ट्रंप की टैरिफ़ शर्तें मानने से भारत की खाद्य सुरक्षा को ख़तरा

अर्थशास्त्र की आरंभिक पाठ्य पुस्तकें अपरिहार्य रूप से एक पूरी तरह से मिथकीय अवधारणा से शुरू होती हैं। यह अवधारणा है, ‘‘संपूर्ण प्रतिस्पर्धा’’ या परफैक्ट कंपटीशन की। यह अवधारणा, ‘‘मुक्त प्रतिस्पर्धा’’ या फ्री कंपटीशन की उस अवधारणा से भिन्न है, जिसका उपयोग क्लासिकी अर्थशास्त्रियों और मार्क्स ने किया था। ‘‘मुक्त प्रतिस्पर्धा’’ की पहचान (समान कौशल) के लिए मजदूरी की बराबरी और विभिन्न क्षेत्रों के बीच मुनाफे की दरों की बराबरी से होती है। इसके वास्तविकता बनने के लिए श्रम की और विभिन्न क्षेत्रों के बीच पूंजी की मुक्त आवाजाही की जरूरत होती है। और इजारेदारी-पूर्व दौर में यह किसी भी तरह से बहुत दूर की कल्पना भी नहीं थी।
सब्सिडी-सब्सिडी में बेतुका भेद
इसके विपरीत, ‘‘संपूर्ण प्रतिस्पर्धा’’ की पहचान, इसके ऊपर से शून्य मुनाफों से होती है। यह एक ही स्थिति में हो सकता है: जब भी किसी क्षेत्र में कोई धनात्मक मुनाफे आ रहे होते हैं, उस क्षेत्र में इतने सारे पूंजीपतियों की बाढ़ आ जाए कि धनात्मक मुनाफे गायब ही हो जाएं। इसके लिए न सिर्फ विभिन्न क्षेत्रों के बीच पूंजीपतियों की मुक्त आवाजाही की जरूरत होती है बल्कि पूंजीपतियों की कतारों में मुक्त आवाजाही की भी जरूरत होती है। यानी जब भी धनात्मक मुनाफे आएं, मजदूर पूंजीपति बन सकते हों। इसलिए, ‘‘संपूर्ण प्रतिस्पर्धा’’, संपर्ण सामाजिक गतिशीलता की यानी एक वर्गहीन समाज की मांग करती है। और यह किसी पूंजीवादी समाज के लिए एक बेतुकी पूर्व-कल्पना है और इस तरह वर्तमान संदर्भ में एक पूरी तरह से मिथकीय या काल्पनिक स्थिति है। फिर भी, इस ‘‘संपूर्ण प्रतिस्पर्धा’’ के अंतर्गत संतुलन में चल रही कीमतों में उपयुक्तता के कुछ गुण माने जाते हैं, जिसके चलते अगर ये कीमतें कायम रहती हैं, तो उनसे कोई भी विचलन काम्य नहीं होगा।
इसके बावजूद, नये अंतर्राष्ट्रीय व्यापार नियम तय करने में, विश्व व्यापार संगठन ने यह पूरी तरह से अवैध पूर्व-कल्पना की थी कि ‘‘संपूर्ण प्रतिस्पर्धा’’ की यह मिथकीय अवस्था ही वास्तव में दुनिया में चल रही है और इसलिए वास्तव में जो कीमतें बनी हुई थीं उनसे किसी भी विचलन से बचा जाना चाहिए। तद्नुसार उसने यह व्यवस्था दी थी कि किसी भी क्षेत्र में, मूल्य समर्थन के जरिए उत्पादकों के लिए किसी भी सब्सिडी से बचा जाना चाहिए क्योंकि ये सब्सीडियां ‘‘व्यापार विकृतिकारी’’ होती हैं, जबकि उन्हीं उत्पादकों के लिए आय हस्तांतरण के रूप में दी जाने वाली कोई भी सब्सीडियां, पूरी तरह से वैध होंगी।
इस व्यवस्था का बेतुकापन इस तथ्य से स्वत:स्पष्ट हो जाता है कि आज की वास्तविक दुनिया में इजारेदारों के मुनाफों पर नियंत्रण लगाने के जरिए, अंकुश स्थापित करने की कोई भी कोशिश, मूल्य विकृतकारी तथा बाजार विकृतिकारी और इसलिए, गैर-उपयुक्त कहकर प्रतिबंधित कर दी जाएगी। यह वाकई हैरान करने वाला है कि इस तरह की बेतुकी व्यवस्था को कि आज की दुनिया में कीमतों की वास्तव में जो स्थिति है उसके साथ किसी भी तरह के हस्तक्षेप से बचा जाना चाहिए क्योंकि ये कीमतें एक खास अर्थ में उपयुक्त कीमतें हैं, इसके स्वांग पर आधारित इस व्यवस्था को कि वास्तविक दुनिया की पहचान ‘‘संपूर्ण प्रतिस्पर्धा’’ से होती है, विश्व व्यापार संगठन समझौता करने में, जबरन विकासशील दुनिया के इतने सारे देशों के गले के नीचे उतरवा दिया गया था। इन देशों को ज्यादा विवेक दिखाना चाहिए था, लेकिन उन्हें धौंस में ले लिया गया था और इसका एक स्वत:स्पष्ट नतीजा था, किसानी खेती पर हमला।
