गोवा में कोलकाता डर्बी: केवल मूर्ख ही इसके पीछे दौड़ेंगे!

जब आल इंडिया फुटबाल फेडरेशन (एआईएफएफ) ने 1996-97 के सीजन में नेशनल फुटबाल लीग (एनएफएल) को शुरू करने का फैसला लिया था तो कई फुटबाल प्रशंसक इससे पूरी तरह से सहमत नहीं थे। इसकी सफलता पर संदेह करने वालों के पास एनएफएल की सफलता पर संदेह करने का तर्क तब और मजबूत हो गया था जब मोहन बागान ने इसके क्वालीफ़ायर राउंड से ही खुद को बाहर करने का चौंकाने वाला फैसला लिया था।
कैसे एक खास शहर की दो टीमों के बीच के कथित फिक्स्ड मैच के चलते मोहन बागान के इस आयोजन निकल बाहर होने ने इस साजिश में अभिवृद्धि का काम किया। लेकिन इन तमाम कमियों और मोहन बागान बनाम ईस्ट बंगाल के प्रसिद्ध मुकाबले की गैर-मौजूदगी के बावजूद शुरूआती एनएफएल बेहद हिट साबित हुआ था। यकीनन यह भारतीय फुटबाल के इतिहास में अब तक का सबसे बेहतरीन लीग साबित हुआ है।
आख़िरकार जब अगले सीजन में जाकर मोहन बागान इसमें शामिल हुआ (और जल्द ही ख़िताब पर भी कब्जा ज़माने में सफल रहा), तो सभी निगाहें एमबी बनाम ईबी मुकाबले, कोलकाता डर्बी पर ही जमी हुई थीं। इस अच्छादित मुकाबले के लिए मीडिया में “महारथियों की भिडंत” और “मुहँ में पानी आ जाने वाला मुकाबला” जैसे जुमले जमकर इस्तेमाल किये जा रहे थे।
हालाँकि तत्कालीन एनएफएल के अध्यक्ष अल्बर्टो कोलाको किसी भी जल्दबाजी के मूड में नहीं थे। उन्होंने अपने कार्यक्रम को बेहद सावधानीपूर्वक और विवेकपूर्ण तरीके से तैयार किया था, और दोनों पक्षों को अपनी टीमों इस मुकाबले से पहले कम से कम तीन राउंड खेलकर अभ्यस्त होने की गुंजाइश प्रदान की थी। यह मुकाबला आख़िरकार 6 जनवरी, 1998 को साल्ट लेक स्टेडियम में हुआ, जो बमुश्किल मोहन बागान के खाते में गया था।
इसके बाद से तो यह एक नॉर्म बन गया था। एनएफएल के लॉन्च होने के 10 वर्षों बाद जाकर इसे आई-लीग का नाम दिया गया था, लेकिन कभी भी कोलकाता की इन दो टीमों को शुरूआत में खेलने के लिए तय नहीं किया गया था। ज्यादा संख्या में दर्शकों को खेल की ओर आकर्षित करने के लिए या लगातार गिर रही टीवी रेटिंग्स को उठाने तक के लिए भी ऐसा नहीं किया गया। दोनों ही टीमों को इस प्रतिष्ठा वाली जंग में कूदने से पहले खुद की तैयारी के लिए पर्याप्त मात्रा में समय मुहैय्या कराया जाता था।
इंडियन सुपर लीग (आईसीएल) के उद्घाटन मैचों में ही 27 नवंबर को होने वाले एटीके मोहन बागान बनाम एससी ईस्ट बंगाल के मैच को लगता है बिना किसी खेल योग्यता अथवा परंपरा को ध्यान में रखते हुए निर्धारित किया गया है। इससे लीग की टीवी रेटिंग्स में जरुरी उछाल प्राप्त हासिल करने में कामयाबी हासिल हो सकती है (खाली स्टैंड्स पड़े होने की वजह से आज यह कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है) और खुद लीग के लिए भी। लेकिन इससे टीमों को शायद ही कोई फायदा पहुंचे, खासतौर पर एक ऐसे सत्र में जब उन्हें आईसीएल शुरू होने से पहले एक भी प्रतिस्पर्धी मैच खेलने का मौका न मिला हो।
