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इतवार की कविता : 'जीते हुए लश्कर के सिपाही, ऐसे कैसे हो जाते हैं?'

बमबारी, हमले और जंग के शोर के बीच इतवार की कविता में पढ़िये स्वप्निल तिवारी की लिखी नज़्म 'शेल-शॉक्ड'...
Itwar ki kavita
फ़िल्म हैकसॉ रिज का एक सीन

बमबारी, हमले और जंग के शोर के बीच इतवार की कविता में पढ़िये स्वप्निल तिवारी की लिखी नज़्म 'शेल-शॉक्ड'...

शेल शॉक्ड

कान के पास से निकली गोली 
ज़हन के अन्दर ठहर गयी है 
कान के पर्दे पर इक चूं का लम्बा पर्दा पड़ा हुआ है 
बच्चों के हँसने की खनखन 
मौसम के पाज़ेब की छनछन
चीख़ हो कोई या फिर सिसकी 
इस परदे पर ही है ठिठकी 
यानी कोई लफ्ज़ कोई आवाज़ मेरे अंदर आ कर अब 
ढूँढ नहीं सकती अपनी लय
मुझमें कहीं नहीं अब वो शय ... 

बम का धुआँ तो बम फटने के कुछ ही देर में हवा हुआ था 
लेकिन उसकी चमक आँख पर ठहरी हुई है
बीनाई पे जैसे कोई वरक़ चढ़ा है चांदी का
सुबह सुबह कोई फूल खिले 
या देर रात एक फिल्म चले 
या तुम आ जाओ शाम ढले... कुछ भी देख नहीं सकता मैं
मुझको देखो 
और बताओ 
जीते हुए लश्कर के सिपाही 
ऐसे कैसे हो जाते हैं ? 

स्वप्निल तिवारी

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