर अपनी टिप्पणी में जिस 'विदेशी साज़िश' की बात की है, वह टिप्पणी बहुत सोची समझी टिप्पणी है। असम एक ऐसा राज्य है, जो अकेले भारत की आधी से ज़्यादा चाय का उत्पादन करता है। ऐसे में यह टिप्पणी प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी के एक बड़े वोट-बैंक यानी चाय से जुड़ी जनजातियों को लुभाने की कोशिश का एक स्पष्ट संकेत है। इन समुदायों ने राज्य में 2016 के विधानसभा चुनावों में भगवा पार्टी की पहली जीत सुनिश्चित करने में अहम भूमिका निभायी थी।

चाय जनजातियां: एक ऐतिहासिक नज़र

"चाय-जनजातियां" और अपने अनुबंध समाप्त होने के बाद चाय के बाग़ानों से बाहर चले जाने वाली "पूर्व चाय-जनजातियां" कृषि जैसे अन्य व्यवसायों को आगे बढ़ाने के लिए चाय पैदा करने वाली ज़मीन/बाग़ानों के क़रीब के इलाक़ों में बसने के लिये चले जाती हैं, जो कभी-कभी अपनी सेवायएं अनियमित मज़दूर के तौर पर देती हैं। इन अनिमित श्रमिकों की आबादी असम की कुल आबादी का तक़रीबन 20% है। इन्हें राज्य के सबसे पिछड़े समुदायों में से एक माना जाता है। ये चाय जनजातियां, संथाल, मुंडा, उरांव, गोंड, आदि जैसे आदिवासी समुदायों के ही वंशज हैं।

असम की आबादी का यह गिरमिटिया वर्ग झारखंड, बिहार, ओडिशा, बंगाल और आंध्र प्रदेश जैसे पड़ोसी राज्यों से 19 वीं शताब्दी के आख़िर में ब्रिटिश उपनिवेशवादियों की तरफ़ से यहां के चाय बाग़ानों में काम करने के लिए लाया गया था। इस अवधि के दौरान, इंग्लैंड, फ़्रांस, स्पेन, नीदरलैंड और अमेरिका जैसी यूरोपीय शक्तियां चाय पर एक प्रचंड व्यापार युद्ध में उलझी हुई थीं। चाय ग़रीब आदमी के लिए सपना थी और अमीरों के लिए यह एक हैसियत का प्रतीक थी।

असम की चाय जनजातियों पर इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल विकली के लिए लिखते हुए इंद्रजीत शर्मा ने उल्लेख किया है:

“असम अपने चाय उद्योगों के लिए जाना जाता था, लेकिन इसकी खेती के लिए बड़े पैमाने पर मानव शक्ति की ज़रूरत थी। इसके लिए चाय से जुड़ी जनजातियों को भारत के विभिन्न प्रांतों से गिरमिटिया श्रमिकों के रूप में लाया गया। चाय की खेती के अपने कार्यकाल के दौरान इन समुदायों को चाय जनजाति के रूप में पहचाना जाने लगा। आज चाय जनजातियां ख़ास तौर पर दर्रांग, सोनितपुर, नागांव, जोरहाट, गोलाघाट, डिब्रूगढ़, कछार, हैलाकांडी, करीमगंज, तिनसुकिया, और असम के अन्य ज़िलों में पाई जाती हैं। इन चाय जनजातियों में एक समुदाय ऐसा भी हैं जिसे "पूर्व चाय बाग़ान जनजातियों" के रूप में जाना जाता है, यह शब्दावली उन चाय जनजातियों के सदस्यों के लिए इस्तेमाल होती हैं, जो अपने अनुबंध ख़त्म होने के बाद राज्य के चाय उगाने वाली ज़मीन के क़रीब ही बस गए हैं और कभी-कभी अपनी सेवाएं बतौर अनियमित मज़दूर देते हैं। ये पूर्व चाय बाग़ान जनजातियां ख़ास तौर पर पश्चिमी असम के कोकराझार; मध्य असम में मारीगांव, नागांव, सोनितपुर, और दारंग; ऊपरी असम में गोलाघाट, जोरहाट, सिबसागर, डिब्रूगढ़ और तिनसुकिया; उत्तरी कछार और दक्षिणी असम में कार्बी आंगलोंग; साथ ही साथ बराक घाटी में भी मौजूद हैं।”