खेती-किसानी पर हमला
यह एक जानी-मानी बात है कि विकसित पूंजीवादी देश, अपने कृषिकर्मियों को बहुत भारी सब्सिडी देते हैं। लेकिन, ये सब्सिडी प्रत्यक्ष आय हस्तांतरण के रूप में दी जाती हैं, न कि उनके द्वारा बेचे जाने वाले मालों की कीमतों के जरिए। अमेरिका में और योरपीय यूनियन में इस तरह की सब्सिडी उत्पाद के करीब आधे मूल्य के बराबर होती हैं। जापान में तो ये सब्सिडी, उत्पाद के कुल मूल्य के ही बराबर होती हैं। इन सब्सिडी की विशालता के बावजूद, विश्व व्यापार संगठन को ऐसी सब्सिडी पर आपत्ति नहीं होती है क्योंकि वह इन्हें ‘‘गैर-मूल्य विकृतिकरणकारी’’ मानता है और इसे एक गुण माना जाता है क्योंकि कथित रूप से दुनिया की पहचान संपूर्ण प्रतिस्पर्धा से होती है। (बहरहाल, यह भी सैद्धांतिक रूप से दोषपूर्ण है क्योंकि एक ऐसी अर्थव्यवस्था में, जिसकी पहचान ‘‘संपूर्ण प्रतिस्पर्धा’’ से होती हो, प्रत्यक्ष आय हस्तांतरण संभावित रूप से काम और विश्राम के बीच सापेक्ष मूल्य को विकृत करने वाले होते हैं; बहरहाल यहां हम इसे अनदेखा करे देते हैं।) लेकिन, भारत जैसे देश में, जहां सरकार किसानों को मूल्य सहायता मुहैया कराती है यानी कीमतों के साथ हस्तक्षेप कर किसानों को सब्सिडी देती है (जैसे एक न्यूनतम समर्थन मूल्य या एक क्रय मूल्य मुहैया कराती है), इस तरह की सहायता पर विकसित पूंजीवादी देशों द्वारा और विश्व व्यापार संगठन द्वारा आपत्ति की जाती है। वही विश्व व्यापार संगठन जो उन्नत पूंजीवादी देशों की सब्सिडी का अनुमोदन करता है, विकासशील देशों की इन सब्सिडी को ‘‘मूल्य विकृतिकारी’’ और इसलिए ‘‘व्यापार विकृतिकारी’’ करार देता है।
‘‘गैर-मूल्य-विकृतिकारी’’ सब्सीडियों पर यह आग्रह सिर्फ सैद्धांतिक रूप से ही निराधार ही नहीं है क्योंकि दुनिया एक ‘‘संपूर्ण प्रतिस्पर्धी अर्थव्यवस्था’’ के मॉडल में फिट नहीं बैठती है, बल्कि यह अव्यावहारिक भी है। अमेरिका में सरकार कृषिकर्मियों को आय समर्थन दे सकती है क्योंंकि उनकी संख्या कुछ हजार तक सीमित है। लेकिन, भारत जैसी अर्थव्यवस्था में, जहां दस करोड़ से ज्यादा काश्तकार परिवार हैं, हरेक परिवार को अलग-अलग आय समर्थन देना, एक व्यावहारिक रास्ता है ही नहीं। इतने सारे किसानों को सहायता तो सिर्फ मूल्य के तंत्र के जरिए ही दी जा सकती है और यह एक सिरे से लगाकर उपयुक्त लाभकारी दाम के प्रावधान के जरिए ही किया जा सकता है। इसलिए, इसकी जिद करना कि सहायता सिर्फ आय के जरिए दी जाए न कि कीमतों के जरिए, व्यावहारिक मानों में इसी की मांग करना है कि भारत जैसे देशों में किसानों के लिए तमाम सहायता बंद कर दी जाए।
भारत में नकदी फसलों का अनुभव क्या कहता है?
