बजट में कुछ बेचैन कर देने वाले रुझान
 
अब तक यह स्पष्ट हो गया है कि केंद्रीय बजट 2019-20 में दिए गए आंकड़े स्पष्ट रूप से निराधार हैं। बजट में 2018-19 में वास्तविक प्राप्तियों और खर्च को छुपाया गया हैं, हालांकि ये आंकड़े उपलब्ध थे, लेकिन पेश किए गए आंकडे उस वर्ष के बजट अनुमानों की तुलना में भारी कमी दिखाते हैं। जबकि 2019-20 के लिए सरकार ने सभी अनुमान 2018-19 के संशोधित अनुमानों के आधार पर दिए हैं, जो कि बजट अनुमानों के करीब हैं, और वास्तविकता में बहुत कम। इसलिए, आने वाले वर्ष के बजट के आंकड़ों को गंभीरता से नहीं लिया जा सकता है। संपूर्ण बजट की हवा में सफेद झूठ व्याप्त है।
यद्यपि इसके आंकड़े बहुत कम हैं, लेकिन इस बजट में कुछ बेचैन करने वाले रुझान भी हैं जिन पर गंभीर ध्यान देने की ज़रूरत है। सरकार द्वारा इस बजट के जरिये एक घोषणा की गई है कि सरकार उधार के लिए अंतरराष्ट्रीय बाजार से भी संपर्क करेगी। अब तक शायद ही ऐसा हुआ था, यही कारण है कि भारत की संप्रभुता (यानी सरकार) के सकल घरेलू उत्पाद में विदेशी कर्ज़ जीडीपी के अनुपात में केवल 5 प्रतिशत ही है, जो दुनिया के सभी देशों में सबसे कम है। यह स्थिति अब बदलने वाली है।
सरकार विदेशी बाजार से इसलिए संपर्क नहीं कर रही है क्योंकि वह ऐसा करने के लिए मजबूर है; ऐसा भी नहीं है कि घरेलू स्तर पर धन नहीं जुटाया जा सकता है। और न ही ऐसी स्थिति है कि विदेशी कर्ज़ को वित्तीय घाटे में नहीं गिना जाएगा, ऐसी स्थिति में विदेशी ऋण लेकर सरकार वित्तीय घाटे की सीमा से अधिक खर्च कर पाएगी जिसकी अभी अनुमति नहीं है; जबकि वास्तविकता यह है कि विदेशी ऋणों को भी ठीक उसी तरह से गिना जाता है जिस तरह से वित्तीय घाटे के हिस्से के रूप में घरेलू ऋणों को गिना जाता है। कोई यह भी दावा नहीं कर सकता कि विदेशी ऋण सस्ता है; और वैसे भी, ब्याज दर के अंतर को सामने रख कर विदेश से उधार लेने की सरकार की इच्छा को किसी स्पष्टीकरण के रूप में नहीं माना जा सकता है।
यह तर्क दिया जा सकता है कि सरकार को इस बात का अंदाज़ा है कि जल्द ही ऐसी स्थिति पैदा हो जाएगी जब देश में वित्त की आमदनी के जरिये भुगतान घाटे के संतुलन (BoP) की अदायगी के लिए पर्याप्त विदेशी पूंजी नहीं होगी; और इसलिए सरकार अपने रुपये के खर्चों को वित्तपोषित करने के लिए विदेशी मुद्रा का उधार लेकर विदेशी मुद्रा भंडार का निर्माण कर रही है। लेकिन यह भी समझ से बाहर की बात है। यह तर्क इस तथ्य को नजरअंदाज करता है कि विदेशी मुद्रा में सरकार की स्वयं की ऋण-सेवा आवश्यकताओं के भुगतान संतुलन पर एक अतिरिक्त बोझ बन जाएगा।
एक गलत तर्क भी हवा में बह रहा है, जिसमें यह कहा जा रहा है कि सरकार विदेशों में धन का दोहन कर रही है क्योंकि यह घरेलू बचत की पहुंच से बाहर है। यह गलत है क्योंकि सरकार की उधारी कभी भी बचत के किसी भी निश्चित पूल से नहीं आती है। जब सरकार खर्च करने के लिए उधार लेती है, तो यह वास्तव में उन सभी संसाधनों को निजी हाथों में डाल देती है, जिन्हे वह उधार लेती है, न कि सीधे या जानबूझकर दे देती है, बल्कि चल रही व्यवस्था के काम के माध्यम से वह ऐसा करती है। चूंकि सरकार खर्च करती रहती है, अतिरिक्त रोजगार, उत्पादन और आय, और इसलिए अतिरिक्त बचत, पैदा होती रहती है, और यह प्रक्रिया तब तक चलती है जब तक कि कुल अतिरिक्त बचत बिल्कुल अतिरिक्त सरकारी खर्च के बराबर न हो जाए। सरकार केवल अपने द्वारा किए गए खर्च को वित्त करने के लिए इन अतिरिक्त बचतों को उधार ले सकती है। इसलिए, सरकार के पास उधार लेने के लिए बचत से बाहर जाने का कोई सवाल ही नहीं पैदा होता है।