असाम में एक असरदार चुनावी ताक़त

शोषण,सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन,स्वास्थ्य की ख़राब स्थिति,कम साक्षरता दर और किये जाने वाले चुनावी वादों से त्रस्त,तादाद के हिसाब से अहम ये जनजातियां असल में राज्य के आगामी विधानसभा चुनावों के नतीजे को किसी भी तरफ़ झुका सकने की ताक़त रखती हैं। ये चाय जनजातियां बराक घाटी को छोड़कर उत्तरी,मध्य और ऊपरी असम में कम से कम 40 से 45 सीटों पर निर्णायक हो सकती हैं।

राज्य में पिछले दो विधानसभा चुनावों में ये चाय जनजातियां एक असरदार चुनावी ताक़त के तौर पर उभरकर सामने आयी हैं। 2011 में तरुण गोगोई की अगुवाई में कांग्रेस ने अपने ख़िलाफ़ सत्ता विरोधी भावना के बावजूद इस ‘चाय क्षेत्र’ में अपने प्रभावशाली प्रदर्शन के चलते ही तीसरी बार जीतने का रिकॉर्ड बनाया था। इस पुरानी पार्टी ने ऊपरी असम क्षेत्र के 56 सीटों में से 44 सीटों पर जीत हासिल की थी, जो चाय जनजातियों के प्रभुत्व वाला क्षेत्र है। हालांकि,2016 में राज्य में कांग्रेस के हाथ से सत्ता खिसक गयी थी और भाजपा को मिली पहली जीत के लिए भी इसी चाय जनजातियों के समर्थन को ही ज़िम्मेदार माना गया था।लोकनीति की तरफ़ से कराये गये सर्वेक्षणों से जो निष्कर्ष निकले,उनसे इस सिद्धांत को बल मिला कि कांग्रेस के ध्वस्त होने में इन्हीं चाय जनजातियों की तरफ़ से पार्टी के समर्थन में आयी ज़बरदस्त गिरावट थी। इस सर्वेक्षण में तक़रीबन 52% उत्तरदाताओं की राय थी कि तरुण गोगोई के शासन के पिछले पांच वर्षों के दौरान चाय बाग़ानों के श्रमिकों की हालत ख़राब हुई थी।

1952 में पहले लोकसभा चुनाव से ही इन चाय जनजातियों को कांग्रेस के समर्थन देने वाले और एकमुश्त मतदाता के तौर पर जाना जाता था। दशकों तक पार्टी राज्य में चुनाव-दर-चुनाव जीतती रही और अपने आज़माये हुए कुली-बंगाली-अली’ फ़ॉर्मूले पर भरोसा करती रही। हालांकि,2014 के लोकसभा चुनावों में यह फ़ॉर्मूला बुरी तरह फ़्लॉप रहा,क्योंकि कुली (चाय जनजाति / कामगार) पहली बार पार्टी से दूर हो गये और भाजपा के साथ चले गये। नतीजतन डिब्रूगढ़, जोरहाट और तेजपुर की चाय बागानों की सीटों को भगवा पार्टी ने जीत लिया। इन चाय जनजातियों के साथ एक भावनात्मक रिश्ता बनाने के लिए चिर-परिचित ‘चायवाले की कहानी’ का इस्तेमाल करते हुए मोदी के नेतृत्व में भाजपा पारंपरिक कांग्रेस वोट बैंक को अपनी तरफ़ करने में कामयाब रही। प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी ने इस समुदाय की लंबे समय से चली आ रही दो मांगों को पूरा करने का वादा किया था, जिनमें न्यूनतम मज़दूरी 351 रुपये की जानी थी और इन चाय जनजातियों को एसटी का दर्जा दिया जाना था।