वास्तव में भारत में नकदी फसल उत्पादकों के साथ ऐसा ही हुआ भी है। अब इन किसानों को उस तरह का मूल्य समर्थन हासिल नहीं रह गया है, जो पहले उपलब्ध रहा था। नव-उदारवादी निजाम के स्थापित किए जाने से पहले, विश्व बाजार में कीमतों के बैठने के वर्षों में चाय बोर्ड, कॉफी बोर्ड, कयर बोर्ड आदि सरकारी एजेंसियां घरेलू बाजार में दाम के समर्थन में आगे आती थीं तथा इन कीमतों पर उत्पाद की खरीद करती थीं और टैरिफ की दरों को समुचित रूप से समायोजित किया जाता था ताकि यह संभव हो। लेकिन, अब ऐसा होना बंद हो गया है।
विश्व व्यापार संगठन के नियमों के अनुसार, नकदी फसलों के लिए मूल्य समर्थन से इस तरह हाथ खींचे जाने ने ही, पिछले कई दशकों में देश में किसानों की विशाल संख्या में आत्महत्याओं में उल्लेखनीय योग दिया है। यह ऐसी चीज है जो उदारीकरण से पहले के वर्षों में, स्वतंत्र भारत में इससे पहले कभी नहीं हुई थी। अपने तीन कुख्यात कृषि कानूनों के जरिए सरकार तो खाद्यान्नों से भी मूल्य समर्थन वापस लेना चाहती थी, जिसकी इससे पहले उसकी हिम्मत नहीं पड़ी थी। लेकिन, किसानों के साल भर लंबे आंदोलन ने उसे फौरी तौर पर पांव पीछे खींचने पर मजबूर कर दिया। पर मूल्य समर्थन से हाथ खींचने की अपनी परियोजना को उसने अब भी छोड़ा नहीं है।
ट्रंप की टैरिफ नीति ने इस मुद्दे को अब फिर से एजेंडा पर ला दिया है। अगर भारत ने ट्रंप की टैरिफ बढ़ोतरी के जवाब में, अपनी ओर से जवाबी टैरिफ लगा दिए होते और बात को वहीं छोड़ दिया होता, तो भारतीय किसानों के लिए कोई खतरा पैदा नहीं हुआ होता। लेकिन, चूंकि भारत ट्रंप प्रशासन के साथ इस पर बातचीत करने के लिए तैयार हो गया है, जिसका अर्थ बुनियादी तौर पर यही है कि वह अमेरिका द्वारा भारत के खिलाफ टैरिफ नहीं बढ़ाए जाने के बदले में, अमेरिकी मालों के लिए अपने टैरिफ कम करने के लिए तैयार हो गया है, इसका साफ तौर पर यह अर्थ है कि खाद्यान्न उत्पादकों को अब तक जितना मूल्य संरक्षण हासिल रहा था, अब उपलब्ध नहीं रह जाएगा। इन वार्ताओं का कुल नतीजा यह होगा कि अमेरिकी मालों के लिए भारत की टैरिफ दरें घटायी जाएंगी, जिसका अनिवार्य रूप से अर्थ यह होगा कि खाद्यान्नों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य, यदि बना भी रहता है तब भी, उसे घटा दिया जाएगा और अमेरिका के, आय हस्तांतरण के जरिए, भारी सब्सिडी से समर्थित अनाज की भारतीय बाजार में पैठ हो जाएगी। भारत के लिए अपने खाद्यान्न का निर्यात करने का अमेरिका का पुराना सपना, जो हरित क्रांति के बाद से अधूरा ही बना हुआ था, आखिरकार पूरा हो जाएगा।
खाद्य सुरक्षा के लिए ख़तरा