इसलिए, सरकार इनमें से किसी भी कारण के लिए विदेशी बाजार का दोहन नहीं कर रही है, बल्कि वह पूरी तरह से इसे एक विकल्प के रूप में देख रही है, क्योंकि अभी तक इस मद में बहुत कम उधार लिया गया है। यह, हालांकि, खतरनाक कार्रवाई का सबब है क्योंकि यह भारतीय राज्य पर अंतर्राष्ट्रीय वित्त पूंजी द्वारा प्रयोग किए जाने वाली स्थिति को बढ़ाता है।
घरेलू वित्तीय क्षेत्र से कर्ज़ बनाम विदेशी कर्ज़
घरेलू वित्तीय क्षेत्र, जिससे सरकार सामान्य रूप से उधार लेती है, वह उसके नियंत्रण क्षेत्र के भीतर रहता है, विशेष रूप से भारत में, जहां बैंकिंग प्रणाली मुख्य रूप से राज्य के स्वामित्व में चलती है, और जहां, भारतीय रिजर्व बैंक को जो भी स्वायत्तता प्राप्त हो, वह इसे राज्य के दायरे से बाहर नहीं जाने देता है।
घरेलू वित्तीय क्षेत्र से उधार लेना, जो राज्य के नियंत्रण क्षेत्र में है, उसके भी दो निहितार्थ हैं: पहला, घरेलू वित्तीय क्षेत्र के ऋण की अदायगी न कर पाने की स्थिति में वह सरकार पर "अनैतिक" और मनमानी तौर-तरीके लागू नहीं कर सकता है; और दूसरा, रुपये के कर्ज़ को अदा न कर पाने का सवाल ही नहीं उठता क्योंकि सरकार को कराधान की संप्रभु शक्तियों पुरी तरह से हासिल है।
लेकिन अगर सरकार विदेशी बाजारों से ऋण लेती है, तो वे ऋण विदेशी मुद्रा में होंगे, इसलिए विदेशी मुद्रा की कमी की स्थिति में, घरेलू कराधान की कोई भी राशि संभवतः विदेशी ऋण की अदायगी में मदद नहीं कर सकेगी। और इस तरह की स्थिति में, विदेशी लेनदार सरकार पर "कठोर उपाय" उठाने के लिए दबाव बनाएंगे, जैसा कि वे उचित समझते हैं, जो आम तौर पर खाद्य सब्सिडी में कटौती, कल्याणकारी खर्च में कटौती, सरकारी कर्मचारियों के लिए वेतन में वृद्धि पर रोक, वेतन के आकार के खर्च को कम करने के लिए पे-रोल लागू करने को कहेगी - उदाहरण के लिए, सरकारी खर्च कम करने के लिए सार्वजनिक शिक्षण संस्थानों में स्थायी शिक्षकों की जगह तदर्थ शिक्षकों की नियुक्ति किए जाने के लिए मजबूर किया जा सकता है। इस तरह के कर्ज़ों के कई देशों के उदाहरण मौजूद हैं, जिन देशों की सरकारें अपना ऋण नहीं दे पाई, ग्रीस इसका एक स्पष्ट और सुप्रसिद्ध उदाहरण है।
बेशक, यह तर्क दिया जाएगा कि सरकार जिस भी कारण से ऋण अदा नहीं कर पाती है और उसका विदेशी मुद्रा में आई कमी से लेना-देना तो है, और इस तरह की कमी की स्थिति में, वैसे भी सरकार "कठोर" उपायों को लागू कर सकती है फिर सरकार विदेश से उधार ले या न ले इससे क्या फर्क पड़ता है। फर्क ये है कि जब सरकार स्वयं विदेशी ऋण की घुड़सवारी करती है, तो वह सीधे अंतरराष्ट्रीय लेनदारों के अंगूठे के नीचे आ जाती है। विदेशी मुद्रा के एक्सचेंज के संकट को हल करने के लिए कई व्यापक आर्थिक नीति विकल्प मौजूद है जैसे आयात नियंत्रणों को लागू करना, जो इस स्थिति के लिए हमेशा उपलब्ध रहते हैं, लेकिन लेनदारों के दबाव के कारण इन्हे लागू नहीं किया जा सकेगा।