छह साल बाद भी ज़मीनी स्तर पर बहुत कुछ नहीं बदला है और भाजपा को अपने चुनावी वादों को पूरा करना बाक़ी है। एसटी का दर्जे दिये जाने की मांग अभी पूरी नहीं हुई है और उनकी मज़दूरी अब भी 167 रुपये प्रति दिन ही है, जो कि 351 रुपये किये जाने के वादे से बहुत कम है। ग़ौरतलब है कि असम के चाय श्रमिकों को किया जाने वाला भुगतान तमिलनाडु, केरल और यहां तक कि पश्चिम बंगाल के चाय श्रमिकों के मुक़ाबले बहुत कम है।

अभी तक वादे पूरे नहीं हो पाये हैं,उस वजह से असम के चाय बाग़ानों में असंतोष पनप रहा है। रविवार को प्रधानमंत्री ने भी भारतीय चाय को बदनाम करने की साज़िश के बारे में बात की और उनके संबोधन का एक बड़ा हिस्सा राज्य के इन्हीं चाय श्रमिकों के नाम रहा, लेकिन उन्होंने उन चाय कामगारों के मुख्य मुद्दों और उनकी अहम मांगों पर चुप्पी साधे रखी।

असम टी ट्राइब्स स्टूडेंट्स एसोसिएशन (ATTSA) प्रधानमंत्री के दौरे की पूर्व संध्या पर इस पूरे चाय क्षेत्र में दैनिक न्यूनतम मज़दूरी में वृद्धि करने में सरकार की नाकामी के विरोध में सड़कों पर उतर आया, चाय बाग़ानों में पीएम के पुतले फूंके गये,टायर जलाये गये। एसटी के दर्जे के सिलसिले में सिर्फ़ 36 चाय जनजातियों पर विचार करने के केन्द्र के उठाये गये क़दम पर नाराज़गी जताते हुए असम टी ट्राइब्स स्टूडेंट्स एसोसिएशन (ATTSA) के संगठन सचिव, बसंता कुर्मी ने टाइम्स ऑफ़ इंडिया(TOI) से कहा, “यह विभाजनकारी राजनीति है। यदि वे हमें एसटी का दर्जा देना चाहते हैं, तो इस प्रक्रिया में सभी 108 चाय जनजातियों को शामिल किया जाना चाहिए।”

जनवरी में भाजपा अध्यक्ष, जे.पी. नड्डा को उस समय ज़बरदस्त आलोचना का सामना करना पड़ा था, जब उन्होंने दावा किया था कि केंद्र ने छह जनजातियों को एसटी का दर्जा दे दिया है और अब भी विचार-विमर्श जारी है। छह समुदायों-कूच राजबोंग्शी, ताई अहोम, चुटिया, मटक, मोरन और चाय समुदाय को एसटी का दर्जा दिये जाने को लेकर ताज़ा ख़बर यही है कि यह मुद्दा इस समय भी लंबित ही है। हक़ीक़त तो यह है कि सोनोवाल सरकार द्वारा एसटी का दर्जा दिये जाने के स्वरूप के सिलसिले में गठित मंत्री-समूह (GoM) ने कथित तौर पर अपने वह अंतिम निष्कर्ष प्रस्तुत ही नहीं किये हैं, जिन्हें बाद में केंद्र सरकार को भेजा जाना है।