मोहन बागान और ईस्ट बंगाल पिछले 95 वर्षों से इस कल्पित प्रतिद्वंदिता में लगे हुए हैं, जबसे वे पहली बार 1925 के कलकत्ता फ़ुटबाल लीग (सीएफएल) में पहली बार आपस में भिड़े थे। इसके बाद से ही देश में चलने वाले सभी शीर्ष आयोजनों में उन्हें खेलने के लिए लालच दिया जाता रहा है, क्योंकि इससे गारंटीशुदा टिकटों की बिक्री और टूर्नामेंट की प्रतिष्ठा में चार चाँद लग जाना तय हो जाता है। लेकिन टूर्नामेंट के फायदे को ध्यान में रखकर कभी भी इन टीमों की प्रतिष्ठा और प्रदर्शन के साथ इससे पहले कभी भी इस प्रकार का समझौता किया गया हो।
पूर्व भारतीय कप्तान भास्कर गांगुली, जिन्होंने 1983 के एशियाई खेलों में देश का नेतृत्व किया था, के अनुसार लीग में इतनी जल्दी मुकाबला तय करना किसी भी सूरत में “खेल हित” में नजर नहीं आता।
गांगुली, जिन्होंने ईस्ट बंगाल के लिए 14 सत्रों में खेला है और दो सीजन के लिए वे मोहन बागान के लिए खेल चुके हैं, का कहना है कि “यह सिर्फ इस बात को दर्शाता है कि जो लोग भारतीय फ़ुटबाल को इस समय चला रहे हैं, उन्हें भारत में खेल की पृष्ठभूमि का कुछ भी अता-पता नहीं है। दोनों ही टीमों को सबसे अधिक महत्वपूर्ण मैच खेलने से पहले कुछ हफ़्तों का समय दिया जाना चाहिए था, ताकि वे भिडंत से पहले पर्याप्त अभ्यास का मौका हासिल कर सकें। स्पष्ट तौर पर इसे टेलीविजन कवरेज हड़पने के लिए तय किया गया था। उनके दिमाग में खेल हित [आईसीएल आयोजकों] नहीं था।”
यह तय है कि दोनों ही टीमें गलत फँस गई हैं। एटीके मोहन बागान ने पुराने क्लब को ही अपने में शामिल करके हालाँकि खुद को अधिक भाग्यशाली साबित किया है। कमोबेश उनके पास पिछले सत्र वाला ही तैयार दल है (जब उन्होंने अलग नाम के तहत खेला था)। इस बीच उन्होंने अपना एक मैच भी खेल लिया है, जिसमें पिछले सप्ताहांत उन्होंने केरला ब्लास्टर्स जैसी टीम के खिलाफ फ़तेह हासिल की थी।
जबकि अपने शताब्दी वर्ष में ईस्ट बंगाल की दुर्दशा बेहद मुश्किल भरी है। हो सकता है कि मोहन बागान के प्रशंसकों तक को उनसे सहानुभूति पैदा हो सकती है। सबसे पहले आईसीएल में उनकी स्थिति को लेकर कई लोग शुरुआती मुठभेड़ में ही बाहर हो जाने के तौर पर खिल्ली उड़ाते हैं। लीग में भाग लेने को लेकर उनकी उत्कंठा इतनी जबर्दस्त देखने को मिली कि जिस पहले निवेशक ने उन पर दाँव लगाया उन्होंने उसे सहर्ष स्वीकार लिया, ताकि वे किसी भी तरह से गोवा में उपस्थित रह सकें।
लेकिन बात यहीं पर खत्म नहीं हो जाती। असल में यह तो सिर्फ एक शुरुआत भर थी। विरासत और परंपरा की वे सभी बातें अंत में जाकर इस स्तर पर सिमटकर रह गई जहाँ वे इस सीजन के आरंभिक सत्र में ही अपने सबसे बड़े प्रतिद्वंदी के खिलाफ मैदान में एक ऐसे कोच के नेतृत्व में उतरने जा रहे हैं, जिसने कोलकाता की धरती पर अपने पाँव तक नहीं रखे हैं। कमोबेश यही कहानी उनके विदेशी नियोक्ताओं की भी है।