यह भारत के नजरिए से सत्यानाशी होगा। इससे न सिर्फ किसानों की मुसीबतें बढ़ जाएंगी और इस तरह किसानों की आत्महत्याएं बढ़ जाएंगी (जो अब तक खाद्यान्न उत्पादक किसानों के मामले में अपेक्षाकृत कम रही थीं) बल्कि देश की खाद्य सुरक्षा भी खत्म हो जाएगी। हमारा देश न सिर्फ अमेरिका से खाद्यान्न के आयात पर निर्भर हो जाएगा, जिससे अमरीकियों को भारतीय नीति निर्माण प्रक्रिया पर दबाव डालने का एक बड़ा औजार मिल जाएगा, बल्कि अकाल की घटनाएं भी बढ़ जाएंगी। चूंकि किसान खाद्यान्न उत्पादन छोड़कर, अन्य फसलों की ओर मुड़ रहे होंगे, जो फौरी तौर पर लाभकारी नजर आ रही हों, लेकिन जब इन पैदावारों के अंतर्राष्ट्रीय बाजार में दाम बैठेंगे, जो कि अपरिहार्य रूप से होगा, उस सूरत में देश पास अंतर्राष्ट्रीय बाजार से खाद्यान्न खरीदने के लिए, विदेशी मुद्रा की तंगी हो जाएगी। इतना ही नहीं, अगर ऐसा नहीं भी हो तब भी, या अमेरिका से ‘‘खाद्य सहायता ’’ मिल रही हो, जिसके लिए जाहिर है कि वह किसी न किसी रूप में कीमत वसूल ही रहा होगा, तब भी किसानों के पास इस आयातित अनाज को खरीदने के लिए क्रयशक्ति ही नहीं होगी। दोनों ही सूरतों में भारत को अकाल के मुंह में धकेल दिया जाएगा।
अफ्रीका में ठीक यही हुआ है। अनेक अफ्रीकी देशों को इसके लिए लुभाया गया था कि खाद्यान्न उत्पादन छोड़ दें और इसकी जगह पर खाद्यान्न के आयातक बन जाएं। यह अपनी ‘‘तुलनात्मकता अनुकूलता या बढ़त’’ का लाभ उठाने के नाम पर किया जा रहा था। लेकिन, जब-जब इन देशों द्वारा उत्पादित फसलों के अंतर्राष्ट्रीय बाजार में दाम गिरे हैं, तब-तब वे अकाल की तबाही झेलने पर मजबूर हो गए हैं। अर्थशास्त्री अमीय बागची इन अकाल को ‘‘वैश्वीकरण के अकाल’’ कहा करते थे यानी ऐसे अकाल जो वैश्वीकरण के उत्प्रेरण से, खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भरता का त्याग किए जाने के चलते आते हैं। अब तक अफ्रीका ही इन ‘‘वैश्वीकरण के अकाल’’ का शिकार रहा था, अब भारत भी इनका शिकार बनेगा। विडंबना यह है कि यह वैश्वीकरण से दूर हटने की ट्रंप की धमकी के नतीजे में हो रहा होगा।
बेशक, सरकार तो यही दावा करेगी कि अमेरिका के साथ व्यापार वार्ताओं में, किसानों के हितों की कुर्बानी नहीं दी जाएगी। लेकिन, अमेरिकी मालों के मामले में टैरिफ में कोई भी कमी, किसानों के हितों पर चोट करने जा रही है। इसलिए, भारत का अमेरिका के साथ व्यापार वार्ताओं में शामिल होना अपने आप में, किसानों के हितों के खिलाफ जाता है। भारत के अपने टैरिफ कम करने के जवाब में, ट्रंप के भारत के खिलाफ अपने टैरिफ नहीं बढ़ाने से, हमारे खाद्यान्न उत्पादक किसानों को कोई लाभ होने वाला नहीं है क्योंकि वे अमेरिका के लिए खाद्यान्न के कोई उल्लेखनीय निर्यातकर्ता हैं ही नहीं। इससे विनिर्माण के काम में लगे, भारतीय इजारेदार पूंजीपतियों को जरूर कुछ लाभ हो सकता है। लेकिन, उनके इस लाभ से हमारे देश के किसानों की फूटी किस्मत पर रत्तीभर असर नहीं पडऩे वाला है।
(लेखक दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के आर्थिक अध्ययन एवं योजना केंद्र में प्रोफ़ेसर एमेरिटस हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
मूल अंग्रेज़ी में प्रकाशित इस आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें–
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