विधानसभा चुनावों से पहले, सत्तारूढ़ भाजपा और विपक्षी पार्टी,कांग्रेस इन चाय जनजातियों को लुभाने में कोई कोर क़सर नहीं छोड़ रही हैं। जहां कांग्रेस न्यूनतम मज़दूरी सुनिश्चित करने के वादे को पूरा करने में नाकाम रही सरकार के ख़िलाफ़ राज्य भर में धरना प्रदर्शन कर रही है और सहायक श्रम आयुक्तों के दफ़्तरों पर धरना आयोजित कर रही है, वहां भाजपा चाय जनजातियों के लिए सोनोवाल सरकार की तरफ़ से शुरू किये गये कल्याणकारी उपायों पर भरोसा जता रही है। हाल ही में इसने राज्य के सात लाख से ज़्यादा चाय बाग़ान श्रमिकों के बीच नक़द राशि बांटी थी। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने ‘चा बाग़ीछार धन पुरस्कार मेला’ की अध्यक्षता की, जहां 7 लाख से ज़्यादा खातों में तीन-तीन हज़ार रुपये स्थानांतरित किये गये थे।

सीतारामन ने कहा था, “मुंबई, दिल्ली, चेन्नई जैसे महानगरों में चाय श्रमिक अब डिजिटल सुविधाओं का लाभ उठा रहे हैं। आपको सीधे पैसे मिल रहे हैं। कोई बिचौलिया नहीं हैं। यह डिजिटाइजेशन का फ़ायदा है।” उन्हों ने इस मौक़े पर कहा था कि केंद्र और राज्यों की भाजपा सरकारों की पहल के चलते ही बैंक खाते खोलने, मोबाइल बैंकिंग, और चाय बागानों में एटीएम लगाने की शुरुआत हुई थी।

उन्होंने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा था,“असम चाय का वैश्विक ब्रांड वैल्यू है। हम सभी सुबह की चाय पीते हैं, मगर आपके बच्चे बासी चावल खाते हैं। इस स्थिति को बदलना होगा। जो श्रमिक दुनिया को चाय पिलाते हैं, उनके बच्चों तक ताज़ा खाना तो पहुंचना ही चाहिए।”

उसी मेले में असम के वित्त मंत्री और पूर्वोत्तर में भाजपा के जाने-माने चेहरे, हिमंत बिस्वा सरमा ने ऐलान किया कि राज्य सरकार चाय श्रमिकों के दैनिक वेतन में वृद्धि के लिए एक अधिसूचना जारी करेगी।

गुरुवार को केंद्रीय गृह मंत्री, अमित शाह ने कूचबिहार के स्वघोषित राजा, अनंत राय के घर का दौरा किया, जिनके बारे में माना जाता है कि एसटी के दर्जे की मांग करने वाले समुदायों में से एक-कूच-राजबॉंग्शी समुदाय पर उनका  ज़बरदस्त असर है। इस दौरे के बाद सरकार की तरफ़ से एसटी का दर्जा दिये जाने की संभावना पर संकेत देते हुए राय ने कहा कि राजबोंग्शियों के लिए ‘अच्छी ख़बर’ बस आने ही वाली है। यह समुदाय और उसका वोट न सिर्फ़ असम बल्कि पश्चिम बंगाल के उत्तरी भाग में भी भाजपा के लिए बेहद अहम हैं।

चुनावी वादे पूरे होने अभी बाक़ी है और इस पर कांग्रेस के महागठबंधन, एनडीए और राजोर दल और असम भारतीय परिषद से बने क्षेत्रीय मोर्चे के बीच राज्य के तीन सीटों पर लड़ाई होना है,इस लड़ाई में महज़ चाय मुद्दा नहीं है, बल्कि इससे जुड़ा वह असंतोष है, जो इस समय असम के चाय बाग़ानों में उबल रहा है।

लेखक मूंबई स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार हैं और मुंबई के सेंट जेवियर्स कॉलेज के पूर्व छात्र हैं। उनकी रुचि राजनीति, भाषाविज्ञान और पत्रकारिता से लेकर क्षेत्रीय भारतीय सिनेमा तक में है। इनका ट्विटर एकाउंट @Omkarismunlimit है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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