इस सबके बावजूद यह ईस्ट बंगाल के कोच रोबी फाउलर को यह व्याख्यायित करने से नहीं रोक सका कि यह मुकाबला उनके और उनके लड़कों के लिए कितना महत्वपूर्ण है। “हमें पता है कि कोई भी मैच कितना चुनौतीपूर्ण हो सकता है। लेकिन हमारे लिए मौजूदा चैंपियन से मुकाबला करना और उसमें से जबर्दस्त मुकाबला हासिल कर पाना हमारे प्रशिक्षण के लिए बेहद अहम होने जा रहा है। यह हमारे खिलाडियों के लिए बेहद अहम मैच है और हम इस मुकाबले का बेसब्री से इन्तजार कर रहे हैं। हम इस मुकाबले के लिए तैयार हैं।”
हालाँकि एटीके मोहन बागान के कोच अंतोनियो हबास इस प्रकार का कोई उत्साह नहीं दिखाया है। कोलकाता में कुछ साल बिताने के बावजूद उन्हें कभी भी डर्बी में नहीं देखा गया है, जिसके चलते हर बार शहर में बड़े पैमाने पर ट्रैफिक जाम की समस्या उत्पन्न हो जाती है, जब कभी इसे खेला जाता है। इसके बजाय उन्होंने अनावश्यक शोरगुल मचाने से खुद को रोक रखा है और सिर्फ इतना कहा है कि वे इस महत्वपूर्ण मुकाबले की महत्ता से बाख़बर हैं।
उन्होंने यह भी पहले से ही स्पष्ट कर दिया है कि वे इतने कम समय में टीम को मुकाबले में उतारे जाने से बिल्कुल भी खुश नहीं हैं। एक लंबा तैयारी शिविर का आयोजन इसके लिए आदर्श होता, लेकिन भारत की मौजूदा स्थितियों को देखते हुए उनके पास कोई विकल्प नहीं था। वास्तव में देखें तो यह विकल्प किसी के पास भी मौजूद नहीं था।
लेकिन जो लोग इस आयोजन के कर्ता-धर्ता हैं, यह सब उन्हीं की कारस्तानी है। फुटबाल के खेल के दृष्टिकोण से देखें तो आदर्श स्थिति यह होती कि एक ऐसा ड्रा निर्धारित किया जाता, जिसमें इन दोनों टीमों को अपनी महान प्रतिद्वंदिता को पुनर्जीवित करने से पहले यदि अधिक नहीं तो कम से कम दो-चार मैच खेलने का मौका दिया जाता। इससे उन्हें वो जरुरी समय मिल सकता था जिससे कि वे इस बेहद अहम मुकाबले को खेलने से पहले अपने खेल कौशल को धारदार बनाने के लिए आवश्यक समय दे सकते थे।
ईस्ट बंगाल और बागान के पूर्व स्टार खिलाडी सुभाष भौमिक, जो कि 1970 के एशियाई खेलों के कांस्य पदक विजेता रहे हैं, भी इसको लेकर एकमत नजर आये।
“कुछेक राउंड के मैच अभ्यास के बाद जाकर यदि इस मैच को शेड्यूल किया जाता तो यह आदर्श स्थिति होती” वे कहते हैं। उन्होंने कहा “इससे दोनों ही टीमों को अपने खेल में स्थायित्व लाने के लिए कहीं ज्यादा वक्त मिल गया होता। यदि दोनों टीमों के नजरिये से देखें तो यह बेहद अहम मैच है। यदि भारतीय फ़ुटबाल इसमें से अपने लिए फायदा उठाना चाहती है तो सीजन के मध्य में यदि इनकी भिडंत कराई जाती तो यह सबसे बेहतर समझ होती।”