संक्षेप में, विदेशी लेनदारों की सरकार पर सीधी पकड़ होती है, जो अन्यथा उनके पास नहीं होती। और जब ऐसा होता है तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौनसी सरकार सत्ता में है, वह सभी सरकारों के हाथों में हथकड़ी लगा देती है। यह भी सच है, कि अगर श्रमिकों और किसानों द्वारा समर्थित सरकार सत्ता में आती है, जो देश को पूरी तरह से नवउदारवाद के हमले से बाहर निकालने की हिम्मत रखती है, तो वह विदेशी लेनदारों का सामना करने में भी सक्षम होगी; लेकिन ऐसी सरकार के लिए भी, विदेशी ऋण का बड़ा भंडार उनके काम को और अधिक कठिन बना देगा।
संक्षेप में, लोकतंत्र और राष्ट्रीय संप्रभुता को बौना बनाना, जो नवउदारवाद की सामान्य ज़रूरत है, जब सरकार विदेशी लेनदारों के प्रति ऋणी हो जाती है तो यह स्थिति और बढ़ जाती है। और फिर भी, एनडीए सरकार ऐसा करने की योजना काफी कृतज्ञतापूर्वक बना रही है।
दूसरी बेचैन करने वाली विशेषता, संसाधनों के केंद्रीकरण के मामले में है जिसका खुलासा इस बजट में किया गया है। जीएसटी संग्रह में आई कमी का असर केंद्र और राज्यों दोनों पर पड़ा है। इस स्थिति में, केंद्र ने सरचार्ज और उपकर (सेस) के माध्यम से चालू बजट में राजस्व बढ़ाने का विकल्प चुना है, जिसे राज्यों के साथ साझा नहीं किया जाएगा। सुपर-रिच पर कर में वृद्धि, जिनकी आय 2 करोड़ रुपये से 5 करोड़ रुपये या 5 करोड़ रुपये से अधिक है, जो इस बजट में प्रस्तावित की गई है, उदाहरण के लिए अधिभार में वृद्धि के माध्यम से इसे उगाया जाएगा; और इसे राज्यों के साथ साझा किया जाएगा। नतीजतन, राज्य सरकारें, जोकि वित्तीय संकट का सामना कर रही हैं, उनकी उस तरह से राजस्व तक पहुंच नहीं होगी जिस पर उनका हक़ होना चाहिए था।
जीएसटी ने ही राज्यों के अधिकारों का हनन किया है; और पर्याप्त राजस्व जुटाने में इसकी विफलता ने राज्यों की स्थिति को और भी बदतर बना दिया है, क्योंकि केंद्र के विपरीत, राज्यों के पास राजस्व जुटाने का कोई अन्य साधन शायद ही मौजूद हो। यदि इस स्थिति में केंद्र राजस्व को इस तरीके से बढ़ाने का फैसला करता है और जानबूझकर उन संसाधनों को अपने पास रखता है, जिन्हे उसे राज्यों के साथ साझा करने चाहिए थे, जो अब उनकी पहुंच से बाहर हो गए है, सरकार ने उन्हें एक कोने में धकेल देगी। जब ऐसी स्थिति पैदा होती है और वे मदद के लिए केंद्र के पास आते हैं, तो केंद्र अपना पसंदीदा खेल खेलता है, और उन राज्यों को दंडित करता है जो उनके अपने राजनीतिक दृष्टिकोण के मामले में "भिन्न" होते हैं।
दक्षिणपंथी अधिनायकवाद के संक्रमण काल से गुजरते हुए, जिसे हम वर्तमान में देश में देख रहे हैं, उसकी राज्य सरकारों की शक्ति और संसाधनों के उन्मूलन में कोई भूमिका नहीं है। यह वही चलन है जिसे बजट के द्वारा प्रतिशोध के रूप में आगे बढ़ाया जा है।
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