यदि इरादा सही होता तो इस मुकाबले के क्रम को तय करने के लिए किसी राकेट साइंस या जटिल गणितीय योग्यता की जरूरत नहीं पड़ने वाली थी। यह एक मैच की अदलाबदली करने जितना आसान था। बागान और ब्लास्टर्स ने लीग मैच का अपना शुरूआती मुकाबला खेल लिया था। इसके बाद ब्लास्टर्स ने अपना दूसरा मैच, इस डर्बी से एक दिन पहले 26 नवंबर को नार्थईस्ट यूनाइटेड ऍफ़सी के खिलाफ खेला। अगर बागान का मुकाबला नार्थईस्ट के खिलाफ और ब्लास्टर्स को ईस्ट बंगाल के खिलाफ मुकाबला तय कर दिया जाता तो इस मुकाबले में इस बदलाव के जरिये इस अहम डर्बी मुकाबले को 20 दिसम्बर के दिन आयोजित किया जा सकता था, तब तक दोनों ही टीमें अपने छह राउंड के खेल को पूरा कर चुकी होतीं।
लेकिन जब मुख्य मकसद ही उत्पाद को बढ़ावा देकर मुनाफा खींचने का हो तो असल उत्पाद अपने आप ही खुद को पीछे कर लेता है। एमबी-ईबी मुकाबला भी इसका अपवाद नहीं है। इस मैच का बाजार मूल्य काफी तगड़ा है। इसको लेकर मोह भी काफी था। लेकिन यह लीग मैचों में उल्टा नुकसान भी पहुंचा सकता है, खासतौर पर यदि तैयारी के अभाव में दोनों टीमों का मुकाबला फीका रहा। ऐसा मानना है प्रशांत बनर्जी का, जिन्होंने ईस्ट बंगाल के लिए नौ सत्रों में और मोहन बागान के लिए सात सत्रों में प्रतिनिधित्व किया है।
बनर्जी जिन्होंने दो एशियाई खेलों में भाग लिया था, कहते हैं “यह शेड्यूल दोनों ही टीमों के लिए अनुचित है, खासकर ईस्ट बंगाल के लिए।” वे आगे कहते हैं “आमतौर पर आप सत्र की शुरुआत में ही सबसे अधिक देखे जाने वाले मैच को तय करने की भूल नहीं करते हैं। इस फैसले में जरा भी फ़ुटबाल की समझ नजर नहीं आती। इससे आयोजकों को भी उल्टा नुकसान झेलना पड़ सकता है। यदि इस मैच की गुणवत्ता आम मुकाबले जैसी साबित हुई तो इससे समूचे लीग के प्रभावित होने की संभावना है।”
हालाँकि यदि आप इन दोनों टीमों के इतिहास पर नजर डालें तो इनके मुकाबले तो तय किये जाने की कहानी में कई और परतें देखने को मिल सकती हैं। इतिहास में जब इन दोनों के मुकाबले को तय करने की बारी आती थी तो कार्यक्रम को लेकर दोनों टीमों में को छोटी-छोटी बातों में उधम मचाते देखा गया है। क्योंकि एक नकारात्मक परिणामं आखिरकार भारी संख्या में उनके प्रशंसकों को नाराज करने के लिए पर्याप्त साबित हो सकता था। यहाँ तक कि पिछले सत्र में भी इन दोनों में से एक पर ख़राब परिणाम की आशंका के चलते आई-लीग मुकाबले से बाहर होने का आरोप लगाया गया था। ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जब कोई एक टीम बेहद मामूली कारणों का हवाला देते हुए आयोजन से बाहर निकल जाती थी।
हालाँकि इस बार चीजें अलग हैं। एक बार शेड्यूल की घोषणा हो जाने के बाद से दोनों ही टीमों के मालिकों ने इस टाई से पहले कुछ और समय दिए जाने को लेकर एक भी शब्द या अनुरोध अपनी ओर से नहीं किया है। क्या वे इस भिडंत से जुड़ी भावनाओं एवं इसके महत्व से अनभिज्ञ हैं या उन्हें इसकी कोई परवाह नहीं है? या दोनों ही बातें हैं?
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